Saturday 27 February 2016

झंडा ऊँचा रहे हमारा
आज लगभग हर कोई अपने को एक महान देशभक्त प्रमाणित करने पर तुला है. कुछ विरले लोग अपने को देशद्रोही कहलवा कर गौरवान्वित हो रहे हैं. ऐसे भी अभिमानी लोग हैं जो अपने को कट्टर ‘देशद्रोही देशभक्त’ समझते हैं और अपने को ‘देशद्रोही देशभक्त’ सिद्ध करने के लिए विभिन्न तर्क दे रहे है.. 
मीडिया वालों कि तो जैसे लाटरी लग गई है. हर समाचारपत्र और  हर चैनल पर यही चर्चा हो रही कि कौन देशभक्त है और कौन नहीं. इस बात पर भी गहन चिंतन हो रहा कि जो लोग देश के टुकड़े कर देने के सपने देख रहे हैं उन्हें देशभक्त माना जाये यह नहीं. स्वतंत्रता के सत्तर वर्षों बाद कुछ लोगों को लगने लगा है कि देश का कानून ही गलत है, देशद्रोह की परिभाषा ही बदलनी होगी.
हम भी इस चर्चा से प्रेरित हुए और हमने सोचा कि क्यों न जनता से सीधे बात की जाये और उनसे जाना जाये कि आखिर वह अपने को कहाँ खड़ा पाते हैं.
एक ट्रैफिक कांस्टेबल दिखा. हमने पूछा, ‘आप अपने को देशभक्त मानते हैं?’
‘मानते हैं का क्या मतलब? मुझसे बड़ा देशभक्त कौन है? जितनी सेवा मैं देश के लोगों की करता हूँ उतनी सेवा कौन कर सकता है.’
‘ज़रा विस्तार से बताइये.’
‘अभी-अभी एक लड़के को पकड़ा था, कार चलाते-चलाते फोन पर बात कर रहा था. सारे कागजों की जांच की. उसके पास पी यू सी भी न था. ड्राइविंग लाइसेंस पर पुराना पता था. पूरे तीन हज़ार का चालान बनता था. मुझे लगा, बेचारा नौकरी पेशे वाला लड़का है, कहाँ से इतना भरेगा. पाँच सौ लिए और उसे जाने दिया. ऐसा काम तो देश और देशवासियों से प्यार करने वाला ही कर सकता है.’
एक दूध वाले से बात की. वह बोला, ‘दस लिटर दूध में यूरिया वगेरह मिला कर तीस लिटर बना देता हूँ. इस तरह दस की जगह पचीस-तीस घरों को दूध सप्लाई कर पाता हूँ. कोई देशभक्त ही इतना जोखिम उठा कर ऐसा काम कर सकता है. हमने तो सोच रखा चाहे जेल जाना पड़े पर हम अपने देशवासियों की दूध की डिमांड को हर सूरत में पूरा करेंगे. जवाहरलाल नेहरु भी तो जेल गये थे देश के लिए, हम भी चले जायेंगे.’
हम आगे चले. कुछ वकील दिखे. हमारा प्रश्न सुन, सब एक साथ बोले, ‘हम सब कट्टर देशभक्त है. देश के लिए कुछ भी कर सकते हैं. आज सुबह ही इस अदालत के बाहर एक बलात्कारी के हाथ पाँव तोड़े थे हम सब ने. पुलिस तो इतनी निकम्मी है कि कभी किसी को अपराधी साबित नहीं कर पाती. अब ऐसे अपराधियों को समाज में खुले घूमने तो नहीं दिया जा सकता. उन्हें सज़ा तो मिलनी चाहिये.’
जेल से बेल पर आते एक राजनेता मिले, जबरन वसूली के अपराध में जेल गये थे. उनका सम्मान करने के लिए लोगों की भीड़ इकट्ठी हो रखी थी. वह बोले, ‘देश भक्ति तो हमारे खून में है.’
‘यह केस..........’
‘षड्यंत्र है.’
हम बस इतने ही लोगों की राय जान पाये. हमें पता न था कि नगर की परेड ग्राउंड में एक बड़ी सभा आयोजित हो रखी थी. सभा में भाग लेने के लिए दूर-दूर से हज़ारों लोग आये हुए थे. कई लोग सभा छोड़ कर बाजारों में यहाँ-वहां फ़ैल रहे थे. किसी के हाथ में तिरंगा था तो किसी के हाथ में अपने दल का झंडा.
सब लोग मस्त हाथियों सामान घूम रहे थे. कहीं किसी ढेले वाले को लूट रहे थे तो कहीं किसी शोरूम में घुस कर उत्पात मचा रहे थे. कहीं किसी महिला के साथ बदसलूकी की थी तो कहीं स्कूल के लड़कों को पीट डाला था. लौटते समय रेलवे स्टेशन और बस-अड्डे में भी तोड़-फोड़ की उन लोगों ने.
पर इतना उत्पात मचाते हुए भी उन्होंने तिरंगे का अपमान न होने दिया था, पूरे सम्मान के साथ हर समय तिरंगा फहराते रहे थे.


