Sunday, 24 March 2019


नादिमर्ग नरसंहार
कश्मीर के एक गाँव, छतिसिंहपोरा, में 20 मार्च 2000 के दिन 35 निर्दोष सिखों की आतंकवादियों ने निर्मम हत्या कर दी थी. इस घटना की ठीक तीन वर्ष बाद 23 मार्च 2003 के दिन फिर एक नरसंहार हुआ. उस दिन पुलवामा में स्थित नादिमर्ग गाँव के 24 कश्मीरी हिन्दुओं की जिहादियों ने हत्या की.
जिन लोगों की जिहादियों ने बेरहमी से मार डाला था, उन में एक बच्चा 2 वर्ष का था और दूसरा 3 वर्ष का. मृतकों में ग्यारह महिलायें थीं. इन में से एक 23 वर्षीय लड़की भी थी, जो चल नहीं सकती थी. हत्यारे उसे खींच कर बाहर लाये थे और उसकी हत्या कर दी थी. पुरुषों में एक अस्सी साल के वृद्ध भी थे.
पर इस बर्बर कांड को लेकर हमारे मीडिया और बुद्दिजीवियों ने शायद ही अपने आंसू बहाए हों. जितना कड़ा “संघर्ष” हमारे मानवाधिकार वालों ने सोहराबुद्दीन या इशरत जहान को लेकर किया उससे हम सब परिचित हैं. पर कश्मीर में हुईं बर्बर हत्याओं के लेकर उनका रवैया, उनकी नियत और उद्देश्य पर प्रश्नचिंह लगाता है.
मीडिया और बुद्दिजीवियों और मानवाधिकारों के ध्वजवाहकों का अपना एक एजेंडा हो सकता है. उनकी मजबूरी है उन सब को उन्हीं लोगों और संस्थाओं के लिए काम करना पड़ता है जो उन्हें पैसा देते हैं.
पर देश के अलग-अलग भागों में रहने वाले आम लोगों का इस तरह तटस्थ रहना आश्चर्यजनक ही नहीं, समझ के परे है. शायद हम इस भुलावे में हैं कि यह सब कहीं और, किन्हीं और लोगों के साथ हुआ और हम सब अपनी-अपनी जगह सुरक्षित हैं.
हमारा भुलावा ही इन आतंकवादियों और जिहादियों की सबसे बड़ी ताकत है. सच्चाई तो यह कि हमारे कई शक्तिशाली राजनेता भी इन आतंकवादियों और जिहादियों को इन हत्याकांडों के लिए दोषी नहीं मानते. वह तो सेना और पुलिस को अधिक उत्तरदायी ठहराते हैं. ऐसे में आम आदमी का सजग रहना अति-आवश्यक.
उन 24 अभागों के लिए आंसू न भी बहायें, अपनी सुरक्षा को तो अवश्य सोचें.   

Saturday, 23 March 2019


जागो मतदाता, जागो
दो एक वर्षों से कई राजनेता सेना के जवानों का अपमान करने की होड़ में लगे हैं.
इन में से एक भी राजनेता ऐसा नहीं है जो सियाचिन की ठंड या रेगिस्तान की चिलचिलाती धूप में आधा घंटा भी रह पाए. जिन कठिनायों का सामना सीमा पर तैनात एक जवान करता है उसका इन्हें रत्ती भर भी अहसास नहीं है.
और आश्चर्य की बात तो यह कि इन सब लोगों को एक्स या वाई या जेड केटेगरी की सुरक्षा मिल हुई है. इनकी जीवन शैली मुगलिया सल्तनत के नवाबों जैसी है. सब का खर्च हम लोग उठाते हैं, वह भी जो दो वक्त की रोटी भी मुश्किल से जुटा पाते हैं.  
यह सम्मानित लोग एक सैनिक का अपमान करने में कभी हिचकते नहीं हैं, क्योंकि हम लोग उन्हें ऐसा करने देते हैं. हम लोग उनकी अभद्र और अपमानजनक बातें सुन कर तालियाँ बजाते हैं और वोट देकर उन्हें विधान सभा या लोकसभा पहुंचाते हैं.
किसी भी देश में ऐसा व्यक्ति जो सेना का अपमान करता है राजनीति में टिक नहीं सकता. पर हमारे देश में ऐसे नेता वर्षों तक राजनीति में फलते-फूलते हैं और खूब उन्नति करते हैं.
दोष हमारा है, इन नेताओं का नहीं. अगर हमें अपनी सेना पर गर्व होता, अगर हमें अपने सैनिकों पर अभिमान होता, अगर सैनिकों और उनके परिवारों के बलिदान के महत्व को हम समझते तो ऐसे नेताओं को हम एक पल के लिए भी राजनीति में सहन न करते. दोष हमारा है कि ऐसे लोगों को हम ने अपना सिरमौर बना कर रखा है.
लेकिन शीघ्र ही हमें अवसर मिलने वाला है. इन नेताओं को स्पष्ट जता देना होगा कि हमें अपनी सेना पर विश्वास है, अपनी सेना पर अभिमान है और उनके बलिदान को हम अपमानित न होने देंगे. इस अवसर हाथ से न जाने दें.
और आइये मिलकर एक मुहीम शुरू करें, और अपनी सेना के सम्मान की रक्षा करें.


