Monday 10 August 2015

संसद में गतिरोध – एक तिरछा विचार
कुछ वर्ष पुरानी बात है. मैं टीवी पर संसद की कार्यवाही देख रहा था. लोक सभा में किसी मुद्दे पर चर्चा हो रही थी. डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी जी बोल रहे थे. लोक सभा में बैठे सभी सदस्य व मंत्री बड़े ध्यान से श्रीमान जोशी जी को सुन रहे थे.
सब सदस्यों का इतने ध्यान से उनका भाषण सुनने का एक कारण था. डॉक्टर जोशी जी के सामने कई दस्तावेज़ और कागज़ात रखे थे. अपनी बात कहते हुए, जिस तरह वह उन दस्तावेजों वगेरह का उल्लेख कर रहे थे उस से साफ़ दिखता था कि उन सब दस्तावेज़ों का वह पूरा अध्ययन कर के आये थे. उनका हर तर्क तथ्यों पर आधारित था और हर तर्क का उसे मुद्दे से सीधा संबंध था जिस पर वह अपने विचार रख रहे थे. कोई आश्चर्य की बात न थी कि सत्ता पक्ष के सदस्य भी, बिना रोक-टोक किये, पूरी तन्मयता से उनकी बात सुन रहे थे.
आज कितने ऐसे सांसद हैं जो इतना परिश्रम करने को तैयार हैं. उससे भी महत्वपूर्ण बात है कि कितने ऐसे सदस्य हैं जिनमें ऐसी योग्यता है की वह अलग-अलग दस्तावेज़ों का अध्ययन कर, तथ्यों पर आधारित एक तर्कसंगत भाषण तैयार कर पायें; एक ऐसा भाषण जो चर्चा को एक दिशा दे पाये; एक ऐसा भाषण जिसे अन्य सदस्य और मंत्री सुनने को आतुर हों.
अब अगर कोई सम्मानित सदस्य संसद में हो रही किसी चर्चा में उस क्षमता से भाग नहीं ले सकता जिस तरह डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी सरीखे सांसद चर्चा में भाग लेते हैं तो ऐसे सम्मानित सदस्य के लिए संसद में गतिरोध एक अच्छा विकल्प है जिसके द्वारा वह, बिना कोई चर्चा किये, चर्चा में रह सकता है.
क्या हमें निराश हो जाना चाहिये कि हमारी संसद उस भांति कार्य नहीं कर पाती जिस भांति इंग्लैंड में करती है. अभी हमारी संसद की आयु सत्तर वर्ष भी नहीं हुई. इंग्लैंड के संसद का इतिहास बहुत लंबा है. अतः यह अपेक्षा करना गलत होगा कि हमारी संसद इंग्लैंड की  संसद के समान कार्य करेगी.
चिंता का विषय यह हो सकता है कि आज के कई राजनेताओं में संसद को सुचारू रूप से चलाने की इच्छा-शक्ति दिखाई नहीं दे रही. हम सब पर निर्भर करता है कि स्थिति के बदलने के लिए कुछ करें. हमें ही अपने चुने हुए सांसदों से पूछना होगा कि उनकी संसदीय प्रणाली में कितनी आस्था है और सिर्फ उन नेताओं को अगले चुनाव में वोट दें जिन नेताओं में  संसद को सुचारू रूप से चलाने की योग्यता और दृड़ इच्छा-शक्ति है.

Sunday 9 August 2015

बूढ़ा गड़ेरिया (एक प्रेत कथा) (अंतिम भाग)

जब हम वहां से जाने के लिए तैयार हो गये तो गड़ेरिये ने पैसे मांगे. मैंने उसे दो सौ रुपये दिए. रूपए हाथ में ले कर वह जांच करने लगा. उसने मुझे घूर कर देखा और क्रोध भरी आवाज़ में कहा, ‘आप समझते हैं कि मैं मूर्ख हूँ, एक देहाती गंवार हूँ.’
‘आप कह क्या रहे हैं? आपने दो सौ रुपये मांगे थे और हम उतने ही दे रहे हैं,’ यह बात टिम्मी ने कही पर थोड़ी कठोर वाणी में.
‘आप मुझे नकली रूपए क्यों दे रहे हैं,’ उसने चिल्ला कर कहा और रुपये मेरे हाथ में थमा दिए.
‘आप को कुछ भ्रम हो रहा है, यह नकली रूपये नहीं हैं, सब असली हैं,’ मैंने रूपये लौटाते हुए कहा.
‘लेकिन किसी पर भी किंग जॉर्ज का चित्र नहीं है?’
‘अरे बाबा, देश आज़ाद हो चुका है, लगभग पच्चीस वर्ष हो गये. किंग जॉर्ज अब इस देश पर राज नहीं करते, न ही उनके चित्र हमारे रुपयों पर हैं,’ टिम्मी ने कहा और खिलखिला कर हंस दिया.
गड़ेरिया ने रूपये रख लिए पर वह संतुष्ट न लग रहा था. वह संदेह की दृष्टि से हमें देख रहा था.