Monday 22 February 2016

ज़ख्म
जुझारू और खूंखार आतंकवादियों से लड़ते हुए भी सैनिक के उत्साह और जोश में रत्तीभर कमी न आई. वह तो कब से इस दिन की प्रतीक्षा कर रहा था, अपनी जन्मभूमि के लिए मर मिटने का जज्बा उसके भीतर उफान मार रहा था.
उसे छह गोलियां लगीं पर वह तब तक लड़ता रहा जब तक कि उसके साथी उसे जंग के मैदान से उठा कर नहीं ले गये. कई दिन जीवन और मृत्यु के बीच वह झूलता रहा. अंत में मृत्यु भी उसके अदम्य साहस के सामने हार गई और दरवाज़े से ही लौट गई.
उसके चेहरे पर एक मुस्कान थी. वह जानता था कि वह एक विजेता था.
अस्पताल में उसे अभी कुछ दिन और रुकना था. कई दिनों के बाद उसने टी वी देखा और चुपचाप देखता ही रहा.
किसी चैनल पर एक महानुभाव कह रहे थे, ‘अगर मैं कहूँ कि देश के टुकड़े हो जाने चाहिये तो इसे राजद्रोह कैसे माना जा सकता है. अगर आप मुझे ऐसा कहने से रोकते हैं तो यह मेरे अधिकारों का हनन होगा.’
‘किसी को अधिकार नहीं की मेरी देशभक्ति पर प्रश्नचिंह लगाये. इस देश में कई लोग समझते हैं कि अफजल गुरु एक शहीद है, यह उनकी धारणा हैं और ऐसा सोचने और कहने का अधिकार उनसे कोई नहीं छीन सकता. आप उन्हें देशद्रोही नहीं कह सकते.........’
सैनिक ने रिमोट का बटन दबाया.
‘आप किसी को भी तिरंगे का सम्मान करने के लिए मजबूर नहीं कर सकते. कुछ लोग तो तिरंगे का भी भगवाकरण कर रहे हैं. देशभक्ति का भगवाकरण कर रहे हैं. हमारे मन में देश प्रेम है पर तिरंगा फहराना या न फहराना हमारा अपना अधिकार है...............’
सैनिक ने फिर रिमोट का बटन दबा.
‘यह देश तो कभी एक राष्ट्र रहा नहीं. पूरे विश्व में राष्ट्रवाद की परिभाषा बदल रही. यहाँ कुछ लोग राष्ट्रवाद की नई परिभाषा लोगों पर लाद रहे हैं यह जानते हुए भी कि यहाँ हर एक लिए राष्ट्रवाद के अलग मायने हैं और ऐसा होना भी चाहिये.................’
बटन फिर दबा.
‘अभी-अभी सूचना मिली है कि आतंकवादियों से लड़ते हुए सेना का एक कप्तान शहीद हुआ है. वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान .........’

सैनिक को लगा कि उसके ज़ख्म, जो लगभग भर चुके थे, फिर से हरे हो गये हैं.

