Wednesday, 22 July 2015

मुआवज़ा
मैंने अपने पद का कार्यभार सँभाला ही था की एक वृद्ध मेरे सामने आ खड़े हुए. चेहरा झुर्रियों से भरा था, बाल सफ़ेद और बिखरे हुए थे, आँखों पर निराशा और उदासी की परत चढ़ी हुई थी.
एक सहमी हुई आवाज़ मुझ तक पहुंची, ‘सर, क्या मैं  आप से कुछ कह सकता हूँ?’
मेरे कुछ कहने के पहले ही अनुभाग के कुछ लोग एक साथ बोल पड़े, ‘अरे बाबा, हमारा पिंड कब छोड़ोगे? कितनी बार तुम्हें समझा चुकें हैं कि हम कुछ नहीं हो सकते पर तुम हो कि कुछ समझने को ही तैयार नहीं हो.’
यह सब कुछ मेरे लिए बिल्कुल अप्रत्याशित था.
‘क्या बात है?’ जैसे ही मैंने वृद्ध से पूछा, अनुभाग के सबसे वरिष्ठ सहायक, सियाराम, ने बीच में टोकते हुए वृद्ध से कहा, ‘तुम जो हर दिन यहाँ आ जाते हो उससे क्या नियम-कानून बदल जायेंगे? जब एक बार कह दिया कि मुआवज़ा नहीं मिल सकता तो बार-बार आकर क्यों परेशान करते हो?’
‘मैं तो साहब से बस एक मिनट बात करना चाहता था,’ वृद्ध ने सहमी आवाज़ में कहा.
‘साहब ने आज ही ज्वाइन किया है, उन्होंने अभी तुम्हारा केस नहीं देखा,’ सियाराम ने मुझसे कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं समझी.
मुझे अपने आप पर क्रोध आ रहा था. आज मेरा पहला दिन था इस कार्यालय में और मैं अपनी पहली चुनौती में असफल हो रहा था. सियाराम ऐसे व्यवहार कर रहा था जैसे मैं वहां था ही नहीं.
‘आप कुछ दिनों के बाद मुझे मिलें. इस बीच मैं आपकी फाइल देख लूंगा,’ मैंने साहस कर कहा. सियाराम ने घूर का मुझे देखा.
वृद्ध के जाते ही मैंने सियाराम से ही कहा कि मुझे इस केस के विषय में बताये.
‘सर, पिछले दो वर्षों से इसने परेशान कर के रखा है. इसके एक बेटे की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. बस, तब से मुआवज़े के लिए घूम रहा है. बीस से अधिक अर्ज़ियाँ दे चुका है. राष्ट्रपति से लेकर हमारे चपरासी तक सबको अपनी फ़रियाद लिख चुका है. करोड़-पति है, पर मरे हुए बेटे का मुआवज़ा मांग रहा है.’
बात बीच में ही रह गई, बड़े साहब ने मुझे बुला लिया. मैं उनके समक्ष हाज़िर हुआ तो देखते ही बोले, ‘जिस कुर्सी तक पहुँचने में मुझे बीस साल लगे थे उस कुर्सी पर तुम सीधे आकर बैठ गये हो. यहाँ काम करना है तो अधिक होशियारी मत दिखाना. मेरे चाहे बिना यहाँ पत्ता भी नहीं हिलता. सुना है यूनिवर्सिटी में तुम प्रथम आये थे, फिर आईएएस क्यों नहीं बन पाये? यू पी एस सी रैंक इतना नीचे कैसे हो गया?’
बॉस की बातें आने वाले तूफ़ान की ओर संकेत कर रही थीं. मेरे पास बस एक ही उपाये था. मुझे अपने काम को समझ कर सही ढ़ंग से निपटाना था. काम में मैं ऐसा उलझा कि उस वृद्ध का ध्यान ही न रहा.
लगभग एक माह बाद वह वृद्ध फिर आये. मेरे कुछ कहने से पहले ही एक सहायक ने चिल्ला कर कहा, ‘ओ महेंद्र, इस मुसीबत को अंदर क्यों आने दिया? तुझे कितनी बार कहा है कि इसे भीतर न आने दिया कर. इसे समझ कुछ आता नहीं है और हमारा दिमाग चाट जाता है.’
एक माह की उठा-पटक के बाद मैं लोगों को कुछ-कुछ समझने और पहचानने लगा था.
वृद्ध मुझ से बात करना चाहते थे, पर एक सहायक उसे बाहर कर देने का आदेश दे रहे थे. ‘ओ महेंद्र, सुन रहा है कि सो रहा है. इसको बाहर छोड़ कर आ.’
