Friday 28 December 2018


लघुकथा- पाँच 
नेताजी अपने चिर-परिचित गंभीर शैली में लोगों को संबोधित कर रहे थे, ‘सरकार ने जो यहाँ बाँध बनाने का निर्णय लिया है वह यहाँ के किसानों के विरुद्ध के साजिश है. बाँध बना कर नदी का पानी ऊपर रोक लिया जायेगा. फिर उस पानी से बिजली बनाई जायेगी और बिजली बनाने के बाद वह पानी आपको दिया जाएगा. लेकिन, भाइयो और बहनों, वह पानी आप के किस काम आयेगा?’
फिर कुछ पलों के विराम के बाद बोले, ‘जब उस पानी से बिजली निकल जायेगी तो उसकी सारी ताकत ही खत्म हो जायेगी. उसी बेकार पानी से आपको खेती करनी होगी, वही पानी आपको और आपके बच्चों को पीना पड़ेगा और उसी पानी से हमारी बहनों को  खाना पकाना पड़ेगा. यह अन्याय आप कैसे सह सकते हैं. इस सरकार को उखाड़ फैकना होगा........’
सभास्थल से निकलते ही एक व्यक्ति ने घबराई आवाज़ में कहा, ‘भाई जी, पर यह सब तो असत्य....’
इसके पहले कि वह कुछ और कहता नेता जी ने उसे डपट दिया, ‘विधायक बनना है या नहीं...’
‘लेकिन सत्य....’
‘तुम्हें सत्ता चाहिए या सत्य?’
स्वाभाविक था कि उस व्यक्ति ने चुपी साध ली.
(व्ट्सएप से एक वीडियो मिला था. पता नहीं कि वीडियो सच है या नहीं, पर उसी से प्रेरित हो कर यह लघुकथा लिखी है)  

Wednesday 26 December 2018


लघुकथा-चार
लड़की ने कई बार माँ से दबी आवाज़ में उस लड़के की शिकायत की थी पर माँ ने लड़की की बात की ओर ध्यान ही न दिया था. देती भी क्यों? जिस लड़के की वह शिकायत कर रही थी वह उसके अपने बड़े भाई का सुपुत्र थे, चार बहनों का इकलौता लाड़ला भाई.
पर लड़की के लिए स्थिति असहनीय हो रही थी. उसकी अंतरात्मा विद्रोह कर रही थी. अंततः उसके प्रतिवाद ने एक दिन उग्र रूप ले लिया. लड़के की प्रतिक्रिया आश्चर्यजनक रूप से भयानक थी.
अस्पताल में अंतिम साँसे लेते हुए लड़की ने माँ से कहा, ‘अच्छा होता अगर तुम मुझे भी गर्भ में खत्म कर देती.’

Saturday 22 December 2018


लघुकथा-तीन
‘बेटा, थोड़ा तेज़ चला. आगे क्रासिंग पर बत्ती अभी हरी है, रैड  हो गयी तो दो-तीन मिनट यहीं लग जायेंगे.’
‘मम्मी, मेरे पास लाइसेंस भी नहीं है. कुछ गड़बड़ हो गयी.....’
‘अरे तुम समझते नहीं हो, हमारी किट्टी में रूल है की जो भी पाँच मिनट लेट होगा उसे गिफ्ट नहीं मिलेगा.’   
‘तो पहले निकलना था न, सजने-सवरने में तो.......’
‘बहस मत करो और कार चलाओ.’
और श्रीमती जी सिर्फ दो मिनट देरी से पहुँची, हालाँकि उनके सोलह वर्षीय बेटे ने कार चालते समय तीन जगह रैड लाइट की अनदेखी की.
पर वह प्रसन्न थी, किट्टी में आज बहुत ही विशेष उपहार मिलने वाला था.
श्रीमती जी ने उपहार ग्रहण किया ही था कि फोन की घंटी बजी. किसी ने बताया कि उनकी कार की दुर्घटना हो गयी थी. बेटे ने फिर ट्रैफिक लाइट की अनदेखी की थी.