Friday 19 February 2016

जलियांवाला बाग़ से जे एन यू तक
जीवन में पहली बार जलियांवाला बाग़ जाने का अवसर मिला. हम लोग अमृतसर गये थे, हरमंदिर साहिब के दर्शन करने. सुना था कि जलियांवाला बाग़ बगल में ही है. हरमंदिर साहिब जाने के बाद हम वहां भी गये.
वहां वह संकरी गली देखी जहां से जनरल डायर की बख्तरबंद गाड़ियां भीतर न जा सकीं थीं, अगर बख्तरबंद गाड़ियां जा पातीं तो डायर बाग़ में इकट्ठे लोगों पर मशीन गन से गोलियां चलवाता. वह कुआं देखा जहां से १२० लोगों के शव निकाले गये थे. दीवारों पर गोलियों के निशान देखे. एक सिक्का देखा जिस में गोली लगने से छेद ही गया था.
म्यूजियम में लगाईं वह पेंटिंग देखी जिसमें 13 अप्रैल १९१९ के दिन घटी घटना दर्शाई गई है और उस भयानक त्रासदी की कल्पना करने का प्रयास किया.
चारों तरफ से बंद मैदान में १२००० से १५००० लोग शान्तिपूर्वक इकट्ठे थे, वह किसी जे एन यू या जादवपुर से सरकारी खर्चे पर मुफ्त शिक्षा पा कर न आये थे. वह सीधे-साधे लोग थे, उनमें किसान थे, छोटे-मोटे व्यापारी थे, मजदूर थे, हरमंदिर साहिब के दर्शन करने आये श्रदालु थे. वहां बच्चे भी थे, महिलायें भी थीं, बूढ़े भी थे. कई लोग तो शायद  बस उत्सुकतावश ही आये होंगे.
पर डायर के लिए यह सब कोई मायने नहीं रखता था. उन लोगों ने अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज़ उठाने का साहस किया था, इस कारण सज़ा तो उन्हें देनी ही थी, और वह उसने दी. सौलह सौ से अधिक गोलिया उसके जवानों ने उन निहत्थे लोगों पर दाग दीं. गोलियों के निशानों से साफ़ दिखता है कि मैदान में फंसे लोगों को जान से मारने के इरादे से ही गोलियां चार-पाँच फुट की उंचाई तक मारी गईं थीं. कुछ लोगों ने दीवारों पर चढ़ने का प्रयास किया था, पर आग उगलती बंदूकों के आगे हार गये थे. बाग़ के बायीं ओर जो कुआँ था कुछ लोग उसमें कूद गये थे और जान गवां बैठे थे.
उस दृश्य की कल्पना करके भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. कितने लोग मारे गये इस तथ्य को लेकर सरकार और लोगों के अलग-अलग मत थे. पर महत्वपूर्ण यह है कि वह सब आम लोग थे, ऐसे लोग जिन्हें इतिहास में कभी कोई स्थान नहीं मिलता.
आज भी हम नहीं जानते कि कौन थे वह लोग जिन्हें उस दिन अपने जीवन की आहूति देनी पड़ी. कम से कम मुझे तो उस म्यूजियम में कहीं कोई ऐसी सूची न दिखी.
ऐसे ही कितने अज्ञात लोगों ने बलिदान दिया और हमें स्वतंत्रता मिली, इस बात की अनुभूति मुझे वहां जलियांवाला बाग़ में हुई. मैं एक बार हल्दी घाटी भी गया था पर उस घाटी में योद्धा थे जो एक दूसरे से लड़े थे.
दो दिन समाचारों से दूर रहने के बाद लौट कर आश्चर्यचकित कर देने वाला दृश्य देखा. देखा कि कई टी वी चैनल पर कुछ युवा अफज़ल गुरु के समर्थन में अपनी आवाज़ उठा रहे हैं, कई युवा उन युवाओं के समर्थन में सडकों पर उतर आये हैं, इन सब युवाओं के समर्थन में कई राजनेता सीना ताने खड़े हैं, बहस का मुद्दा यह भी है कि जे एन यू में तिरंगा फहराने का आदेश सही है या गलत.

एक पल को लगा कि कितने अभागे थे वह लोग जो 13 अप्रैल १९१९ के दिन जलियांवाला बाग़ आये थे. उन्होंने व्यर्थ अपना जीवन गवाया. 

