Wednesday 26 April 2017

“अरविंद केजरीवाल जी, कृपया मतदाताओं का अपमान न करें”.
दिल्ली में सत्ता पाने के समय से ‘आप’ दल के नेताओं का जैसा व्यवहार रहा है, उसे देख कर यह अनुमान लगाया जा सकता था कि दिल्ली एमसीडी चुनावों में पार्टी की हार के लिए वह किसी न किसी को दोषी करार दे देंगे. संविधानिक संस्थाओं और परम्पराओं का सम्मान करने का चलन उनके दल में नहीं है ऐसा हम सब ने देखा ही है. वह उसी नियम-कानून के मानने को तैयार हैं जो उनकी समझ में सही है, भ्रष्टाचार की उनकी अपनी परिभाषा है. ऐसे में उनसे अपेक्षा करना कि जनता के निर्णय का सम्मान करते हुए वह इस निर्णय को विनम्रता से स्वीकार कर लेंगे गलत होगा.  
चुनाव के नतीजे आने से पहले ही ‘आप’ के नेता जैसी  बोली बोल रहे थे वह अपेक्षित ही थी. उनके किसी नेता ने कहा कि अगर उनकी पार्टी की जीत होगी तो यह जनता का निर्णय होगा पर अगर बीजेपी की जीत होती है तो यह ईवीएम् मशीनों के कारण होगी.
आज यही राग उनके नेता आलाप रहे हैं. ऐसा करके वह उन सब मतदाताओं का अपमान कर रहे हैं जिनका लोकतंत्र में पूरा विश्वास है, जिन्होंने मतदान में भाग लिया. समय-समय पर चुनाव हारे हुए नेता ऐसा राग अलापते रहे हैं. बीजेपी के नेताओं ने भी ऐसी बातें कहीं हैं. पिछले कुछ दिनों से कांग्रेस के नेता भी ऐसी बातें कहने लगें हैं, हालांकि कांग्रेस के राज में ही इन मशीनों का प्रयोग आरम्भ हुआ था.   
पर जितने भी नेताओं ने (या उनके प्रतिनिधियों ने) ईवीएम् मशीनों को लेकर प्रश्न उठायें हैं उन में से आजतक एक भी व्यक्ति कोई ऐसा प्रमाण नहीं दे पाया जिससे यह प्रमाणित हो कि ईवीएम् मशीनों के साथ छेड़छाड़ हुई थी.
और एक बात सोचने वाली है कि जनता तो जानती है कि उन्होंने किसे वोट दिए हैं. आज तक देश की किसी भाग में मतदातों ने चुनावों की सत्यता या प्रमाणिकता पर प्रश्न नहीं उठायें हैं. कहीं कोई आंदोलन नहीं हुआ, कहीं भी लोगों ने यह बात नहीं उठायी कि ईवीएम् मशीनों का गलत इस्तेमाल हुआ है. अगर ईवीएम् मशीनों को इतने बड़े पैमाने पर दुरुपयोग संभव होता तो क्या कोई सत्ताधारी पार्टी चुनाव हारती? क्या मोदी जी तीन बार गुजरात में चुनाव जीत पाते? क्या दिल्ली में सत्ता परिवर्तन होता?
आज किसी टीवी पर हो रही चर्चा में ‘आप’ के नेता कह रहे थे ‘क्या कोई मुझे “समझा” सकता है वगैरह-वगैरह’.  मुझे उसकी बात सुन हंसी आई. जब ‘आप’ ने यह तय कर ही लिया है कि ‘आप’ की हार का कारण मतदाता नहीं, ईवीएम् मशीनों हैं तो ‘आप’ को कोई क्या समझा सकता है. कहावत है कि सोये को जगाया जा सकता है, जागे को कौन जगा सकता है.
अरविंद केजरीवाल जी हम नहीं जानते कि ‘आप’ की क्या मजबूरी है जो  आप सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते. पर चुनावों में मिली करारी हार के लिए ईवीएम् मशीनों को दोष देकर मतदाताओं का  अपमान न करें. आपका संविधान में, संस्थाओं में, लोकतंत्र में विश्वास हो न हो, देश के अधिकतर लोगों का विश्वास है, उनके विश्वास का अपमान न करें, इसी में देश और समाज की भलाई है.  


Saturday 15 April 2017

मतदाताओं में ख़राबी है.