‘अगर गेस्ट हाउस का चौकीदार लौट कर न आया तो क्या आज रात भी हम आपके यहाँ रुक सकते हैं?’ चलते-चलते मैंने पूछा.
‘देखेंगे,’ उसने बड़े अनमने ढंग से कहा.
हमने अपनी पदयात्रा शुरू की. सारी यात्रा बहुत ही मनोरम और मन को लुभाने वाली थी. कई जगह हम घास के मैदान से गुज़रे; कहीं बर्फ समान ठंडे पानी की धारा में चल कर गये; एक-दो जगह बर्फ के ऊपर भी चल  कर जाना पड़ा, ऐसी बर्फ जिस के नीचे पानी की धारा बह रही थी.
यात्रा के अंतिम चरण में पहाड़ के ऊपर सीधा चढ़ना पड़ा. यह चढ़ाई कठिन और थका देने वाली थी. परन्तु जैसे ही हम ऊपर पहुंचे, सामने का दृश्य देख कर रोमांचित हो गये. झील की एक झलक पाते ही सारी थकान एक पल में दूर हो गई.
कोंसर नाग झील देश की सुन्दरतम झीलों में से एक है. झील के तीन ओर ऊंचे और भव्य हिम शिखर हैं. झील विशाल है और दूर का किनारा तो दिखाई भी नहीं देता. उस झील की सुन्दरता शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती. इतने वर्षों बाद भी जब में उस दृश्य की कल्पना करता हूँ तो सिहर जाता हूँ.
दो मित्रों ने झील के बर्फ समान ठंडे पानी में डुबकी लगाई. बाकी ऐसा करने का साहस न कर पाये. हमने पानी की कुछ बूंदे ही अपने पर डाल लीं और कहा कि हमने भी स्नान कर लिया है. हम लगभग दो घंटे तक वहां रुके.
कोई वापस न आना चाहता था. पर जैसे ही कहीं से आकर बादल आकाश के घेरने लगे, हम चल दिए. हम जानते थे कि सूरज डलने से पहले ही हमें गेस्ट हाउस पहुंचना होगा.
जल्द ही वर्ष थम गई और हम सब मस्ती में झूमते आगे बढ़ते गये. अब तक हम बूढ़े गड़ेरिया को भूल चुके थे. पर जैसे ही हम कोंगवतन के निकट पहुँचे टिम्मी ने कहा, ‘मुझे वह रहस्यमयी बूढ़ा गड़ेरिया बहुत अच्छा लगा था. एक शानदार कुटिया में ठाठ से रहने वाला एक गरीब गड़ेरिया. ज़ायकेदार गरमागरम खाना जो उसकी अदृश्य बीवी ने पकाया था उसका तो कहना ही क्या. मित्रों, क्यों न आज की रात भी हम उसी रहस्यमयी कुटिया में रहें?’
‘मेरा विचार है कि हमें वन विभाग के गेस्ट हाउस में रुकना चाहिये,’ मैंने कहा.
‘अगर चौकीदार लौट कर न आया हुआ तो?”
‘वहां पहुँच कर सोचेंगे कि क्या करना है.’
चौकीदार लौट आया था. हमने गेस्ट हाउस में ही रुकने का निर्णय लिया. चौकीदार ने कहा कि वह रात के खाने का प्रबंध कर देगा. हमने उसे कुछ रूपए दिए और वह खाने का प्रबंध करने चल दिया.
जब हम लोग खाना खाने बैठे तो टिम्मी ने चौकीदार से कहा, ‘तुम भी हमारे साथ खा लो.’
चौकीदार तुरंत मान गया.
‘अब तुम्हारी तबीयत कैसी है?’ मैंने चौकीदार से पूछा.
‘मुझे क्या हुआ है, भला-चंगा हूँ,’ उसने उत्साह के साथ कहा.
‘तुम बीमार थे और अपने गाँव चले गये थे,’ मैंने पूछा.
‘अरे नहीं साहब, मैं तो अपने दोस्त से मिलने गया था, एक रात के लिए.’ उसका उत्तर सुन हम सब चौंक पड़े और एक दूसरे की ओर देखने लगे.
‘उधर झोंपड़ी में जो बूढ़ा गड़ेरिया रहता है उसे तुम जानते हो?’ टिम्मी ने पश्चिम की ओर संकेत करते हुए पूछा.
‘कौन सी झोंपड़ी? कौन सा गड़ेरिया? यहाँ आसपास तो कोई झोंपड़ी नहीं है.’
हम सब के हाथ और मुहं एक साथ रुक गये. कुछ पलों तक कोई कुछ न बोला. एक आशंका धुंध समान हर ओर फ़ैल गई.
‘उधर पश्चिम में जो पेड़ों का झुण्ड है उसके पीछे एक झोंपड़ी है. वहां एक बूडा गड़ेरिया रहता है. हम पिछली रात वहीँ रहे थे,’ मैंने कहा पर मेरी आवाज़ हल्की सी थरथराहट थी.  