Saturday 13 February 2016

हम भूल गये कुर्बानी
आज कुपवारा में आतंकवादियों से लड़ते हुए सेना के दो जवान शहीद हो गये.
किसी मीडिया चैनल ने इन शहीदों का नाम लेना भी आवश्यक न समझा. जे ऍन यू के पीड़ित छात्रों के अधिकारों को लेकर उत्तेजित राजनेताओं के पास भी इतना समय न था कि उन शहीदों के लिए दो झूठे आंसू ही बहा देते. पर नहीं, किसी के पास इतना समय न था, न मीडिया के पास, न राजनेताओं के पास.
जिस देश में चर्चा का विषय अफजल गुरु और उसकी "शहादत" (जे ऍन यू के छात्रों के दृष्टी में वो शहीद हुआ था) के विवाद से जुड़े जे ऍन यू के छात्रों के साथ हो रहा व्यवहार/दुर्व्यवहार हो, वहां उन शहीदों की कैसी पात्रता कि वह किसी चर्चा का विषय बने. 
इसी देश के किसी राजनेता ने कभी कहा था कि सेनिकों का तो काम ही होता है देश के लिए मर जाना. बात कही तो एक नेता ने थी पर आज लगता है कि यह हम सब की सोच को ही दर्शाता है. हम लोग ऐसे मीडिया का बहिष्कार नहीं करते जिसके लिए सिर्फ टी आर पी ही सब कुछ है. हम ऐसे राजनेताओं को इतिहास के कूड़ेदान में नहीं फैंक देते जिनके लिए हर स्थिति में सिर्फ वोट की राजनीति ही मायने रखती है.
दोष न मीडिया का है, न राजनेताओं का. दोष हम सब का है. हमें न ऐसे मीडिया पर गुस्सा आता है न ऐसे राजनेताओं पर. हमारे ही कारण दोनों अपना कारोबार इतनी सफलता से चला पातें हैं. 
एक पुरानी घटना याद आ रही. जॉर्ज फेर्नान्डज़ रक्षा मंत्री थे और एक आयोजन में उन्होंने सेना के एक अफसर का अनुभव बताया था कि कैसे सियाचिन से लौटते समय उसे रेलवे का टिकट न मिल रहा था. जब उसने रेल अधिकारी से कहा कि वह सियाचिन से आ रहा और उसे घर जाना है तो रेल अधिकारी ने कहा था कि उससे क्या होता है. टिकट चाहिये तो ‘पैसे’ देने होंगे. रक्षा मंत्री की बात सुन लोग हंस पड़े जैसे कि उन्होंने कोई चुटकुला सुनाया था.
जॉर्ज फेर्नान्डज़ ने थोड़ा ऊंची आवाज़ में कहा था कि हमें इस बात हंसी नहीं, गुस्सा आना चाहिये. जब तक लोगों को ऐसी बातों पर गुस्सा नहीं आयेगा सिस्टम बदलेगा नहीं.
कुछ लोग कह रहें हैं कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है. गलत कहते हैं लोग. जितनी सहिष्णुता हम लोगों में है वैसी सहिष्णुता किसी भी स्वाभिमानी देश के लोगों में न मिलेगी.
हम सब कुछ सह लेते हैं, ऐसे नेता भी, ऐसा मीडिया भी.