Thursday, 21 March 2019


छतिसिंहपोरा  नरसंहार
क्या कल आपने किसी मीडिया चैनल पर या किसी समाचार पत्र में छतिसिंहपोरा  नरसंहार के विषय में एक शब्द भी सुना या पढ़ा?
क्या किसी ह्यूमन-राइट्स वाले को इस नरसंहार की बात करते सुना?
वह लोग जो आज़ादी के नारे लगाते है या वह नेता जो उनके समर्थन में खड़े हो जाते हैं या वह जो आये दिन नक्सालियों के लिए आवाज़ उठाते हैं या वह जो फर्जी मुठभेड़ों के लेकर न्यायालयों और ह्यूमन-राइट्स कमीशन के दरवाज़े बार-बार खटखटाते हैं, इनमें से किसी को भी आपने इस नरसंहार में मारे गये लोगों के और उनके अभागे परिवारों के लिए अपने संवेदना प्रकट करते सुना?
किसी ने दिखावटी संवेदना भी प्रकट नहीं की.
शायद इस लेख के अधिकतर पाठक भी न जानते होंगे कि 20 मार्च 2000 के दिन कश्मीर के एक गाँव में 35 सिखों को आतंकवादियों ने घेर कर उनकी निर्मम हत्या कर दी थी. जिनकी हत्या की गई  उन में किशोर भी थे और वृद्ध भी.
वैसे कश्मीर में हत्याओं का सिलसिला तो बहुत पहले शुरू हो गया था. कश्मीरी हिन्दुओं की निर्मम हत्याओं के साथ ही जिहाद की शुरुआत हुई थी. पर छतिसिंहपोरा  नरसंहार एक बहुत ही वीभत्स कांड था, जिसकी न कोई जांच हुई और न ही किसी दोषी को सज़ा मिली.
पर खेद तो इस बात का है कि मीडिया और बुद्दिजीवी और सोशल एक्टिविस्ट और कलाकार और राजनेता जो दुनिया भर में इस बात का ढिंढोरा पीटते हैं की वह मानवाधिकारों के लिए भारत में एक जंग लड़ रहे हैं वह सब छतिसिंहपोरा  नरसंहार को लेकर कितने तटस्थ हैं.
दुर्भाग्य है इस देश का कि ऐसा फर्ज़ी मीडिया और ऐसे फर्ज़ी बुद्दिजीवी यहाँ कितनी सरलता से सफल हो रहे हैं. दोष तो हमारा भी है. हम इस बात को स्वीकार करें या न करें, ऐसे सब नरसंहारों के लिए हम भी थोड़े-बहुत दोषी हैं, क्योंकी हम ने कभी किसी को उत्तरदायी नहीं समझा, चाहे वह सरकार हो या मीडिया या फर्ज़ी बुद्धिजीवी.