मुकंदी लाल जी को हम ने लाख समझाया पर इस बार उन्होंने हमारी एक न सुनी.
‘इस बार हम आपकी एक न सुनेंगे. हर बार हम अपना मन पक्का करते हैं और हर बार आप हमारा विश्वास डगमगा देते हैं. इस बार हम अवश्य ही मुनिसिपलिटी का चुनाव लड़ेंगे. कोई पार्टी हमें टिकट दे या न दे, हमारा निर्णय न बदलेगा. हम चुनाव में खड़े होंगे, चाहे निर्दलीय ही खड़े हों. आप समझ नहीं रहे, अगर आप-हम जैसे अच्छे लोग राजनीति में आयेंगे नहीं  तो राजनीति बदलेगी कैसे?’
उनकी बात सुन मन में गुदगुदी सी हुई. अनचाहे ही पर अपने साथ वह हमें भी अच्छा कह रहे थे.
‘मुकंदी लाल जी, कितने ही लोग पहले से राजनीति को बदलने में अपना सब कुछ दांव पार लगा कर बैठे हैं. अब आप भी राजनीति बदलने के अभियान में जुट जायेंगे तो राजनीति बेचारी तो पूरी तरह त्रस्त हो जायेगी. राजनीति पर इतना अत्याचार न करें. साठ वर्षों से हमारे राजनेता राजनीति की........’
‘आप जितना भी व्यंग्य करना चाहें करें पर हम अब रुकने वाले नहीं.’
और मुकंदी लाल जी नहीं रुके. किसी पार्टी से टिकट तो मिलना था नहीं, निर्दलीय के रूप में ही उन्होंने पर्चा भर दिया और चुनाव अभियान में कूद पड़े. घर-घर जाकर मतदाताओं के सामने उन्होंने अपने विचार रखे, राजनीति को बदलने का अपना निश्चय बताया. सबने सहयोग का विश्वास दिलाया.
“हमारा विश्वास करें. अभी तक सब राजनेताओं ने आपको ठगा है. हम आपको ठगने के विचार से राजनीति में नहीं आये हैं. इस देश के लिए, इस समाज के लिए कुछ करने का निश्चय किया है. इस राजनीति को बदल देंगे. चुनाव समाप्त होते ही सब राजनेता लोगों को भुला बैठते हैं. सब के सब सत्ता के पीछे दौड़ पड़ते हैं, अपने परिवार को राजनीति में लाने के प्रयास में लगे रहते हैं. हम ऐसा नहीं करेंगे. हमारे परिवार को कोई भी सदस्य हमारे आसपास भी न दिखेगा.” ऐसी ही कई बातें  मुकंदी लाल जी ने लोगों से कही.
चुनाव के बाद उन्हें पूरा विश्वास था कि वह जीत जायेंगे, ‘लोगों का उत्साह देखते ही बनता था. मुझे तो लगता है कि अन्य सभी उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो जाएगी. जीत पक्की है. अच्छा किया जो आपकी बातों में न आया और इस बार चुनाव में खड़ा हो ही गया. अब इस समाज को बदल कर रख दूंगा.’
यह डायलाग उन्होंने ऐसे कहा जैसे कह रहे हों, ‘पाप को जला कर राख कर दूंगा.’
चुनाव का नतीजा आया. मुकंदी लाल जी को कुल उन्नीस वोट मिले थे. जीतने वाले उम्मीदवार को चालीस हज़ार से अधिक वोट मिले थे. जो व्यक्ति दसवें स्थान पर आया था उसे एक सौ बीस मत मिले थे. मुकंदी लाल जी को सब से कम मत मिले थे.
‘क्या लगता है आपको, क्या मशीन में कोई गड़बड़ थी? आपके जानने- पहचानने वालों की संख्या ही पचास से ऊपर होगी. कम से कम पचास मत तो मिलने ही चाहिए थे?’  
‘नहीं भाई साहिब, मशीन में कोई गड़बड़ नहीं थी. मशीन में क्या खराबी होगी.  मुझे लगता है मतदाताओं में ही खराबी है, जानते हैं जो व्यक्ति चुनाव जीता है उसने पांचवीं बार पार्टी बदली है. हम नई राजनीति की बात कर रहे थे और लोग दल-बद्लूओं को वोट दे रहे थे. सुना है जितने लोग जीते हैं उन में से कईयों के विरुद्ध अपराधिक मामले भी चल रहे हैं. मशीन बेचारी क्या करे, जब मतदाता ही ऐसे लोगों को वोट दे देते हैं.’
‘पर दूसरी पार्टियों के नेता तो मशीन को ही दोष दे रहे हैं.’
‘मशीन उनकी बात का जवाब नहीं दे सकती इसलिए मशीन पर दोष लगाना सरल है. अपने को कोई दोषी मानता नहीं. एक-दूसरे को हार का दोषी ठहराएंगे तो आपस में ही कहा-सुनी हो सकती है.’
‘पर आप भी तो मतदाताओं को दोषी ठहरा रहे हैं?’
‘तो क्या गलत कर रहे हैं?’