Friday 21 December 2018


लघुकथा-दो
उस युवक का इतना ही दोष था कि उसने उन दो बदमाशों को एक महिला के साथ छेड़छाड़ करने से रोका था. वह उस महिला को जानता तक नहीं था, बस यूँही, किसी उत्तेजनावश, वह बदमाशों से उलझ पड़ा था.
भरे बाज़ार में उन बदमाशों ने उस युवक पर हमला कर दिया था. एक बदमाश के हाथ में बड़ा सा चाक़ू था, दूसरे के हाथ में लोहे की छड़.
युवक ने सहायता के लिये पुकारा. बाज़ार में सैंकड़ों लोग थे पर आश्चर्य की बात है कि कोई भी उसकी पुकार सुन न पाया. अगर किसी ने सुनी भी तो उसकी सहायता करने का विचार उसके मन में नहीं आया. या शायद किसी में इतना साहस ही नहीं था कि उसकी सहायता करता.
अचानक कुछ लड़के-लड़कियां घटनास्थल की ओर दौड़ चले. अब कई लोगों ने साहस कर उस ओर देखा. उत्सुकता से उन की साँसे थम गईं.
लड़के-लड़कियों ने बदमाशों को घेर लिया और झटपट अपने मोबाइल फोन निकाल कर वीडियो बनाने लगे. पर एक लड़की के  फोन ने काम करना बंद कर दिया. उसे समझ न आया कि वह क्या करे. हार कर उसने एक बदमाश से कहा, ‘भैया, ज़रा एक मिनट रुकना. मेरा फोन नहीं चल रहा, इसे ठीक कर लूँ. मैं भी वीडियो बनाना चाहती हूँ.’
तभी घायल युवक निर्जीव सा धरती पर लुढ़क गया.

Wednesday 19 December 2018


लघुकथा-एक
तीव्र गति से चलती स्कूल-वैन चौराहे पर पहुंची. बत्ती लाल थी. वैन को रुक जाना चाहिये था. परन्तु सदा की भांति चालक ने लाल बत्ती की अवहेलना की और उसी रफ्तार से वैन चलाता रहा.
दूसरी ओर से सही दिशा में चलता एक दुपहिया वाहन बीच में आ गया. वैन उससे टकरा कर आगे ट्राफिक सिग्नल से जा टकराई और पलट गई.
देखते-देखते कई लोग इकट्ठे हो गये. सब ने आनन-फानन में अपने मोबाइल-फोन निकाले और उस भयानक दृश्य की तस्वीरें लेने और वीडियो बनाने में तत्परता से व्यस्त हो गये.
हरेक का यही प्रयास था कि उसे ही सबसे अच्छे चित्र या वीडियो मिलें. वहां एकत्र कुछ लोग निराश भी थे-वह अपना मोबाइल फोन लाना जो भूल गये थे.



Monday 17 December 2018


अलीपुर बम केस
श्री अरविन्द अलीपुर बम केस में एक आरोपी थे. अपनी पुस्तक, ‘टेल्स ऑफ़ प्रिज़न लाइफ’, में उन्होंने इस मुक़दमे का एक संक्षिप्त वृत्तांत लिखा है. यह वृत्तांत लिखते समय उन्होंने ब्रिटिश कानून प्रणाली पर एक महत्वपूर्ण टिपण्णी की है.
उन्होंने लिखा है कि इस कानून प्रणाली का असली उद्देश्य यह नहीं है की वादी-प्रतिवादियों के द्वारा सत्य को उजागर किया जाए, उद्देश्य है कि किसी भी तरह, कोई भी हथकंडा अपनाकर केस जीता जाए.
यह केस श्री अरविन्द और अन्य आरोपियों पर 1908 में चला था. सौ वर्ष से ऊपर हो गये हैं पर देखा जाए तो आज भी न्याय प्रणाली में वादी-प्रतिवादी का असली उद्देश्य किसी न किसी  तरह केस जीतना होता है, सत्य उजागर करने में किसी का विश्वास नहीं होता.
इस प्रणाली में जीत होती है धनी, शक्तिशाली लोगों की जो वकीलों की फ़ौज खड़ी कर सकते हैं और निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक केस लड़ सकते हैं. आम आदमी तो बस चक्की में पिस कर रहा जाता है. ऐसा न होता तो 1984 के दंगों के मामले अब तक न चलते.