Tuesday, 19 March 2019


गालियाँ ही गालियाँ
गालियों की हो रही है
आजकल खूब बौछार,
देश में आ गया है चुनाव
फिर इक बार,
शिशुपाल भी लगा है
थोड़ा घबराने,
उसका कीर्तिमान तोड़ेंगे
नेता नये-पुराने,
सब नेताओं में लगी है
इक होड़,
गली-गली में हो रही
अपशब्दों की दौड़,
एक बुद्धिजीवी को लगा
यह है सुनहरा अवसर,
रातों-रात  विज्ञापन चिपका दिए
हर सड़क पर,
“गालियाँ ही गालियाँ
बस एक बार मिल तो लें,
प्रोफेसर जी. ‘अपशब्द’ से
सब नेता आज ही मिलें”,
पर प्रोफेसर जी. को
इस बात का न था अहसास,
गालियों का अनमोल खज़ाना था
हर नेता के पास,
फिर प्रोफेसर जी. थे
बंधे मर्यादाओं से अब तक,
लेकिन किस नेता ने फ़िक्र की
मर्यादों की आजतक,
बेचारे नेता भी क्या करें
राजनीति भी एक धंधा है,
पापी पेट के लिए सब करना पड़ता
नोट-बंदी के चलते पहले ही सब मंदा है.

Friday, 15 March 2019


चीन का हाथ अज़हर मसूद के साथ
जैसी की अपेक्षा थी चीन फिर एक बार अज़हर मसूद की ढाल बना. सिक्यूरिटी कौंसिल में वह अकेला ऐसा सदस्य था जिसने उस आतंकवादी का साथ दिया.
देश में कई लोग चीन के इस व्यवहार से क्रोधित हैं, कुछ प्रसन्न भी हैं. पर हर कोई इस बात की अनदेखी कर रहा हैं कि चीन के लिए सबसे महत्वपूर्ण उसके अपने हित है. अपने हितों को ख्याल रखना हर स्वाभिमानी देश के नागरिकों और नेताओं का सर्वोच्च कर्तव्य होता है.  चीन के लोग बहुत ही स्वाभिमानी हैं. वह अपने को बहुत ही श्रेष्ठ समझते हैं. देश हित उनके लिए सर्वोपरि होता है. इस बार भी उन्होंने वही निर्णय लिया जो उनकी समझ में उनके हित में था.
अगर हम लोग अपने परिवार, अपनी पार्टी, अपनी जाति, अपने प्रदेश, अपने धर्म को देश के हितों से ऊपर (बहुत ऊपर) रखते हैं, तो यह हमारी समस्या है. अगर हम समझते हैं कि कोई और हमारी मुसीबतों से हमें छुटकारा दिला देगा तो यह हमारी ना-समझी है.
ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि जब हम लोग ही अपने हितों की अनदेखी कर रहे हैं तो दूसरे को क्या पड़ी है कि वह अपने हितों को भूल कर हमारी समस्याएं सुलझाने लगे.
जब आतंकवाद को लेकर हम स्वयं ही एक आवाज़ में नहीं बोल रहे, तो चीन हमारे साथ क्यों युगलबंदी करे?
जब हम सब सरकार के साथ नहीं खड़े हैं, तो चीन हमारी सरकार के साथ क्यों खड़ा हो?
अगर हम में से कई विद्वान् टुकड़े-टुकड़े गैंग को लेकर असमंजस में हैं और कई समझदार राजनेता और बुद्धिजीवी खुल कर उनके समर्थन में खड़े हैं , तो चीन उनकी पीठ पर अपना हाथ क्यों न रखे?
अगर चालीस वर्षों में हम  आतंकवाद को लेकर कोई ठोस नीति नहीं बना पाए, तो चीन हमारी सहायता क्यों करे?
अगर हम बार-बार आतंकवादियों के सामने घुटने टेक देते हैं, तो चीन हमारा सम्मान क्यों करे?
हमें यह बात समझ लेनी होगी कि जो देश हमारे साथ खड़े हैं, वह अपने हित साधने के लिए खड़े हैं. और जो साथ नहीं हैं, उनका हित उसी में हैं. ऐसा उन सब का अपना विश्लेष्ण हैं.
अगर हम एक शक्तिशाली देश बनना चाहते हैं तो हमें आत्म-निर्भर और स्वाभिमानी बनना होगा. अन्यथा आतंकी हमले होते रहेंगे और हम ट्विटर और सोशल मीडिया पर अपना रोना-धोना करते रहेंगे.
*****
अनुलेख – हम में से जो लोग आज क्रोधित हैं उनमें से कितने लोग चीन और चीनी वस्तुयों का बहिष्कार करने को तैयार हैं?