कास्ती माई
कास्ती माई अकेली थी, बिलकुल अकेली. न उसका पति था, न बहु-बेटे, न कोई दूसरा सगा-संबंधी.
उसे आता-जाता देख बच्चे चिल्लाने लगते, ‘कास्ती माई, कास्ती माई’.
वह बच्चों पर चिल्लाती, उन्हें खरी खोटी सुनाती और कभी-कभी अचानक किसी बच्चे पर झपट पड़ती. बच्चे इधर-उधर भाग खड़े होते. कास्ती माई बड़बड़ाती हुई अपने रास्ते चल देती. मोहल्ले के बच्चों के लिए यह एक खेल था जो वो दिन में एक-आध बार खेल ही लेते थे.
सूखा हुआ शरीर, सफ़ेद बिखरे हुए बाल, रूखी बोली, मुझे तो उसे देख कर ही डर लगता था. शायद इसी कारण मैंने इस खेल में कभी भाग न लिया था. मुझे तो उस पर तरस भी आता था. न जाने क्यों मुझे लगता था कि वह एक बहुत ही दुःखी औरत थी. मन ही मन मैं चाहता था कि कोई उसे सताया न करे.
साहस कर, एक दिन मैंने एक लड़के से पूछा था, ‘तुम सब कास्ती माई को इतना क्यों तंग करते हो?’
‘क्या तुम जानते नहीं कि वह कौन है?’ उसने मुझे घूरते हुए कहा.
‘नहीं, मैं नहीं जानता कि वह कौन है,’ मैंने आश्चर्य से कहा.
‘तभी तुम ऐसी बात कह रहे हो,’ उसने अकड़ते हुए कहा.
‘कौन है कास्ती माई?’ मैंने उत्सुकता से पूछा.
‘डायन है,’ उसने मेरे कान में फुसफुसा कर कहा.
मैं सहम गया. मेरे दिल की धड़कन तेज़ हो गई. मुझे उसकी बात पर विश्वास न हो रहा था.
उसने धीमी, रहस्यमयी आवाज़ में कहा, ‘जानते हो रात भर वह कहाँ रहती है?’
‘कहाँ?’ मेरी आवाज़ भी दबी सी थी.
‘जोगी दरवाज़े.’
‘जोगी दरवाज़ा? वह क्या है?’
‘तुम तो निरे बुद्धू हो, जोगी दरवाज़े ही तो सब को ले जाते हैं. दिन भर चिताएं जलती हैं और रात में वहां भूत-प्रेत रहते हैं.’
‘तुम्हें कैसे पता?’ मैंने अनचाहे ही पूछा.
‘मैं सब जानता हूँ,’ उसने अकड़ से कहा.
उस रात मैंने बातों-बातों में ही माँ से पूछा, ‘कास्ती माई डायन है क्या?’
‘क्या अंटशंट बोलते रहते हो,’ माँ ने झिड़कते हुए कहा.
‘नहीं, मैं सच कह रहा हूँ, रात भर वह जोगी दरवाज़े रहती है.’
‘जोगी दरवाज़ा कौन सी जगह है, तुम्हें पता भी क्या?’
‘जहां भूत-प्रेत रहते हैं,’ मैंने जानबूझ कर आधी बात ही कही.
‘अरे, भूत-प्रेत कुछ नहीं होते, सब मन का डर है,’ माँ ने समझाया.
‘फिर कौन है वह?’
‘बड़ी दुःखी औरत है, उसका नाम है सावित्री.........’
‘तुम कुछ नहीं जानती, उसका नाम है कास्ती मई. सब इसी नाम से बुलाते हैं. तुम नहीं जानती. कैसे जानोगी? कभी घर से बाहर तो निकलती नहीं. सारा दिन घर के काम-काज में व्यस्त रहती हो.’  
‘उसका नाम सावित्री ही है. वह हर इकादाशी का व्रत रखती है. उस दिन कोई उसे छू भी ले तो वह अपने को अपवित्र समझने लगती है और झट से घर जाकर फिर से नहाती है. मैंने सुना है कि कभी-कभी तो इकादाशी के दिन चार-पाँच बार नहाती है. न जाने कब लोग उसे इकादाशी माई बुलाने लगे जो बिगड़ते-बिगड़ते कास्ती माई हो गया.’
मैं आश्चर्यचकित सा सारी बात सुन रहा था.
‘मैं जानती हूँ यहाँ के बच्चे उसे बहुत तंग करते हैं. पर तुम ऐसा न करना, कभी न करना.’