‘उसने हमारे लिए चावल और मटन करी का प्रबंध भी किया था, हमने उसे दो सौ रूपए दिए थे. अगर तुम आज न लौटते तो हम आज भी वहीँ रुकते,’ टिम्मी ने कहा.
चौकीदार के चेहरे का रंग उड़ गया. उसने कुछ न कहा और एक ओर रखे लकड़ी के पुराने संदूक में कुछ ढूँढने लगा. उसने सन्दुक में से कुछ निकाला और उस वस्तु को मेरी आँखों के सामने बढ़ा दिया. पल भर को में समझा न कि वह क्या था. फिर थोड़ा संभल कर देगा तो पाया कि वह एक पुरानी फोटो थी. यह उसी बूढ़े गड़ेरिये की फोटो थी.
‘क्या आप इस आदमी से मिले थे?’ उसकी आवाज़ भय से कांप रही थी.
‘हां,’ मेरी आवाज़ में भी एक कम्पन था.
‘ऐसा कैसे हो सकता?’ यह एक प्रश्न था या एक वक्तव्य मैं समझ न पाया.
‘क्यों?’ टिम्मी ने पूछा.
‘यह तस्वीर मेरे दादा की है, उन्हें मरे हुए तो कई वर्ष हो गये.’
कुछ समय तक कोई कुछ न बोला.
‘उसका प्रेत होगा. आपने उसके प्रेत को देखा होगा,’ चौकीदार ने धीमी आवाज़ में कहा.
उस घड़ी चौकीदार स्वयं भी एक प्रेत के समान लग रहा था. पर हमें समझ न आ रहा था कि चौकीदार सच कह रहा था या हमें मूर्ख तो नहीं बना रहा था. मैंने गौर से उसके चेहरे की ओर देखा; वह बहुत डरा हुआ लग रहा था. परन्तु उसकी आँखें निष्प्राण लग रही थीं.
‘मैं सोने जा रहा हूँ. आप बर्तन बाहर रख देना. मैं रसोईघर में ही सोऊंगा. मैं सदा वहीं सोता हूँ.’
उसके जाते ही टिम्मी ने कहा, ‘कल उस गड़ेरिये ने भी ऐसी बात कही थी. क्या यह दोनों मिले हुए हैं? हमें मूर्ख बना रहे हैं?’
किसी ने भी उसकी बात का उत्तर न दिया. हम चुपचाप खाना खाते रहे पर अब खाने में कोई स्वाद न रहा.
अगली सुबह जब हम जाने लगे तो चौकीदार को बुलाया. पर वह गेस्ट हाउस में न था. हमने उसे हर जगह ढूंढा पर वह कहीं न मिला.
‘क्या उसके लौटने की प्रतीक्षा करें?’ मैंने पूछा.
‘हम पैसे पहले ही दे चुके हैं. उसकी प्रतीक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं, अब हमें यहाँ से चल देना चाहिये.’ रिहान ने कहा.
‘क्यों न एक बार हम उस पेड़ों के झुण्ड की ओर जाएँ? देखें तो सही कि वहां कोई झोंपड़ी है भी या नहीं,’ यह बात हारून ने कही.
टिम्मी को यह सुझाव अच्छा लगा परन्तु रिहान और जोगी यहाँ जाने को तैयार न थे. हारून और टिम्मी का कहना था कि हमें पता लगाना ही होगा कि सच क्या था. अंत में सब उस ओर जाने को तैयार हो गये. परन्तु जैसे ही हम पश्चिम दिशा की ओर गये तो देखा कि उस ओर तो पेड़ों के कई झुण्ड थे.
‘मुझे लगा था की इस ओर पेड़ों का एक ही झुण्ड था. उस रात तो अन्य झुण्ड दिखाई न दिए थे,’ मैंने अपने मित्रों से कहा.
‘मुझे लगता है कि वह झोंपड़ी उस झुण्ड के पीछे थे,’ टिम्मी ने एक झुण्ड की ओर संकेत करते हुए कहा.
हम लोग उस झुण्ड के निकट पहुंचे पर वहां कोई झोंपड़ी न थी.
‘शायद उस झुण्ड के पीछे हो?’ टिम्मी ने एक दूसरे झुण्ड की ओर संकेत करते हुए कहा.
‘हमें लौट जाना चाहिये, हम व्यर्थ में समय गवां रहे हैं,’ रिहान ने चीख कर कहा.
उसके लहज़े ने सब को चौंका दिया. हम लोगों के बीच बुझीबुझी सी चर्चा हुई और हम वापस चल दिए. वापसी यात्रा सुखद और बिना किसी अवरोध के पूरी हुई, पर सारा समय हम एक उलझन से घिरे रहे. कुछ था जो हमारी समझ के परे था. हम  न खुल कर बात कर पा रहे थे न खुल कर हंस पा रहे थे.