Wednesday, 13 March 2019


मसूद अज़हर  जी.......”
कांग्रेस का जिहादियों के साथ अनोखा संबंध है. दिग्विजय सिंह हमेशा ओसामा का नाम बड़े सम्मान के साथ लेते हैं. एक अन्य नेता के लिए अफज़ल गुरु “जी” थे. शिंदे साहिब के लिए हाफिज़ “श्री” थे. अब राहुल गांधी के लिए भी मसूद अज़हर “जी” हो गये हैं.
अब पार्टी अध्यक्ष ने कहा तो कार्यकर्ताओं का कर्तव्य है कि उनकी बात को उचित सिद्ध करें, तो ब्यानबाज़ी  शुरू हो गयी है.
सेना अध्यक्ष इनके लिए गली के गुंडे समान है. सेना के अधिकारियों के वक्तव्यों पर इनका विश्वास नहीं हैं. इन्हें सेना से हर बात का सबूत चाहिये. इनमें कुछ अनुभवी लोग अवश्य जानते होंगे कि किसी भी देश में सेना अपनी कार्यवाही के ऐसे सबूत सार्वजनिक नहीं करती और न ही वहां का कोई नागरिक अपनी सेना पर अविश्वास करता है. पर यह भारत है यहाँ सब कुछ संभव है.
वैसे भारत के मुख्य न्यायाधीश पर भी कांग्रेस ने अभियोग चलाने का प्रयास किया था. कांग्रेस के नेताओं को उन पर विश्वास नहीं था. उन्हें सीएजी पर विश्वास नहीं है, इवीएम  पर विश्वास नहीं है.
जिस तरह की भाषा यह प्रधान मंत्री के लिए प्रयोग करते आयें हैं, वह अकसर अभद्र होती है. पर उसे नज़रंदाज़ किया जा सकता है, क्योंकि बीजेपी और खासकर मोदीजी के साथ कांग्रेस,  और खासकर गांधी परिवार के सदस्य, एक राजनीतिक लड़ाई लड़ रहे हैं. पिछड़ी जाति और गरीब परिवार का एक व्यक्ति, उनकी अनुकंपा के बिना, प्रधान मंत्री के पद पर पहुँच जाए,  यह बात उनके लिए स्वीकार थोड़ा मुश्किल है. तो उनका कुंठित होना स्वाभाविक है.
पर इस कुंठा के चलते वह जिहादियों से प्रेम करने लगें यह समझ के परे है. चालीस वर्षों से पाकिस्तान एक परोक्ष युद्ध कर रहा है. आतंकी हमलों में हज़ारों लोगों की  मृत्यु हुई या  घायल हुए. पर इस देश की किसी सरकार ने (अटल सरकार ने भी) जिहादियों को उनके घर में घुस कर मारने का साहस नहीं किया. अब इस सरकार ने थोड़ा साहस दिखाया है, तो कांग्रेस की कुंठा और बढ़ गयी है. उन्हें लगता है कि मोदी जी के इस निर्णय से उनकी प्रतिष्ठा थोड़ी घट गयी है.
तो कांग्रेस के पास उपाय क्या है? उनके पास एक ही उपाय है; वह उपाय है इन सर्जिकल स्ट्राइक्स को अविश्वास और संदेह के घेरे में ले आएँ. इस कार्य को सफलता पूर्वक करने में राहुल गाँधी जी-जान से प्रयास कर रहे है. आज लगभग सारा विपक्ष इस मुद्दे पर एक साथ है. सब का कहना है कि सर्जिकल स्ट्राइक्स राजनीति से प्रेरित थीं और उनकी सफलता संदेहास्पद है. और संयोग से यही बात पाकिस्तान भी कह रहा है.
राहुल गांधी यह आरोप लगा रहे थे कि “मसूद अज़हर जी” को पिछली बीजेपी सरकार ने छोड़ा था.
निश्चय ही यह निर्णय उस सरकार की बड़ी भूल थी. अटल जी को उस भयंकर आतंकवादी को कभी नहीं छोड़ना चाहिए था और जहाज़ के लगभग डेढ़ सौ यात्रियों का बलिदान दे देना चाहिये था.
पर क्या यह बलिदान देने के लिए लोग तैयार थे?
राहुल गांधी उस समय बहुत छोटे थे, शायद उन्होंने उन दिनों टीवी रिपोर्ट्स नहीं देखी होंगी.  लेकिन अगर आप को उस समय के टीवी रिपोर्ट्स याद हैं तो आप एक पल में इस प्रश्न का उत्तर जान जायेंगे. मसूद अज़हर की रिहाई के लिए जितनी सरकार दोषी थी, उतना ही विपक्ष, मीडिया और आम लोग दोषी थे. 