मैंने साहस कर कहा, ‘आप अपना काम देखें, मैं इन से कुछ बात करना चाहता हूँ.’
सहायक ने मुझे ऐसे देखा कि जैसे मैंने उसे कोई भद्दी गाली दे दी हो. मैंने उसकी उपेक्षा करते हुए वृद्ध से कहा, ‘आप बैठिये, क्या कहना है आपको?’
मैं दो वर्षों से पागलों की तरह चक्कर लगा रहा हूँ. प्रधान मंत्री के कार्यालय से भी पत्र आया था, गवर्नर का भी आया था. मुझे मालूम है, जानता हूँ हर जगह  घूस दे कर ही कोई काम करवाया जा सकता है. पर मैं क्या करूं? मेरे पास तो घूस देने के लिए कुछ भी नहीं है. मेरा जवान बेटा सरकारी गाड़ी के नीचे आ कर मर गया. और आप लोग मुझे कोई मुआवज़ा देने को तैयार नहीं हो. क्या करूं मैं? घूस नहीं दे सकता, आप कहें तो आप लोगों के घर के काम कर दिया करूंगा. परन्तु इतना अन्याय तो न करें.’
इन शब्दों की बाढ़ में मैं न चाहते हुए भी बह गया. ध्यान आया कि सियाराम इनके केस के विषय में कुछ बता रहा था पर शायद बात पूरी न हो पाई थी. सियाराम अभी आया न था.
‘आप मुझे थोड़ा सा समय दें. मैं अभी नया-नया ही यहाँ आया हूँ. आपका केस देख न पाया. पर विश्वास करें मैं स्वयं आपका केस देखूंगा.’
“देखने भर से मेरी कोई सहायता न होगी, आप कोई रास्ता निकालें, आपकी बहुत कृपा होगी.’
हर दिन की भांति उस दिन भी सियाराम बारह बजे के आस-पास ही आया. उसके आते ही मैंने उसे वृद्ध के केस के बारे में पूछा. वह एक-आध घंटे के बाद एक फाइल लाया और बोला, ‘यह रही उसकी फाइल. आप चाहें तो मैं इस केस के बारे में आपको सब कुछ बता सकता हूँ.’
उसके स्वर में उसकी खीज साफ़ सुनाई दे रही थी पर अब मैं धीरे-धीरे इन बातों का आदि हो रहा था. जितनी कड़वी बातें मुझे बड़े साहब की सहनी पड़ती थीं उतने ही बेरुखी अपने अनुभाग के लोगों की झेलनी पड़ती थी. शायद यह मेरी नियति थी.
‘इस बूढ़े का नाम घनश्याम दास है. माल रोड पर इसकी  तीन मंज़िला कोठी है. पाँच करोड़ से कम की न होगी. माल रोड पर ही तीन शो रूम हैं. सुना है हर माह लाखों-करोड़ों की बिक्री होती है. घनश्याम दास खुद बिज़नस से रिटायर हो चुका है. इसलिये दुकानें इसके बेटे चलाते हैं. यह घर में बैठ के बस खाता है.
‘कुछ साल पहले इसके सबसे छोटे बेटे की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. इस का कहना है की बेटा किसी सरकारी गाड़ी के नीचे आ कर मरा था. इस बात की कभी पुष्टि न हो पाई, न ही यह स्वयं कोई प्रमाण दे पाया. पिछले दो-तीन वर्षों से मुआवज़े के लिए हाय-तौबा मचा रहा है. परन्तु नियमानुसार इसे कोई मुआवजा नहीं दिया जा सकता. अगर गरीब होता तो शायद थोड़ी-बहुत मदद की जा सकती थी. पर यह तो बहुत ही संपन्न व्यक्ति है.’
सियाराम ने जो बताया वह अविश्वसनीय लगा. घनश्याम दास को देख कर कोई नहीं कह सकता था कि वह एक संपन्न व्यक्ति था. उससे न तो पैसों की बू आती थी न ही उसमें वह गरिमा थी जो अकसर पैसे वालों में होती है. वह तो हर कोण से एक दीन-हीन व्यक्ति था.
‘आपको लगता है कि वह एक दीन-हीन आदमी है?’ सियाराम ने अपनी कुटिल आँखें मुझ पर गड़ा दीं.
मैं चुप रहा.
‘यह फाइल पढ़ लें. कभी माल रोड जाने का अवसर मिले तो उसकी कोठी के भी दर्शन कर लें.  तीनों शोरूम भी उधर ही हैं,’ सियाराम की आँखें उपहास से भरी हुईं थीं.
पहले पन्ने से ले कर अंतिम पन्ने तक मैंने फाइल पढ़ी,. सियाराम की कही हर बात फाइल में दर्ज थी.  परन्तु मुझ लग रहा था कि कहीं कोई ऐसी सच्चाई है जो कागजों में नहीं थी.