अहरबल बस स्टैंड पर अच्छी भीड़ थी. हम पाँचों को छोड़ सभी देहाती थे जो आसपास के गाँव से आये हुए थे. हम चुपचाप बस के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे. तभी टिम्मी ने मेरे कान में फुसफुसा कर कहा, ‘उधर देखो, पेड़ के नीचे कौन खड़ा है?’
भय की एक तरंग टिम्मी से निकल कर मेरे भीतर समा गई. मैंने उस ओर देखा जिस ओर टिम्मी ने संकेत किया था. पेड़ के नीचे बूढ़ा गड़ेरिया था. वह एकटक हम पाँचों को देख रहा था. धीरे-धीरे वह हमारी ओर आया. निकट आ कर उसने कहा, ‘क्या हुआ? कल रात आप आये नहीं? रात कहाँ बिताई?’
‘हम गेस्ट हाउस में रहे.’
‘ताला तोड़ दिया? तुम्हारे मित्र ने कोई आपत्ति न की?’
‘ताला क्यों तोड़ना था? चौकीदार लौट आया है, उसी ने हमें वहां ठहरने दिया. भोजन का भी प्रबंध किया, सिर्फ सौ रुपये में, आपकी तरह उसने हमें ठगा नहीं,’ यह बात टिम्मी ने कही.
बूढ़े गड़ेरिये ने हमें घूर कर देखा, वह धीमे-धीमे कुछ बड़बड़ा भी रहा था. हम समझ न पाये की वह क्या कह रहा था.
‘आप लोग ठीक तो हो न?’ उसने कहा.
‘क्यों? ऐसा क्यों कह रहे हो?’ रिहान ने पूछा.
‘आप समझ नहीं रहे. ऐसा नहीं हो सकता.’
‘क्यों?’
‘उस चौकीदार की तो चार दिन पहले ही मृत्यु हो गई थी. उसने अपनी बीमारी का इलाज ठीक से न कराया था. आप लोगों के जाने के बाद उसके गाँव से कोई आया था, उसी ने बताया. पर आप लोगों से वह कैसे मिला? क्या उसका भूत था? अवश्य ही उसका भूत होगा?’ इतना कह वह फिर से कुछ बड़बड़ाने लगा, ऐसे दुरूह शब्द उसके मुंह से निकल रहे थे जो हम समझ न पा रहे थे.
हम कुछ कहते या पूछते कि बस आ गई. भीड़ को देखते हुए, हम बस की ओर दौड़े. जैसे ही सब लोग चढ़ गये, बस चल दी. बस में बैठ कर मैंने गड़ेरिये को तलाशने का प्रयास किया. वह बस में न था.
श्रीनगर पहुँचते-पहुँचते टिम्मी अपने ऊधमी रूप में लौट आया था.
‘तो मित्रो, क्या लगता है तुम सब को? कौन थे वह दोनों विचित्र लोग? दोनों में से कौन भूत था और कौन नहीं? मुझे तो लगता है कि दोनों ने मिल कर हमें मूर्ख बनाया. नहीं?’
‘नहीं, ऐसा नहीं है, गड़ेरिया ही भूत था, तुमने उसकी आँखें देखीं थीं क्या? उसकी आँखें पूरी तरह निष्प्राण थीं,’ रिहान ने कहा.
‘भूत-प्रेत कुछ नहीं होते, हमें मूर्ख बनाया, दोनों ने,’  जोगी बोला.
‘उसकी झोंपड़ी का क्या हुआ? वह कैसे गायब हो गई?’ मैंने धीमे से कहा.
‘मेरे भोले और डरे हुए मित्रो, इन सारे प्रश्नों का उत्तर मेरे कैमरे में बंद है. भूल गये, मैंने सब की फोटो खींचे थे, उस रहस्यमयी कुटिया के भी. शीघ्र ही इस रहस्य से पर्दा हट जाएगा,’ टिम्मी ने शान से एक फिल्मी हीरो के अंदाज़ में कहा.
जब फोटो बन गये तो हम सब एक साथ फोटोग्राफर की दूकान पर गये.
‘इस कहानी का अंत क्या हुआ? अभी तक मुझे यह कहानी डरावनी कम और नाटकीय अधिक लगी है,’ मेरा मित्र अभी तक चुपचाप, बिना मुझे टोके, यह कहानी सुन रहा था. पर अब वह अपने को रोक न पाया और बोल पड़ा था.
‘कहानी का अंत जान कर तुम भी उतने आश्चर्यचकित हो जाओगे जितने हम हुए थे उस दिन.’
‘जल्दी बताओ, तस्वीरों ने क्या उस रहस्य से पर्दा हटाया.’
‘टिम्मी ने उस पूरी यात्रा के कोई सौ फोटो लिये थे अपने कैमरे से, लगभग सभी फोटो बहुत सुंदर थे, बस रहस्यमयी कुटिया के चित्र न बन पाये थे. फिल्म के कुछ भाग पूरी तरह खाली थे.’
‘सारे फोटो रात में लिए थे, शायद कैमरे की फ़्लैश ख़राब होगी?’
‘पर सुबह भी एक–दो फोटो खींचे थे.’