Saturday, 9 March 2019


कंधार से बालाकोट
पुलवामा में हुए आतंकी हमले और बालाकोट पर हुई सर्जिकल स्ट्राइक के बाद देश में एक बयानबाज़ी का दौर शुरू हो गया है. कोई नेता कह रहा है कि सरकार को प्रमाण देने चाहियें कि स्ट्राइक में कितने लोग मारे गये. कोई कहता है कि स्ट्राइक बेचारे पेड़ों पर हुई थी. एक नेता ने ब्यान दिया है कि पुलवामा कांड एक “दुर्घटना” थी तो दूसरा कह रहा है कि मोदी और इमरान खान के बीच मैच-फिक्सिंग थी.
मीडिया के कई लोग भी विपक्ष का पूरा साथ दे रहे हैं. सरकार पर दबाव बनाया जा रहा है कि वह स्ट्राइक की सफलता के सबूत  सार्वजनिक करे.
अब कुछ वर्ष पीछे चलते हैं. इंडियन एयरलाइन्स का एक जहाज़ आतंकवादियों ने हाईजैक कर लिया था और अंततः उसे कंधार ले गये थे. उनकी शर्त थी कि भारत की जेलों में बंद कुछ आतंकवादियों को छोड़ दिया जाए.
अब याद करें वह दृश्य जब जहाज़ में बैठे यात्रियों के सम्बंधी और मित्र और कई अन्य लोग रोते-बिलखते सड़कों पर उतर आये थे. उनकी मांग थी कि कुछ भी करके बंधकों को छुड़वाया जाए. उन लोगों की भावनाओं को विपक्ष ने और मीडिया ने खूब भड़काया था.
ऐसा माहौल बन गया था कि सरकार को घुटने टेकने पड़े थे और आतंकवादियों को छोड़ना पड़ा था. उस निर्णय का दुष्परिणाम आजतक देश की जनता को ही झेलना पड़ रहा है.
आश्चर्य की बात है कि विपक्ष और मीडिया ने यह दिखाने का प्रयास किया था कि इस घटना से सिर्फ सरकार की प्रतिष्ठा को चोट पहुंची थी. और खेद तो इस बात का है कि आम भारतीय को भी नहीं लगा कि सरकार का घुटने टेक देने से वास्तव में हम सब की हार हुई थी.
आज भी वही माहौल देश में बनाया जा रहा है. फर्क सिर्फ इतना है कि सड़कों पर रोते-बिलखते लोग नहीं है, बाकि बयानबाज़ी वैसी ही है. कांग्रेस के अध्यक्ष तो और भी चतुराई दिखा रहे हैं. उनका कहना है कि सबूत तो शहीदों के परिजन मांग रहे हैं. सरकार पर इस तरह दबाव बनाया जा रहा है कि साख बचाने के लिए वह कोई गलत कदम उठा ले.
विपक्ष और मीडिया को लग रहा है कि इस बयानबाज़ी से सिर्फ मोदी सरकार की साख पर चोट पहुँच रही है.
लेकिन ऐसा है नहीं. ऐसी बयानबाज़ी और रिपोर्टिंग से सब के आत्म-सम्मान पर चोट पहुँचती है. सब के गौरव का हनन हो होता है. सब की जग हंसाई होती है. वह अलग बात है कि अपने मुंह पर पुती कालिख को हम में से कुछ लोग या सम्मानित नेता या मीडिया देखने को तैयार नहीं हैं.
पर आप गंभीरता से देखेंगे तो आप को अहसास होगा की आज भी हम वहीं खड़े हैं जहां 1999 में खड़े थे. हम ने शायद निश्चय कर रखा है कि इतिहास से हम कुछ भी न सीखेंगे.
शायद ही किसी स्वाभिमानी देश में ऐसी स्थिति देखने को मिले. शायद ही किसी अन्य देश में सेना को अपमानित कर या सेना की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा कर कोई व्यक्ति राजनीति में टिक पाये.
पर हमारे देश में सब चलता है, खोटा सिक्का भी.