Wednesday 12 December 2018


क्या हम एक विक्षिप्त समाज बन गये हैं?
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में पाँच वर्ष से लेकर 29 वर्ष की आयु के बच्चों और युवा लोगों की मृत्यु का मुख्य कारण रोग या भुखमरी या मादक पदार्थों की लत या साधारण दुर्घटनाएँ नहीं है. इन बच्चों और युवकों की मृत्यु का मुख्य कारण है सड़क दुर्घटनायें.
सरकारी आंकड़ों पर अगर विश्वास किया जाए तो 80% सड़क दुर्घटनाओं के लिए वाहन-चालक ही ज़िम्मेवार होते हैं. यह तथ्य विश्वसनीय ही लगता है.
सड़क पर चलता (या वाहन चलाता) एक व्यक्ति जो थोड़ा सा भी जागरूक है अनुभव कर सकता है कि अधिकतर वाहन-चालक तेज़ गति से वाहन चलाने के दोषी हैं, कई ट्रैफिक सिग्नल की अनदेखी करते हैं या उलटी दिशा से वाहन चलते है. ऐसी कई गलतियाँ अधिकतर वाहन-चालक बेपरवाही से हर दिन हर जगह करते हैं और अकसर यह गलतियाँ उनके स्वयं के लिए और औरों के लिए घातक सिद्ध होती हैं.
हर वर्ष हम स्वयं ही हज़ारों बच्चों और युवाओं की अकाल मृत्यु का कारण बनते हैं पर हमारे अंत:करण पर खरोंच भी नहीं पड़ती. क्या ऐसा आचरण एक विक्षिप्त मानसिकता का प्रतीक नहीं है?
आश्चर्य की बात तो यह है कि इन दुर्घटनाओं को रोकना बहुत ही सरल है. अगर सभी वाहन-चालक यह निश्चय कर ले कि वह दूसरों की (और अपनी) सुरक्षा का पूरा ध्यान रखेगा तो स्थिति एकदम बदल सकती है.
आवश्यकता है तो बस थोड़ी संवेदनशीलता की. पर लगता है कि इसी गुण को तो हम सब में अपार कमी है.

Monday 10 December 2018


सड़क दुर्घटनायें और हमारी बेपरवाही
सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में हर दिन चार सौ से अधिक लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं. निश्चय ही यह एक भयानक सच्चाई है. पर इस त्रासदी को लेकर हम सब जितने बेपरवाह हैं वह देख कर कभी-कभी आश्चर्य होता है; लगता है कि सभ्य होने में अभी कई वर्ष और लगेंगे.
अब जो आंकड़े विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने जारी किये हैं वह पढ़ कर तो लगता है कि स्थिती बहुत ही भयावह है. एक समाचार पत्र में छपी रिपोर्ट के अनुसार 2016 में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 150785 लोगों की सड़क दुर्घटनाओं में मृत्यु हुई थी, परन्तु विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार यह संख्या 299091 थी. अर्थात हर दिन 820 लोग, या कहें तो हर एक घंटे में 34 लोग, भारत की सड़कों पर अकाल मृत्यु को प्राप्त होते है.
उससे भी चौकाने वाली बात यह है की पाँच वर्ष से लेकर 29 वर्ष की आयु में बच्चों ओर युवकों की मृत्यु का सबसे कारण सड़क दुर्घटनायें हैं.
यह तथ्य हैरान करने वाले और डराने वाले हैं. पर लगता नहीं कि इस देश में किसी को भी इस बात की रत्ती भर भी परवाह या चिंता है.
बीच-बीच में हम लोग, किसी दुर्घटना घटने के बाद, थोड़ा-बहुत रोना-धोना करके और नेताओं के सामने नारेबाजी करके अपना दायित्व निभा देते हैं और फिर सड़कों पर चिर-परिचित बेपरवाही से अपनी गाड़ियाँ दौड़ातें हैं. लेकिन स्थिति में थोड़ा-सा बदलाव लाने का  कहीं कोई गम्भीर प्रयास होता नहीं दिखाई देता.
अब ज़रा भविष्य की कल्पना करते हैं. हर दिन मैं बीसियों लोगों को ट्रैफिक नियमों का उल्लघंन करते हुए अपने वाहन चलाते हुए देखता हूँ. इन वाहनों में बच्चे भी सवार होते है. यह बच्चे क्या सीख पाते हैं?
निश्चय ही इन बच्चों की चेतना में यह बात बैठ रही है कि सड़क पर वाहन चलते समय हमें सिर्फ अपनी और अपनी सुविधा का सोचना चाहिए, दूसरों की सुविधा या सुरक्षा का कोई अर्थ नहीं है, कि ट्रैफिक नियमों का पालन करना हमारा दायित्व नहीं है, कि अपनी इच्छानुसार हम इन नियम का पालन कर सकते हैं, कि जीवन कोई मूल्यवान उपहार नहीं है, बस दो कोड़ी का है-अपना भी और औरों का भी.
भारत की सड़कों पर भविष्य तो अंधाकारमय ही लगता.