मैंने सियाराम से ही पूछा, ‘तुम्हें क्या लगता है की घनश्याम दास ऐसा क्यों कर रहे हैं?’
‘अरे साहब, आप इतना भी नहीं समझते? लालच और क्या? आदमी के पास कितना भी पैसा क्यों न हो उसका लालच कभी कम नहीं होता. आदमी जितना अमीर होता है उतना ही बड़ा उसका लालच होता है, यही सच है इस संसार का.’
मुझे सियाराम की बात जंची नहीं पर मेरे पास कोई ऐसा तर्क नहीं था जिसके आधार पर मैं कह पाता कि उसका निष्कर्ष गलत था.
कई हफ्तों तक घनश्याम दास मिलने नहीं आये. मैं भी अपनी उलझनों से गिरा हुआ था, अनुभाग के लगभग सभी लोगों ने मेरे विरुद्ध असहयोग आंदोलन छेड़ रखा था. मेरे साहब की भाषा का स्तर हर दिन गिर रहा था. काम का बोझ था कि बढ़ता ही जा रहा था.
एक दिन माल रोड जाना हुआ. अचानक ध्यान आया कि घनश्याम दास की कोठी भी वहीं कहीं थी. अनचाहे ही मैं हर कोठी के बाहर लगी नाम की पट्टियाँ पढ़ने लगा. एक कोठी के बाहर ‘घनश्याम निवास’ की पट्टी देख कर ठिठक गया.
सच में कोठी बहुत ही आलीशान थी. कई विचार एक साथ मन में आने लगे. कई प्रश्न एक साथ सामने खड़े हो गये. मुझे विश्वास न हो रहा था कि ऐसी कोठी में रहने वाला व्यक्ति तीन वर्षों से थोड़े से मुआवज़े के लिए हमारे कार्यालय के चक्कर लगा रहा था.
किसी की कोठी से बाहर आते देखा. घर का नौकर लग रहा था. अनायास ही में आगे आया और उससे बोला, ‘क्या मैं घनश्याम दास जी से मिल सकता हूँ?’
उसने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा, मेरा नाम, पता पूछा और बड़े अदब से बोला, ‘साहब. आप पीछे पार्क में चलें. मैं मालिक को ले कर वहीं आता हूँ.’
“क्या मैं भीतर जाकर उनसे नहीं मिल सकता?’ मैंने आश्चर्य से पूछा.
‘सर, जो मैं कह रहा हूँ वैसा ही करें. बड़ी कृपा होगी आपकी.’
नौकर की आँखों से झलकती विवशता देख मेरे मन में एक विचार आया. ‘मुझे लगता है की घनश्याम दास जी को परेशान करने की आवश्यकता नहीं है. अगर तुम्हारे पास समय है तो तुम ही मेरे साथ चलो. मुझे उनके मुआवज़े के केस के विषय में थोड़ी जानकारी चाहिये. तुम भी तो घर के आदमी हो, तुम ही मेरे सवालों के उत्तर दे देना.’
उसने कहा कि वह साहब को बता कर ही मेरे साथ चल पायेगा. वह भीतर गया और तुरंत लौट आया.
पार्क में बैठ घंटा भर उससे बातें हुईं. जब मैं उठा तो पूरी तरह निराश था. मैंने अनुमान भी न लगाया था की जो सच फाइल में दर्ज नहीं था वह सच इतना कठोर होगा.
लगभग पाँच वर्ष पहले घनश्याम दास के सबसे छोटे लड़के को एक पुलिस की गाड़ी ने टक्कर मारी थी. गाड़ी बहुत तेज़ चल रही थी जैसे की अकसर सरकारी गाड़ियाँ चलती हैं. लड़का सड़क पार कर रहा था परन्तु पार न कर पाया था बीच में ही उसका सफ़र समाप्त हो गया था. कई लोगों ने देखा था और स्वभाव अनुसार, हाथ जेबों में डाले, बस देखते ही रहे थे. पुलिस की गाड़ी रूकी नहीं, अपनी गति पर चलती रही थी. किसी ने भी गाड़ी का नंबर नोट नहीं किया था. किसी ने उसकी सहायता न की थी. सड़क पर पड़े-पड़े ही उसकी मृत्यु हो गई थी.
उसकी मृत्यु माता-पिता के लिए असहनीय आघात थी. घनश्याम दास की पत्नी का निधन उनके छोटे बेटे की मृत्यु को दो माह बाद ही हो गया था. अपने बेटे की आकस्मिक मृत्यु ने माँ को बिलकुल तोड़ दिया था. पत्नी के देहांत के बाद उनका मन पूरी तरह उखड़ गया था.