Friday, 8 March 2019


क्या सरकार को हवाई स्ट्राइक के सबूत सार्वजनिक करने चाहियें?
पिछले कुछ दिनों से हवाई स्ट्राइक को लेकर आश्चर्यजनक ब्यानबाज़ी हो रही है. ऐसी-ऐसी बातें कही जा रही हैं जिन्हें सुन कर मुझ जैसा आम आदमी तो चकरा गया है.
ऐसा लगता है कि सरकार पर विपक्ष और मीडिया के कुछ लोग भरपूर दबाव डाल रहें ताकि अपनी और सेना की साख बचाने के लिए सरकार स्ट्राइक के कुछ प्रमाण सार्वजनिक कर दे.
क्या इस दबाव के पीछे सिर्फ राजनीति है या किसी का कोई अप्रत्यक्ष एजेंडा भी है?
शायद आम लोगों को इस बात की जानकारी नहीं होगी कि सेना का हर मिशन बहुत ही गुप्त होता है. हर मिशन की जानकारी गिने-चुने अधिकारियों और सैनिकों को होती है. मिशन कब होगा, कैसे किया जाएगा, किस प्रकार के हथियार इस्तेमाल होंगे अर्थात मिशन की हर छोटी या बड़ी बात पूरी तरह गुप्त रखी जाती है और सिर्फ उन्हीं लोगों के पास होती जिनका मिशन से सीधा संबंध होता है .  
मिशन पूरा होने के बाद ‘डी-ब्रीफिंग’ होती. मिशन सफल हुआ हो या असफल, मिशन से जुड़े लोगों से जानकारी ली जाती. भविष्य में बनने वाली योजनाओं में उन जानकारियों से लाभ उठाया जाता है. ट्रेनिंग में भी उस जानकारियों का उपयोग किया जाता  है.
ऐसी गुप्त जानकारियों को प्राप्त करने के लिए शत्रु हमेशा बेताब रहता है. क्योंकि वह आपकी क्षमता और आपकी कमजोरियों को समझना चाहता है. हर देश की मिलिट्री इंटेलिजेंस अपने शत्रु सेना के बारे में ऐसी जानकारी प्राप्त करने के लिए कई हथकंडे उपयोग में लाती है और इस काम को बड़ी चालाकी से पूरा करती है.
हवाई स्ट्राइक का हर प्रमाण हमारी वायु सेना की क्षमता और कमजोरियों का कुछ न कुछ संकेत शत्रु को अवश्य देगा. चाहे वह कितना ही मामूली क्यों न हो, पर ऐसा हर संकेत शत्रु की जानकारी में कुछ न कुछ  वृद्धि तो करेगा.
हो सकता है कि हमारे देश का कोई भी नागरिक शत्रु के लिए काम न कर रहे हो, पर फिर भी इस समय किसी दबाव में आकर सरकार को ऐसा कोई प्रमाण सार्वजनिक नहीं करना चाहिये जो हमारी सेनाओं को किसी भी रूप में कमज़ोर करे या शत्रु की जानकारी में किसी प्रकार की वृद्धि करे.
प्रमाण कब सार्वजनिक करने हैं यह निर्णय एक सोची-समझी रणनीति के अनुसार ही होना चाहिये.