‘जो फोटो गेस्ट हाउस में लिए उस चौकीदार के, उनका क्या हुआ?’
‘तुम्हें जानकार आश्चर्य होगा कि वह फोटो भी ख़राब थे, गेस्ट हाउस तो दीख रहा था पर चौकीदार के फोटो पर काले-काले से धब्बे थे.’
‘क्या वह दोनों ही भूत थे?’
‘इसका निर्णय तो तुम्हें ही करना होगा, मैं तो आज तीस साल बाद भी यह तय नहीं कर सकता कि वहां हमारे साथ हुआ क्या.’
मेरा मित्र ऐसे देख रहा था जैसे मैंने उसे एक मनगढ़ंत कहानी सुनाई थी. पर मैं नहीं जानता था कि किस भांति मैं उसका संदेह दूर करूं.
(समाप्त)  
© आइ बी अरोड़ा 

Saturday 8 August 2015

बूढ़ा गड़ेरिया (एक प्रेत कथा) (भाग 1)
‘नहीं, मैं नहीं मानता, भूत-प्रेत नहीं होते, सिर्फ मन का वहम है.’
‘तुम कुछ भी कहो, पर सत्य तो यही है कि भूत-प्रेत होते है.’
‘तुम तो इतने विश्वास से कह रहे हो की जैसे तुम किसी भूत से मिल चुके हो?’
‘मैं तुम्हें एक सच्ची कहानी सुनाता हूँ. जब......’
‘मुझे कोई कहानी नहीं सुननी, तुम बस मुझे इतना बताओ कि क्या तुम किसी भूत से मिले हो? क्या तुम ने कभी कोई प्रेत देखा है?’
‘तुम्हें मेरी कहानी सुनकर स्वयं तय करना होगा की क्या मैं किसी भूत से मिला था या नहीं.’
‘ऐसा ही है तो सुनाओ अपनी कहानी,’ मेरे मित्र के ऐसा कहने पर मैं उसे अपनी एक यात्रा का वृतांत सुनाने लगा.
बात उन दिनों की है जब मैं अमर सिंह कॉलेज में पढ़ता था. हमारे प्रिंसिपल सारे प्रदेश में अपने अनुशासन के लिए जाने जाते थे. अगर कोई विद्यर्थी जरा सी भी भूल कर देता तो वह उसे खूब डांटते थे, कभी-कभार तो अनुशासन भंग करने वाले लड़के की पिटाई भी कर देते थे. लड़के तो लड़के, प्रोफेसर और लेक्चरर भी उनसे डरते थे. कॉलेज का मेरा पहला वर्ष स्कूल से भी अधिक कठोर था.
परन्तु कॉलेज का दूसरा वर्ष मेरे विद्यार्थी जीवन का सबसे अच्छा काल था. हमारे अनुशासन-प्रिय प्रिंसिपल रिटायर हो गये थे. नए प्रिसिपल रिटायरमेंट की कगार पर खड़े थे. कॉलेज से अधिक अपने नए बन रहे घर में उनका ध्यान रहता था. परीक्षा यूनिवर्सिटी में नहीं कॉलेज में ही होनी थी, इस कारण कोई चिंता न थी. हमारा सारा समय मौज-मस्ती में बीतता था. हम मित्रों का एक दल था और हर माह हम कहीं न कहीं घूमने निकल जाते थे.
एक बार हम लोग पीर पंजाल के पहाड़ों में स्थित एक झील देखने के लिए पदयात्रा पर भी गये. हम पाँच मित्र थे. बस द्वारा हम लोग अहरबल पहुंचे. वहां अहरबल प्रपात के बिलकुल सामने एक गेस्ट हाउस है, रात वहीं रुके. गेस्ट हाउस पहुँचते-पहुँचते रात हो गई थी, हम प्रपात को देख न पा रहे थे, सिर्फ लगातार गिरते पानी की ध्वनी सुन पा रहे थे. परन्तु सुबह हम लोग जैसे ही गेस्ट हाउस से बाहर आये तो उस प्रपात को देख कर हम सब चकित हो गये, अहरबल प्रपात की सुन्दरता देखने योग्य थी.
सुबह आठ बजे ही हम पहाड़ पर चढ़ने लगे. हम जानते थे कि सात या आठ घंटे चढ़ाई करने के बाद ही हम कोंगवतन पहुंचेगे. वहां घास का एक बहुत सुंदर मैदान है. वन विभाग का छोटा-सा गेस्ट हाउस वहां पर है. हमारा विचार था कि अगर सम्भव हुआ तो रात हम उसी गेस्ट हाउस में बिताएंगे.
‘तुम्हारे प्रेत महाशय का इस कहानी में कब प्रवेश होगा? तुम्हारी अन्य बातों में मेरी कोई रुचि नहीं है,’ मेरे मित्र ने मुझे टोकते हुए कहा तो मैंने उसे डपट दिया और कहा कि उसे मेरी कहानी बिना मुझे टोके ही सुननी होगी.