माँ की बात मानने को मन न हो रहा था. मुझे लगता था कि वह एक डायन ही थी. इसी कारण मेरे मन का डर अपनी जगह स्थित ही रहा. मैं जब भी उसे किसी रास्ते पर आता-जाता देखता तो झट से रास्ता बदल लेता था. चाहे कितना लंबा रास्ता ही क्यों न तय करना पड़े, मैं पलट कर उस रास्ते पर न आता था.
एक दिन दुपहर में माँ ने मुझे बाज़ार से दही लाने को भेजा. दही के बिना दादाजी को भोजन अच्छा न लगता था. दही लाने का काम बड़े भाई का ही था. उस दिन शायद वह थोड़ा बीमार था. दादाजी को अगर खाने में दही न दिखा तो वह नाराज़ होंगे, यही सोच माँ ने मुझे भेजा. तीन-चार बार समझा कर कहा कि दही परमा हलवाई की दुकान से लाना.
‘परमा से कहना दही दादाजी के लिए चाहिये.’
‘क्यों, ऐसा क्यों कहूँ?’
‘वह जानता है कि तुम्हारे दादाजी को ताज़ा दही ही अच्छा लगता है.’
‘वह दादाजी को जानता है, कैसे?’
‘हाँ, अच्छे से जानता है.’
‘पर वह मुझे तो नहीं जानता.’
‘वह तुम्हें भी जानता है. अब देर मत करो और जल्दी से जाओ. दादाजी आते ही होंगे.’
‘तुम कैसे जानती हो कि वह मुझे जानता है.’
‘जाओ, अभी.’ माँ ने गुस्से से आँखें दिखाते हुए कहा. पर उसके होंठों पर हंसी की एक पतली सी लकीर भी थी.
दही हाथ में लिए मैंने जैसे ही उस गली में प्रवेश किया जिस गली में हमारा घर था वैसे ही मैंने सामने से कास्ती माई को आते हुए देखा. सदा की भांति अपने में ही खोयी, वह कुछ बड़बड़ा रही थी. उसके सफ़ेद बाल कुछ ज़्यादा ही बिखरे हुए थे. आँखें भी कुछ अधिक डरावनी और धसीं हुईं लग रही थीं.
मैं एक पल को ठिठक कर खड़ा हो गया. समझ ही न आया कि मुझे क्या करना चाहिये.
मैं धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा. फिर रुका और सोचा कि पलट कर दूसरी गली से अपने घर जाऊं.
तभी अचानक एक कुत्तिया मुझ पर आ झपटी.
कुछ दिन पहले ही उस कुत्तिया ने बच्चों को जनम दिया था और बड़ी सावधानी के साथ गली में आने-जाने वाले सभी प्राणियों से अपने बच्चों की रक्षा करती थी. शरारती बच्चों पर तो वह देखते ही झपट पड़ती थी.
मैं ऐसे भागा जैसे जीवन में कभी न भागा था. भूल गया कि सामने से कास्ती माई आ रही थी. भूल गया कि हाथ में दही का ढोना था. भूल गया कि दादाजी घर आने वाले थे और दही के बिना उन्हें खाना अच्छा न लगेगा.
बस, जान बचा कर भागा. कास्ती माई कहाँ गई पता न चला, दही का ढोना कहाँ गया पता न चला. पता रहा तो उस कुत्तिया का जो बस एक कदम ही पीछे थी.
तभी अचानक ठोकर लगी और मैं गिर पड़ा. डर और पीड़ा से सांस रुक सी गयी. आँखों के सामने अन्धेरा-सा  छा गया.
आँखें खुली तो अपने को कास्ती माई की गोद में पाया.
वह मुस्कुरा रही थी. उसकी आँखों से प्यार की वर्षा हो रही थी. उसके हाथ रुई के समान नर्म थे.
वह बहुत धीमे से पर बहुत प्यार से बुदबुदा रही थी, ‘अरे कुछ नहीं हुआ, सब ठीक है.’
मैंने अपने आप को सँभाला और धीरे से उसकी गोद से उठ खड़ा हुआ.
‘तुम सब बच्चे मुझे डायन समझते हो न?’ उसने बहुत धीमी आवाज़ में पूछा.
‘नहीं.’ अनचाहे ही मैंने झूठ बोला.
‘सच?’ वह हौले से मुस्कुरा दी. मेरी आँखें झुक गईं.
आज इतने वर्षों के बाद भी उसके बारे में सोचता हूँ तो प्यार से भरी उसकी आँखें सामने आ जाती हैं, उसके कोमल गुदगुदाते हाथ मेरा चेहरा सहलाने लगते हैं.