Wednesday, 6 March 2019


विपक्ष की बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक
आजकल विपक्ष का हर नेता और कई मीडिया वाले  बालाकोट पर हुए सर्जिकल स्ट्राइक का प्रमाण मांग रहा है, मोदी जी से चीख-चीख कर पूछ रहा है कि बताओ ‘कितने आदमी थे’, कितने आदमी मारे गये हवाई सर्जिकल स्ट्राइक में.
ध्यान देने योग्य है कि कोई यह नहीं पूछ रहा कि कितने ‘आतंकवादी’ थे बालाकोट में. अर्थात इन लोगों की समझ में यह लोग आतंकवादी नहीं थे.
अब मान लीजिये मोदी जी कुछ भी संख्या बताते हैं तो क्या विपक्ष इससे संतुष्ट हो जायेगा या फिर उस संख्या को पुष्टि करने के लिये मोदी जी से उन लोगों के (जो बालाकोट में मारे गये) ‘डेथ सर्टिफिकेट’ और ‘पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट’ मांगेगा, अन्यथा या कैसे साबित होगा की वह लोग हवाई हमले में ही मरे थे, केंसर या दिल के दौरे से नहीं.
यह सारा बयानबाज़ी एक सोची-समझी योजना लगती है. भारत पिछले चालीस वर्षों से पाकिस्तान द्वारा चलाये जा रहे अघोषित युद्ध का सामना कर रहा है. इसमें कितने लोग मारे गये हैं मैं नहीं जानता. इन्टरनेट पर देखने पर भी कोई सही आंकड़े नहीं  मिले. किसी टीवी चैनल पर कोई विशेषज्ञ दावा कर रहा था कि  अस्सी हज़ार से अधिक लोग मारे गये हैं. पर इतना तो सत्य है कि इन चालीस वर्षों में पाक द्वारा चलाये गये आतंकवाद के कारण पंजाब में, जम्मू व् कश्मीर में, दिल्ली और देश के अन्य भागों में बड़ी संख्या में लोग मारे जा चुके हैं.
आजतक हमारी प्रतिक्रिया क्या रही है?
या तो हम बातचीत करते रहे हैं या फिर वागाह बॉर्डर पर मोमबत्तियां जलाते रहे हैं. लेकिन  न बातचीत से कुछ हुआ और न मोमबत्तियां जलाने से.
लोग वर्षों से चाह रहे थे कि सरकार को कोई सख्त कदम उठाने चाहियें. लेकिन पाकिस्तान पर उल्ट वार करने का साहस किसी सरकार ने नहीं दिखाया.  जो लोग इस आतंकवाद की मार सहते आ रहे हैं,  वह अब इस ज़ुल्म को और सहन करने को तैयार नहीं हैं.
जिस समय लोगों का गुस्सा भड़का हुआ था उसी समय मोदी सरकार ने हमला करने का निर्णय लिया. यह बात लोगों को अच्छी लगी. ध्यान देने योग्य है कि कोई आम नागरिक यह नहीं पूछ  रहा कि ‘कितने आदमी थे’. वह उत्साहित है और इस बात से प्रभावित हैं कि आखिरकार किसी सरकार ने आतंकवादियों को उनके घर में घुस कर चोट पहुंचाने का साहस तो किया.
बालाकोट में एक आतंकवादी मरा या तीन सौ, महत्वपूर्ण नहीं हैं, क्योंकि पाकिस्तान में आतंक के कई कारखाने काम कर रहे हैं. महत्वपूर्ण यह है कि अब सरकार ने बता दिया है कि पाकिस्तान के भीतर जाकर भी  आतंकवादियों पर हमला करने को सेना तैयार है.  
एक आम आदमी भली-भांति जानता है कि एक गुंडा तब तक ही आप को डरता है जब तक आप उससे डरते हैं. जिस दिन आप थोड़ा साहस कर, उसका मुकाबला करते हैं वह बिदक जाता है. वह शायद फिर आपको परेशान करे, पर उसे उल्ट वार के लिये तैयार रहना पड़ता है.
अब विपक्ष को यह बात हजम नहीं हो रही है कि मोदी सरकार के निर्णय से लोग उत्साहित हैं. उन्हें लगा कि लोगों का ध्यान किसी और मुद्दे पर ले जाना अनिवार्य हो गया था. तो सोची-समझी योजना के तहत सब एक साथ एक आवाज़ में पूछने लगे कि बताओ, ‘कितने आदमी थे’. किसी ने तो यह तक कहा है कि पुलवामा आतंकी हमला बी जे पी ने कर वाया था.
विपक्ष और मीडिया को इस बात की रत्ती भर भी परवाह नहीं कि इस बयानबाज़ी से भारत की प्रतिष्ठा को चोट पहुँच रही है,  शत्रु हमारी कमज़ोर कड़ियों को पहचान कर अपनी पकड़ में ले सकता है, सेना का  मनोबल घट सकता है (आखिर क्यों कोई सैनिक ऐसे लोगों के लिए अपनी जान दांव पर लगाना चाहेगा जो लोग उसका मान नहीं करते या उस पर अभिमान नहीं करते).
विपक्ष को तो बस सरकार की साख को गिरानी है, और इसके लिए वह किसी हद तक जाने को तैयार हैं.
लेकिन आम लोगों को एक बात ध्यान में रखनी होगी. जब अफगानिस्तान से अमरीका के सेना लौट जायेगी, स्थिति और बिगड़ेगी, क्योंकि वहां पर सक्रीय पाकिस्तान के पाले हुए आतंकवादी भारत की ओर चल पड़ेंगे.