पहाड़ पर चढ़ाई कठिन होती जा रही थी. मौसम का मिजाज़ भी बिगड़ रहा था. हम ने आधा रास्ता भी पार न किया था कि हल्की बूँदाबाँदी शुरू हो गई. फिर चारों ओर काले और घने बादल घिर आये और मुसलाधार वर्षा होने लगी, वर्षा से बचने के लिए हमें चट्टानों की ही आसरा मिला.
हम कोंगवतन पहुंचे तो शाम के पाँच बज रहे थे. वर्षा बंद हो चुकी थी. सूरज पहाड़ों की पीछे छिप हुआ था. दिन की डलते प्रकाश में सिर्फ वन विभाग का गेस्ट हाउस ही दिखाई दे रहा था. घास के उस मैदान में कहीं कोई और झोंपड़ी दिखाई न दे रही थी. कहीं कोई प्राणी भी दिखाई न दे रहा था. निकट बहती नदी की ध्वनी के अतरिक्ति कोई आवाज़ भी सुनाई न दे रही थी.
हम सब गेस्ट हाउस के भीतर आये. हम बहुत थक चुके थे, भूख भी लग रही थी, कुछ खा कर सोने का मन हो रहा था. परन्तु वहां पहुँच कर निराश ही हमारे हाथ लगी. गेस्ट हाउस के दरवाज़े पर ताला लगा हुआ था. आस-पास कोई भी न था जो हमें बता पाता कि चौकीदार कहाँ था.
पाँचों मित्रों में से कोई कुछ न बोला. सब गेस्ट हाउस के बरामदे में लेट गये. किसी की समझ न आ रहा था कि रात कैसे काटेंगे. खाने-पीने का थोड़ा सामान तो हम साथ लाये थे. परन्तु खुले आसमान के नीचे रात भर सोना संभव न था, रात में ठंड बढ़ जाती है, यह बात हम सब जानते थे.
थकान के कारण हम सब बरामदे में लेटे-लेटे कब सो गये हमें पता ही न चला. परन्तु हम शायद पन्द्रह-बीस मिनट ही सोये होंगे कि मैंने एक अजीब आवाज़ सुनी. मैं हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ. मेरे मित्रों ने भी वह आवाज़ सुनी थी और वह भी उठ बैठे थे.
हमने गेस्ट हाउस के निकट एक बूढ़े व्यक्ति को देखा. वही आदमी अपने मुंह से अजीब आवाज़ निकाल रहा था. शाम के धुंधले प्रकाश में वह थोड़ा भयानक दिखाई दे रहा था; वह एक प्रेत सा लग रहा था. इस समय सुंदर घास का वह मैदान डरावना प्रतीत हो रहा था.
हम लोगों की आहट सुन बूढ़ा आदमी हमारी ओर मुढ़ा. कई लमहों तक वह हमें एकटक घूर कर देखता रहा. फिर वह धीरे-धीरे आगे आया और संकोची वाणी में बोला,’ मेरी एक भेड़ खो गई है. मैं उसे ही बुला रहा हूँ.’
‘क्या आप जानते हैं कि यहाँ का चौकीदार कहाँ गया है? हम ने सोचा था कि आज की रात इसी गेस्ट हाउस में बिताएंगे. पर यहाँ तो ताला लगा है और आस-पास कोई भी नहीं है,’ मैंने उस से कहा.
‘आप लोग क्या कोंसरनाग झील जा रहे हो? आप सब को सुबह बहुत जल्दी चढाई शुरू करनी पड़ेगी. सूरज डलने से पहले ही आप को यहाँ वापस आना होगा.’
‘हम ऐसा ही करेंगे, परन्तु आप बता सकते हैं कि चौकीदार कहाँ है?’
‘मुझे लगता है कि वह बीमार है. नहीं, मैं जानता हूँ कि वह बीमार है, बहुत बीमार. कुछ रोज़ पहले वह अपने गाँव चला गया था. उसे लग रहा था कि गेस्ट हाउस में रुकने के लिए कोई भी न आयेगा.’
‘हम क्या करें? हम यहाँ बाहर तो रात नहीं बिता सकते.’
‘ताला तोड़ डालो.’
‘नहीं, ऐसा करना अपराध होगा,’ यह बात हारून ने कही थी, वह नियम-कानून पर चलने वाला व्यक्ति था.
‘तुम लोग चाहो तो मेरे झोंपड़े में रह सकते हो, पर मुफ्त नहीं. इसके लिए तुम्हें पैसे देने होंगे.’
‘कितना देना होगा?’ यह प्रश्न टिम्मी ने किया था, हम सब में वह खूब तेज़-तर्रार था.
‘सिर्फ सौ रूपए दे देना, लेकिन अगर तुम्हें खाना भी चाहिये तो दो सौ देने होंगे.’
‘यह सरासर ठगी है, हम पचास से अधिक देंगे और तुम्हें खाना भी खिलाना पड़ेगा,’ टिम्मी थोड़ा चिल्ला कर बोला.
‘और खाने में हमें चावल और मटन-करी चाहिये,’ यह बात हारून ने विनम्रता से कही .