© आइ बी अरोड़ा 

Saturday 6 February 2016

पुल
‘इस नदी पर कोई पुल नहीं है, ऐसा क्यों है?’
‘बेटा, यहाँ एक पुल हुआ करता था. कई वर्ष पहले एक बार नदी में भयंकर बाढ़ आई. उस बाढ़ में पुल टूट कर बह गया. लेकिन पुल का बह जाना हम जंगल वासियों के लिए एक वरदान ही था.’
‘कितने वर्ष पहले यह सब हुआ?”
‘बहुत वर्ष पहले; तब मैं भी एक बच्चा था, जैसे आज तुम हो.’
‘लेकिन पुल का बह जाना हमारे लिए वरदान कैसे हो सकता है?’
‘हम सब विनाश से बच गये.’
नन्हा शावक कुछ समझा नहीं.
‘बेटा, नदी के उस ओर मनुष्य रहते हैं.  मनुष्य कमज़ोर और दब्बू होते हैं. भेड़िये के एक छोटे से बच्चे को देख कर भी मनुष्य भयभीत हो जाते हैं और भाग खड़े होते हैं. लेकिन उनके पास कुछ ऐसे साधन हैं जिनकी सहायता से वह किसी भी प्राणी को मार सकते हैं. किसी वन के प्राणी के निकट आये बिना ही मनुष्य उस प्राणी को मार डालते हैं. वह खाने के लिए नहीं मारते, उन्हें तो बस जानवरों को मारने में आनंद आता, बिना सोचे समझे पशुओं को मारते जाते हैं.’
‘ऐसा घिनौना काम तो कोई नीच प्राणी ही कर सकता है.’
‘तुम एक नन्हें शावक हो फिर भी तुम्हें यह बात समझ आती है, परन्तु मनुष्यों को यह बात समझ नहीं आती. आश्चर्य की बात तो यह है कि मनुष्य अपने-आप को सब से बुद्धिमान समझते हैं.’
‘मैं तो कभी भी मनुष्य न बनना चाहूँगा,’ शावक ने अपनी नाक सिकुड़ते हुए कहा. ‘अच्छा हुआ वह पुल टूट गया. अगर न टूटा होता तो अब तक इस वन के सारे प्राणियों को मनुष्यों ने मार डाला होता.’
शेर और उसका नन्हा शावक धीरे-धीरे घने वन के भीतर चले गये.



Thursday 4 February 2016

ज़ेब्रा क्रासिंग
वो थोड़ी सहमी, थोड़ी घबराई सी थी.   
सड़क पार करने के लिए जैसे ही उस लड़की ने ज़ेब्रा क्रासिंग पर पाँव रखा एक कार कहीं से अचानक आई और उससे आ टकराई. कुछ पलों के लिए आस-पास खड़े लोग स्तब्ध हो गये. एक-आध मिनट के बाद दो-चार लोग उसकी सहायता करने के लिए उसकी ओर आये.
जिस कार से लड़की टकराई थी वह कुछ दूर जा कर सड़क किनारे रुक गई. एक आदमी कार से बाहर आया और घायल लड़की की ओर दौड़ा आया. गुस्से से उसका चेहरा तमतमा रहा था.
‘मर गई या अभी जिंदा है?’ उसने चिल्ला कर कहा.
उसका ऐसा भद्दा प्रश्न सुन कर वहां खड़े सब लोग सब चौंक गये. क्रोध की एक लहर  हर एक के मन में उठने लगी. कुछ लोगों ने उसे घूर कर देखा. पर उन सब की अवहेलना करते हुए उस आदमी ने चिल्ला कर कहा, ‘यह चोर है, इसने मेरा बटुआ चुराया है, इस चोरनी की तलाशी लो, अभी.’
एक पल में ही सारा परिवेश बदल गया. अब सब लोग उस लड़की को संदेह भरी दृष्टि से देखने लगे.
सौभाग्यवश लड़की को कोई ख़ास चोट न लगी थी. वह उठ कर खड़ी हो गई थी और अपने आप को संभालने और व्यवस्थित करने का प्रयास कर रही थी.
‘कितनी भोली लगती है, कौन कह सकता है कि एक चोर है.’ भीड़ में से किसी ने कहा.
‘मैं चोर नहीं हूँ,’ लड़की ने कांपती और कमज़ोर आवाज़ में कहा.

'झूठ बोल रही है, इसी ने मेरा बटुआ चुराया है,' उस आदमी ने धमकाते हुए कहा.

लड़की ने सहमी नज़रों से आसपास खड़े लोगों की ओर देखा. सबकी आँखें शिकारी जानवरों समान चमक रहीं थीं. अब तक वहां कई लोग इकट्ठे हो गए थे.
‘इसकी तलाशी लो; पुलिस को बुलाओ; कितनी सीधी लगती है; चोर लगती नहीं है; मैंने इसे पहले कहीं देखा है; चोर ही होगी; कैसा समय आ गया है.’ ऐसी कई बातें एक साथ भीड़ में यहाँ-वहां से उठने लगीं. 
‘आप चाहें तो पुलिस को बुला लें, जब तक पुलिस नहीं आती मैं यहीं खड़ी रहूँगी. पर मेरा विश्वास करें, मैं चोर नहीं हूँ. मैं सत्य कह रही हूँ. वह आदमी..................’ 

