केजरीवाल बनाम
दिल्ली पुलिस
साधारणतया समाज में
दो प्रकार के लोग होते हैं. एक वर्ग उन लोगों का है जो कामना करते हैं कि समाज एक व्यवस्था के अनुसार
चले, असामाजिक तत्वों को नियन्त्रण में रखने के लिए पुलिस सक्षम हो, पुलिस का सारा
तन्त्र चुस्त-दुरुस्त हो, पुलिस के अधिकारियों का मनोबल ऊँचा हो, वह सब काम
नियमानुसार परन्तु पूरी तत्परता से करें. अपराधियों के मन में पुलिस का भय हो. ऐसे
समाज में अपराध समाप्त तो न होते पर आम आदमी इस विश्वास के साथ जीते हैं कि अगर
कोई अपराध या दुर्घटना घटेगी तो पुलिस उनके साथ होगी.
परन्तु कुछ लोगों के
लिए एक सबल और सक्षम पुलिस तन्त्र खतरे की घंटी सामान होता है. उनकी कामना होती है
कि पुलिस कर्मियों का मनोबल गिरा रहे, वह कोर्ट-कचहरियों के चक्कर लगाते रहें,
समाज को सुरक्षा प्रधान करने के बजाय अपने मान-सम्मान बनाये रखने के लिए हर एक से
झूझते रहे, अपराधियों से उलझने के बजाय अपने आप में उलझे रहें.
केजरीवाल ( ‘आप’
कहना शायद उचित न हो क्योंकि अब ऐसा लगता है कि ‘आप’ सिर्फ केजरीवाल तक ही सीमित
है, अपना प्रचार करने के लिए केजरीवाल ‘आप’ के जिंगल भी स्वयं गाते हैं) को दिल्ली पुलिस से
उलझते देख एक प्रश्न खड़ा होता है कि केजरीवाल किस वर्ग के सामाजिक प्राणी हैं.
अगर उनकी लड़ाई मोदी
से है और अगले आम चुनाव के बाद, लोकसभा की 520-530 चुनाव क्षेत्रों से चुनाव जीत,
प्रधान मंत्री बनना चाहते हैं तो यह उनकी एक न्यायसंगत कामना हैं. परन्तु इसके लिए
उन्हें मोदी से राजनीतिक लड़ाई लड़नी होगी. दिल्ली पुलिस पर इस तरह धावा बोल कर वह
उन लोगों की मनोकामना पूरी कर रहे हैं जो दिल्ली पुलिस की कार्यकुशलता से अप्रसन्न
हैं. दिल्ली पुलिस लंदन पुलिस जैसे न भी हो, पर वह देश के सभी राज्यों की पुलिस से
कई गुणा बेहतर है.
इस सक्षम पुलिस को
केजरीवाल कमज़ोर करना चाहते हैं यह बात कुछ समझ के परे है. क्या इस लड़ाई में
केजरीवाल जी का कोई और उद्धेश्य भी है जो हम नहीं देख पा रहे हैं, यह सोचने वाली
बात है. अन्यथा पुलिस का मनोबल गिरा कर वह क्या अर्जित कर लेंगे? क्या दिल्ली
पुलिस के कमज़ोर होने पर मोदी अगला अगला चुनाव हार जायेंगे केजरीवाल प्रधान मंत्री
बन जायेंगे?
और एक बात जो
आश्चर्यचकित करती है वह है केजरीवाल जी का नियमों के प्रति उनका रुख. वह एक सिविल
सर्विस के अधिकारी रह चुके हैं अतः इतनी समझ तो उन्हें होगी कि जब तक कोई
नियम-कानून बदल नहीं दिया जाता तब तक उसका पालन करना हर संवैधानिक पद अधिकारी की
लिए अनिवार्य होता है. आप अगर किसी नियम से सहमत नहीं हैं तो उसे बदल सकते हैं और
अगर बदलने की स्थिति में नहीं हैं तो उसे न्यायालय में चुनौती दे सकते हैं. पर
उसकी अवहेलना नहीं कर सकते.
वैसे मेरा निजी मत
है कि हम सब लोगों का नियम और व्यवस्था में अधिक विश्वास नहीं है. एक साधारण
सा उदाहरण देता हूँ, देश में हर चार मिनट में एक आदमी की सड़क दुर्घटना में मृत्यु
होती है, क्योंकि अधिकतर लोग ट्रैफिक नियमों की पूरी तरह अवहेलना करते हैं.
अनुलेख- आज हमारे योग गुरु कह रहे थे कि आदमी सामाजिक प्राणी होता है.
जब वह प्रसन्न होता है तब उसके आस-पास के सब लोग प्रसन्न होते हैं; जब वह क्रोधित
होता है तब आस-पास के सब लोग क्रोधित होते हैं.
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