‘दो सौ से एक रुपया भी कम नहीं.’
“लेकिन आपकी झोंपड़ी है कहाँ?’ मैंने पूछा.
‘झोंपड़ी वहां है, उस पेड़ों के झुंड के पीछे,’ बूढ़े व्यक्ति ने गेस्ट हाउस के पश्चिम में स्थित पेड़ों के एक झुंड की ओर संकेत करते हुए कहा.
‘मुझे तो कोई झोंपड़ी वहां दिखाई नहीं दे रही,’ मैंने दब्बी आवाज़ में कहा.
‘अगर तुम लोग नहीं आना चाहते तो तुम्हारी इच्छा,’ इतना कह बूढ़ा गड़ेरिया धीरे-धीरे चल दिया. वह पेड़ों के झुंड की ओर ही जा रहा था.
हम लोग जानते थे की उसकी बात मानने के अतिरिक्त हमारे पास कोई रास्ता न था. हम सब थके हुए थे और गर्मा-गर्म मटन-करी और चावल खा कर सो जाना चाहते थे. हम सब ने एक-दूसरे की ओर देखा. सब की आँखे एक ही बात कह रही थीं,
हम सब उस गड़ेरिये के पीछे चलने लगे. उसने पीछे मुड़ कर हमें देखा और मुस्कुरा दिया. मुझे उसकी मुस्कराहट थोड़ी रहस्यमयी थी या मुझे सिर्फ भ्रम हो रहा था, मैं तय न कर पाया.
पेड़ों का झुंड दूर न लग रहा था, परन्तु था वह बहुत दूर. जब तक हम वहां पहुंचे अँधेरा हो चुका था. पेड़ों से छिपी उस गड़ेरिया की झोंपड़ी देख कर हम सब को बहुत निराशा हुई.
झोंपड़ी जर्जर अवस्था में थी. उसे देख कर तो ऐसा लगा कि वहां कोई न रहता होगा. हम सब ने एक-दूसरे को देखा पर कोई कुछ बोला नहीं.
‘आप सब यहाँ रुको, मैं ज़रा लालटेन जला लूँ.’ इतना कहा वह भीतर चला गया. कुछ ही पलों के बाद झोंपड़ी की खिडकियों और दरवाज़े से होकर प्रकाश की लहरें बाहर आकर हमें आकर्षित करने लगीं.
भीतर आकर हम थोड़ा चौंक गये. झोंपड़ी उतनी छोटी न थी जितनी छोटी हम समझे बैठे थे. आश्चर्यजनक बात यह थी कि भीतर बहुत कुछ था और सब कुछ आकर्षक था और हर वस्तु सुचारू ढंग से रखी हुई थी.
‘यह किसी गरीब व्यक्ति की कुटिया तो नहीं लगती?’ हारून ने धीमे से कहा.
टिम्मी को छोड़ बाकि सब की आँखों में यही प्रश्न झलक रहा था. टिम्मी तो उस झोंपड़ी की तस्वीरें लेने में मग्न था. उसी का पास कैमरा था. उसने बूढ़े गड़ेरिये की भी फोटो ली. परन्तु गड़ेरिये को उसका ऐसा करना अच्छा न लगा था. उसने घूर कर टिम्मी को देखा और क्रोध भरी वाणी में कहा, ‘तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये था.’
इतना कह गड़ेरिया दनदनाता हुआ झोंपड़ी से बाहर चला गया. उसके इस व्यवहार ने हम सब को आश्चर्य में डाल दिया.
‘इसे क्या हुआ? मैंने ऐसा क्या कर दिया जो इसे इतना क्रोध आ गया? देखूं तो सही वह गया कहाँ है,’ टिम्मी ने कहा और गड़ेरिये के पीछे-पीछे झोंपड़ी के बाहर चला गया.
‘क्या तुम्हें नहीं लगता की यह गड़ेरिया कुछ अजीब प्राणी है?’ हारून ने कहा.
‘यह झोंपड़ी भी तो अचरज में डालती है. बाहर से देखने पर लगता है कि जैसे कोई खंडहर हो. परन्तु भीतर की बात ही निराली है. यह तो जैसे किसी रईस की कुटिया लगती है,’ रिहान ने कहा.
‘हमें इस से क्या लेना-देना है, हमें यहाँ एक रात रुकना है, इस आरामदायक कुटिया में मज़े से सोयेंगे, अब खाना अच्छा और गरमागरम मिल जाये तो नींद भी अच्छी आ जायेगी,’ मैंने वातावरण को हल्का करने के लिए, अपनी शंका को छिपाते हुए, यह बात पूरे उत्साह के साथ कही.
‘क्या पता यह कोई पहाड़ी लुटेरा हो? हमें चौकस रहना पडेगा,’ जोगी बोला.