उनके चार बेटे थे. बड़े बेटे शुरू से ही काम में उनका हाथ बटाते थे. सब से छोटा निठल्ला था. माता-पिता का लाड़ला भी था. पढ़ने में शुरू से ही तेज़ था. पर पिता के काम-काज में उसकी बिलकुल मन न लगता था. उसे तो बस कवितायें और कहानियाँ लिखना ही आता था. संगीत और कला में उसकी रूचि थी.
घनश्याम दास ने सारा काम बड़े बेटों पर छोड़ दिया. आरंभ में सब कुछ पिता के नाम पर ही चलता रहा. बीच-बीच में पिता से बेटे थोड़ी-बहुत राय लेते रहे. उनके हस्ताक्षरों की भी आवश्यकता रहती.
धीरे-धीरे बेटों ने सब कुछ अपने नाम कर लिया. अब पिता कुछ कहते तो बेटों को अच्छा न लगता. एक दिन सबसे बड़े ने कह ही दिया, ‘हम देख रहे हैं न सब कुछ तो आप इतनी छिकछिक क्यों करते हो. अब आप आराम करो. इस तरह बेकार की टोका-टाकी मत किया करो. अच्छा नहीं लगता.’
जिस दिन अंतिम कानूनी कार्यवाही भी पूरी हो गई उस दिन घनश्याम दास कोठी के पिछवाड़े बने एक कमरे में पहुँच गये. एक बेटे ने छोटा टीवी लगवा दिया, दूसरे ने एक नन्हा-सा फ्रिज, और तीसरे ने थोड़ा-सा फर्नीचर.
कुछ समय तक खाना कोठी से ही आता रहा, कभी पहली मंजिल से, कभी दूसरी से तो और कभी सबसे ऊपर वाली मंजिल से. पर ऐसा अधिक दिन न चला. कभी पहली मंजिल वाला खाना भेजना भूल जाता, कभी दूसरी वाला और कभी ऊपरी मंजिल वाला.
धीरे-धीरे उनकी देखभाल का दायित्व घर के पुराने नौकर पर आ गया. पर समस्या यह थी की खाने-पीने पर खर्च होने वाले पैसे कहा से आते.  नौकर की जितनी आमदनी थी उसमें उसका अपना ही खर्च कठिनाई से चलता था. उसने एक-दो बार सबसे बड़े बेटे से कहा भी था पर उसने उसकी बात अनसुनी कर दी थी.
घनश्याम दास को यह चिंता सताने लगी थी कि जीवन के अंतिम दिन कैसे काटेंगे. एक दिन नौकर ने यूँ ही कहा, ‘मालिक, अगर किसी की रेल में या सड़क पर दुर्घटना ही तो क्या सरकार मुआवजा नहीं देती?’
उसी दिन से घनशयाम दास मुआवज़े के लिए चक्कर लगाने लगे. उन्हें लगने लगा कि अगर मुआवजा मिल गया तो बाकि के दिन ठीक से कट जायेंगे.
‘क्या बेटे जानते हैं?’
‘उन्होंने ही तो मालिक के मन में यह बात बिठा दी है कि मुआवज़ा पाना उनका अधिकार है. अगर पूरी कोशिश करेंगे तो उन्हें अवश्य मुआवजा मिलेगा. उन्होंने ही कहा था कि सरकारी गाड़ी से दुर्घटना होने पर सरकार को मुआवज़ा देना ही पड़ता है. उसी विश्वास के कारण ही तो वह बार-बार चक्कर काट रहे हैं, कभी इस दफ्तर के तो कभी उस दफ्तर के.’
मैंने उठते-उठते पूछा, ‘तुम ने मुझे भीतर क्यों नहीं जाने दिया, घनश्याम दास जी से मिलने के लिये?’
‘सर, पहली मंजिल में बड़े बेटे रहते हैं. उन्हें अच्छा नहीं लगता अगर मालिक से मिलने कोई पिछले कमरे में जाये.’
मैं चलने लगा तो नौकर ने कहा, ‘सर, कुछ हो सकता है क्या?’
हवा की एक ठंडी लहर अचानक कहीं से आई और मुझे छू कर आगे निकल गई. एक पल को लगा की इस सर्द हवा में हड्डियाँ भी जम जायेंगी. आस-पास लगे पेड़ भी थोड़ा सिहर गये. कुछ सूखे पत्ते पेड़ों से झड़ कर इधर-उधर बिखर गये.
मैं कोई उत्तर न दे पाया और चुपचाप वहां से चल दिया.

©आइ बी अरोड़ा 

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