समाचार पत्र - तब और
अब
बहुत पुरानी बात है. इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख प्रकाशित हुआ था, शीर्षक था,
‘प्लेब्स एंड प्रिंसेस’. इस लेख को लिखा था इंडियन
एक्सप्रेस के सम्पादक फ्रैंक मोरेस ने. इस लेख को मैंने शायद तीन बार पढ़ा था.
कुछ समय के बाद यह लेख समाचार पत्र में एक बार फिर प्रकाशित हुआ. आश्चर्य
हुआ, लगा कि इंडियन एक्सप्रेस से कोई भूल हो गयी है. पर जब ध्यान से देखा तो पाया कि
पाठकों के अनुरोध पर ही लेख को एक बार फिर प्रकाशित गया था. लेख पाठकों को बहुत
अच्छा लगा था.
एक समय था जब समाचार पत्रों की अपनी एक पहचान होती थी. हर लेख पढ़ने की
इच्छा होती थी, हर लेख पढ़ कर कुछ जानने और समझने को मिलता था. अन्य समाचार भी पढ़ने
को मन होता था. हर न्यूज़ रिपोर्ट पढ़ कर लगता था कि उस रिपोर्ट को बनाने में पत्रकारों
ने कुछ मेहनत की होगी और सम्पादक की पैनी दृष्टि भी रिपोर्ट पर रही होगी.
आजकल समाचार पत्र में छपे लेख के लेखक का नाम पढ़ कर ही पता लग जाता है
कि लेख में क्या लिखा होगा. रिपोर्ट का शीर्षक देख कर ही समझ आ जाता है कि क्या
रिपोर्ट किया गया होगा. खोजी पत्रकारिता तो बस तहलका के स्तर तक ही सिमट कर रह गई
है.
सत्य कई परतों में छिपा होता है और उसे उजागर करने के लिए उन परतों को
भेदना एक पत्रकार के लिए अनिवार्य होता है, पर आज के पत्रकार इन परतों को भेदने के
बजाय ‘रेटिंग्स’ की परतों को भेदने में अधिक रूचि रखते हैं. सारा प्रयास ‘सबसे
पहले रिपोर्ट’ देने का होता है, रिपोर्ट सही है या नहीं, यह बात अधिक महत्वपूर्ण
नहीं रही. अधिकतर रिपोर्टें सिर्फ ‘सनसनी’ बन कर रह जाती हैं जिन्हें लोग पढ़ते भी हैं
तो मनोरंजन के लिए और भूल जाते है.
किसी भी समाचार पत्र से शत-प्रतिशत निष्पक्षता की अपेक्षा करना गलत
होगा. फ्रैंक मोरेस के समय में भी पत्रकारों और संपादकों के अपने-अपने पूर्वग्रह
होते थे जो उनके लेखों और रिपोर्टों में झलकते थे पर वह लोग अपने पूर्वग्रहों को
अपने लेखों इत्यादि पर हावी नहीं होने देते थे.
परन्तु अब तो बस एक ढिंढोरा पीटने वाली बात हो गई है. सत्य, तथ्य,
तर्क सब जैसे अप्रासंगिक हो गये हैं.
तब घर में सिर्फ एक समाचार पत्र आता था और उस एक को ही पढ़ने में कई
बार एक से दो घंटे का समय लग जाता था. आज कल तीन अख़बार आते हैं घर में और तीनों
को पढ़ने में पन्द्रह-बीस मिनट का समय भी नहीं लगता.
अतः हाथ लगते ही एक समाचार पत्र रद्दी में बदल जाता है.
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