हम चुप हो गए, मतदाता की भूमिका को नकारा तो नहीं जा सकता. आज की राजनीति के लिए क्या सिर्फ राजनेता ही दोषी हैं, यह प्रश्न हमारे समक्ष भी खड़ा हो गया.

Tuesday 4 April 2017


आज़ादी का नारा
मुकंदी लाल जी ने हमारे अध्ययन-कक्ष में प्रवेश किया. उनकी गंभीर मुद्रा देख कर हमें समझने में देर न लगी कि श्रीमान किसी उलझन में घिरे हुए हैं.
बोले, ‘यह यादवपुर विश्वविद्यालय कहाँ है?’
‘यादवपुर या जादवपुर?’ हम ने जानबूझ कर उन्हें छेड़ते हुए कहा.
‘अरे, बाल की खाल उतारने के बजाय हमारी उलझन सुलझाने का प्रयास करें.’
‘जहां तक हमारी जानकारी है जादवपुर विश्वविद्यालय पश्चिम बंगाल में स्थित है.’
‘आप ठीक से जानते हैं या अनुमान लगा रहे हैं?’
‘ठीक से जानते हैं? आपको शंका क्यों हो रही है.’
‘उस विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने आज़ादी के नारे लगाए. पर उलझन इस बात की हैं कि छात्रों ने पश्चिम बंगाल की आज़ादी के नारे नहीं लगाए, कश्मीर की आज़ादी के, मणिपुर और नगालैंड की आज़ादी के नारे लगाए. इस कारण हमें समझ नहीं आ रहा कि विश्वविद्यालय हैं कहाँ पर?’
‘अरे, इस में इतना उलझने की क्या बात है, अगर दिल्ली के विद्यार्थी कश्मीर के लिए नारे लगा सकते हैं तो यादवपुर विश्वविद्यालय के छात्र भी नारे लगा सकते हैं.’
‘ऐसा है तो चेचनिया और बलोचिस्तान की आज़ादी के नारे क्यों नहीं लगाते.’
‘अरे आप तो इस बात को बड़ी गंभीरता से ले रहे हैं. दो-चार लोगों ने नारे लगा दिए, टीवी पर चंद  मिनटों के लिए चर्चा का विषय बन गए. इन लोगों की क्रान्ति विश्वविद्यालय प्रांगण से आरम्भ हो कर किसी टीवी स्टुडियो में समाप्त हो जाती है.’
‘अरे, आप समझ नहीं रहे. हमारे साले साहिब इन लोगों से इतने प्रभावित हो गए हैं कि ज़िद पर अड़े हैं, कह रहे हैं कि वह भी किसी की आज़ादी के लिए नारे लगायेंगे. दहेज़ में मिले हैं तो हम कुछ कह भी नहीं सकते. हम ने सुझाव दिया कि इन समझदार लोगों की भांति तुम भी कश्मीर की आज़ादी के लिए दो-चार नारे लगा कर मन के ताप को ठंडा कर लो. जानते हैं क्या बोले?’
‘हम कैसे जानेगे.’
‘सही कहा आपने. हम ही बताते हैं. बोले, ‘कश्मीरी मूर्ख हैं, इनकी आज़ादी एक दिन न टिकेगी. आज़ादी मिल भी गयी तो अगले ही दिन चीन या पकिस्तान हड़प लेगा.’ श्रीमान सोच रहे हैं कि स्कॉटलैंड की आज़ादी के नारे लगायें.’
मुकंदी लाल जी की बात सुन हम चौंक पड़े. ‘उसे मालूम भी है कि स्कॉटलैंड कहाँ हैं?’
‘यही तो हम समझ नहीं पा रहे, चार साल में बारहवीं पास की और छह साल से बीए कर रहा है.  सपने देख रहा है स्कॉटलैंड की आज़ादी के.’
‘अरे भाई वह अकेला ऐसा विध्यार्थी नहीं है जिसके भीतर क्रांति के बीज पनप रहे हैं. इन्टरनेट भरा पड़ा है ऐसे क्रांतिकारियों से.’
‘पर समस्या इतनी भी सरल नहीं हैं साले साहिब की मांग है कि वह कुछ समय फ्रांस में बिताना चाहते हैं, स्कॉटलैंड की समस्या का अध्ययन करने के लिए.’
हमें मुकंदी लाल जी की स्थिति दयनीय लगी. सुझाव दिया, ‘आप भी आज़ादी का नारा क्यों नहीं लगाते.’
‘किसी की आज़ादी का नारा लगाएं?’ वह थोड़ा बिगड़ कर बोले.
‘अपनी आज़ादी का. अपने साले साहिब से आज़ादी का नारा लगाएं.’
हमारी बात उन्हें जंच गई और वह जोर से हंस दिए.