‘क्या पता वह एक प्रेत ही हो और यह कुटिया एक प्रेत-कुटिया हो? अरे, क्यों उस गरीब आदमी पर संदेह कर रहे हो. आज अगर वह हमारी सहायता न करता तो उस गेस्ट हाउस के बरामदे में बिना खाने के सो रहे होते. यहाँ रातें कितनी ठंडी होती हैं इसका तुम्हें अंदाज़ा नहीं है,’ मैंने कहा.
तभी टिम्मी बाहर से आया. वह बहुत घबराया हुआ था, ‘यहाँ कोई भी नहीं है, न कोई आदमी, न कोई पशु.’
‘गड़ेरिया कहाँ गया? आस-पास ही होगा?’ मैंने कहा.
‘वह कहीं नहीं है. मैंने हर जगह देख लिया है, इस समय इस झोंपड़ी में हमारे अतिरिक्त कोई नहीं है,’ टिम्मी बोला.
‘शायद वह खाने का प्रबंध करने गया हो?’ अब मुझे भी घबराहट होने लगी थी.
हम सब थोड़ा आशंकित थे, थोड़ा घबराए हुए थे. परन्तु प्रतीक्षा करने के अतिरिक्त हम कुछ न कर सकते थे. टिम्मी कुटिया के चित्र लेता रहा. अनचाहे ही हम सब अपनी घबराहट को छिपाने के लिए ऊँची-ऊंची आवाज़ में बात कर रहे थे.
लगभग एक घंटे बाद बूढ़ा गड़ेरिया आया.
‘खाना तैयार है. क्या आप अभी खाना चाहेंगे?’ उसने बहुत ही रुखी आवाज़ में पूछा.
‘हाँ, हम सब को भूख लगी हुई है, खाना ले आओ.’
वह खाना ले आया. खाना वही था जो हम चाहते थे, चावल और मटन-करी. खाना गरमागरम और स्वादिष्ट था.
‘आप भी हमारे साथ खा लो,’ टिम्मी ने कहा.
‘नहीं, मैं यह खाना नहीं खा सकता.’
‘क्यों?’ हम सब ने एक साथ पूछा. हम सब ने एक साथ खाना बंद कर दिया.
‘यह खाना बहुत अच्छा है पर मैं मांस नहीं खाता,’ उसने बिना किसी भाव के यह बात कही.
‘यह तो बड़े अचरज की बात है, यहाँ तो सभी मांस खाते हैं,’ मुझे उस पर संदेह होने लगा था.
वह चुप रहा, मुझ से कोई तर्क न किया.
‘क्या यह सब तुमने पकाया है?’ टिम्मी ने पूछा.
‘अरे नहीं, यह तो मेरी बीवी है जो इतना अच्छा और लज़ीज़ खाना बनाती है. उसी ने सब पकाया है.’
‘पर यहाँ तो कोई नहीं है, मैंने स्वयं जा कर देखा था, मुझे तो कोई दिखाई न दिया था,’ टिम्मी ने उसे घूरते हुए कहा.
‘सब यहीं हैं, अब मुझे जाना है. आप जूठे बर्तन बाहर रख देना,’ इतना कह वह चल दिया. उसकी झुंझलाहट साफ दिखाई दे रही थी.
‘तुम भी यहीं भीतर सो जाओ, हमें कोई आपत्ति न होगी,’ मैंने कहा.
‘नहीं, मैं रसोईघर में सोता हूँ, हमेशा,’ उसने जाते-जाते कहा.
‘रसोईघर कहाँ है?’ टिम्मी ने चिल्ला कर पूछा. पर उसे कोई उत्तर न मिला.
हम सब ने सारा खाना तो खा लिया पर अब एक अजीब सी शंका ने हम सब को घेर लिया था. अनचाहे ही हम सब किसी अनहोनी की प्रतीक्षा कर रहे थे. लेकिन अधिक देर तक प्रतीक्षा न कर पाये. एक-एक कर सबने थकान के आगे घुटने टेक दिए.
दरवाज़े पर हो रही खटखटाहट सुन मेरी नींद टूटी. मैंने झट से दरवाज़ा खोला और बाहर आया. बाहर बूढ़ा गड़ेरिया था.
‘आप लोग अभी तक जागे नहीं? मैंने कहा था कि आपको सूरज डलने से पहले ही वापस आना होगा. आप को अभी ही अपनी यात्रा शुरू करनी होगी. रास्ता लंबा है और चढ़ाई कठिन. अगर आप ने और देर कर दी तो लौटते समय दिक्कत होगी,’ उसने लगभग आदेश देते हुए कहा.

मैंने देखा कि सुबह कब की हो चुकी थी और हम सच में बहुत देर तक सोये रहे थे. मैंने उसे धन्यवाद कहा और अपने साथियों को जगाने के लिए भीतर आया. पर भीतर आने से पहले मैंने बूढ़े गड़ेरिया का चेहरा ध्यान से देख. वह बहुत ही बूढ़ा था, पर सबसे अजीब थी उसकी आँखे, उसकी आँखे बिलकुल भावहीन थीं, उसकी आँखे एक मृत आदमी की आँखों जैसी लग रही थीं. मैं सिहर गया.
© आइ बी अरोड़ा