लड़की ने इधर-उधर देखा. भीड़ में खड़े लोगों की आँखें भी एक साथ इधर-उधर घूमने लगीं. पर वह आदमी कहीं दिखाई न दिया. उसकी कार वहीं खड़ी थी.
सब लोग अब थोड़ा चकरा गये. सब एक दूसरे का मुहं देखने लगे. किसी को समझ न आ रहा था कि अब क्या करना चाहिये. हर कोई प्रतीक्षा करने लगा. अब कोई भी किसी तरह की पहल करने को तैयार न था.
एक-एक कर सब यहाँ-वहां खिसकने लगे और देखते ही देखते भीड़ छितर गई.
उस भीड़ में इकट्ठे हुए कुछ लोगों को बाद में पता चला की उनके बटुये उनकी जेबों से गायब हो गये थे.

जांच करने पर पुलिस को को पता चला कि जो कार वह आदमी सड़क किनारे छोड़ गया था वह उसी सुबह चोरी हुई थी.

Tuesday 2 February 2016


मुक्ति
भीतर आते समय वो अपने में इतना उलझा हुआ था कि उसने ध्यान ही न दिया कि घर की सब बत्तियां बुझीं हुईं थीं. उसने कमरे की बत्ती तो जला दी पर अपने में खोया ही रहा.
‘कब मुझे इस नरक से मुक्ति मिलेगी? कुछ तो करना होगा? कोई तो निर्णय लेना होगा मुझे.’
जैसे ही उसने फ्रिज के अंदर से पानी की बोतल निकाली उसने फ़र्श पर फैले लहू को देखा. उसका हाथ कांप गया और पानी की बोतल हाथ से फिसल कर नीचे गिर गई.
कमरे में एक ओर उसकी पत्नी फ़र्श पर गिरी हुई थी. चाकू मार कर किसी ने उसकी हत्या कर दी थी. यह वही चाकू था जिस से उसने सुबह पत्नी को धमकाया था. चाकू हाथ में लेकर उसने चिल्ला कर पत्नी से कहा था कि वह उसकी जान ले लेगा.
सुबह वह दोनों फिर झगड़ पड़े थे. ऐसा कई बार हुआ था, पर आज वह अपना आपा खो बैठा. वह जानता था कि वह कभी भी पत्नी पर हाथ नहीं उठा सकता. पत्नी भी यह बात जानती थी. इसी कारण वह उसे उकसाया करती थी. आज पहली बार उसने चाकू दिखा कर पत्नी को धमकाया था.
उसने तुरंत पुलिस को सूचित का दिया, पर फोन रखते ही भय की एक लहर उसके मन में उठने लगी.
पुलिस तो उसी पर संदेह करेगी. आज दिन भर वह यूँही सड़कों पर भटकता रहा था. अपने ऑफिस भी न गया था. इतना ही नहीं, ग़ुस्से और कड़ुवाहट के कारण उसने अपने ऑफिस में किसी को सूचित भी न किया था कि वह छुट्टी पर रहेगा.
कोई भी ऐसा नहीं था जो इस बात का प्रमाण दे पाता कि वह दिन भर घर से बाहर रहा था और पत्नी की हत्या से उसका कुछ लेना-देना न था.
‘क्या पता इस चाक़ू पर मेरी ही अँगुलियों के निशान हों? अगर हत्यारे ने अपने हाथ पर दस्ताने पहने होंगे तो अवश्य ही मेरी अँगुलियों के निशान इस पर पुलिस को मिलेंगे. दरवाज़ा भीतर से बंद या खुला था? क्या मैंने अपनी चाबी से दरवाज़ा खोला था?’ कई प्रश्न उसको आंदोलित करने लगे.
अचानक उसके मन में आया कि पुलिस के आने से पहले ही चाक़ू पर लगे सब निशान उसे मिटा देने चाहिये.
वह चाक़ू उठाने वाला ही था कि दरवाज़े की घंटी बज उठी. एक घोर निराशा और घबराहट ने उसे घेर लिया.
दरवाज़े की ओर बढ़ते हुए एक ही प्रश्न उसके मन में था, ‘कब उसे नरक से मुक्ति मिलेगी?’