कंधार से बालाकोट
पुलवामा में हुए आतंकी हमले और बालाकोट पर हुई सर्जिकल
स्ट्राइक के बाद देश में एक बयानबाज़ी का दौर शुरू हो गया है. कोई नेता कह रहा है
कि सरकार को प्रमाण देने चाहियें कि स्ट्राइक में कितने लोग मारे गये. कोई कहता है
कि स्ट्राइक बेचारे पेड़ों पर हुई थी. एक नेता ने ब्यान दिया है कि पुलवामा कांड एक
“दुर्घटना” थी तो दूसरा कह रहा है कि मोदी और इमरान खान के बीच मैच-फिक्सिंग थी.
मीडिया के कई लोग भी विपक्ष का पूरा साथ दे रहे हैं.
सरकार पर दबाव बनाया जा रहा है कि वह स्ट्राइक की सफलता के सबूत सार्वजनिक करे.
अब कुछ वर्ष पीछे चलते हैं. इंडियन एयरलाइन्स का एक जहाज़
आतंकवादियों ने हाईजैक कर लिया था और अंततः उसे कंधार ले गये थे. उनकी शर्त थी कि
भारत की जेलों में बंद कुछ आतंकवादियों को छोड़ दिया जाए.
अब याद करें वह दृश्य जब जहाज़ में बैठे यात्रियों के सम्बंधी
और मित्र और कई अन्य लोग रोते-बिलखते सड़कों पर उतर आये थे. उनकी मांग थी कि कुछ भी
करके बंधकों को छुड़वाया जाए. उन लोगों की भावनाओं को विपक्ष ने और मीडिया ने खूब
भड़काया था.
ऐसा माहौल बन गया था कि सरकार को घुटने टेकने पड़े थे और
आतंकवादियों को छोड़ना पड़ा था. उस निर्णय का दुष्परिणाम आजतक देश की जनता को ही
झेलना पड़ रहा है.
आश्चर्य की बात है कि विपक्ष और मीडिया ने यह दिखाने का
प्रयास किया था कि इस घटना से सिर्फ सरकार की प्रतिष्ठा को चोट पहुंची थी. और खेद
तो इस बात का है कि आम भारतीय को भी नहीं लगा कि सरकार का घुटने टेक देने से वास्तव
में हम सब की हार हुई थी.
आज भी वही माहौल देश में बनाया जा रहा है. फर्क सिर्फ
इतना है कि सड़कों पर रोते-बिलखते लोग नहीं है, बाकि बयानबाज़ी वैसी ही है. कांग्रेस
के अध्यक्ष तो और भी चतुराई दिखा रहे हैं. उनका कहना है कि सबूत तो शहीदों के
परिजन मांग रहे हैं. सरकार पर इस तरह दबाव बनाया जा रहा है कि साख बचाने के लिए वह
कोई गलत कदम उठा ले.
विपक्ष और मीडिया को लग रहा है कि इस बयानबाज़ी से सिर्फ
मोदी सरकार की साख पर चोट पहुँच रही है.
लेकिन ऐसा है नहीं. ऐसी बयानबाज़ी और रिपोर्टिंग से सब के
आत्म-सम्मान पर चोट पहुँचती है. सब के गौरव का हनन हो होता है. सब की जग हंसाई
होती है. वह अलग बात है कि अपने मुंह पर पुती कालिख को हम में से कुछ लोग या सम्मानित
नेता या मीडिया देखने को तैयार नहीं हैं.
पर आप गंभीरता से देखेंगे तो आप को अहसास होगा की आज भी
हम वहीं खड़े हैं जहां 1999 में खड़े थे. हम ने शायद निश्चय कर रखा है कि इतिहास से
हम कुछ भी न सीखेंगे.
शायद ही किसी स्वाभिमानी देश में ऐसी स्थिति देखने को
मिले. शायद ही किसी अन्य देश में सेना को अपमानित कर या सेना की विश्वसनीयता पर
प्रश्नचिन्ह लगा कर कोई व्यक्ति राजनीति में टिक पाये.
पर हमारे देश में सब चलता है, खोटा सिक्का भी.
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