Sunday, 9 August 2015

बूढ़ा गड़ेरिया (एक प्रेत कथा) (अंतिम भाग)

जब हम वहां से जाने के लिए तैयार हो गये तो गड़ेरिये ने पैसे मांगे. मैंने उसे दो सौ रुपये दिए. रूपए हाथ में ले कर वह जांच करने लगा. उसने मुझे घूर कर देखा और क्रोध भरी आवाज़ में कहा, ‘आप समझते हैं कि मैं मूर्ख हूँ, एक देहाती गंवार हूँ.’
‘आप कह क्या रहे हैं? आपने दो सौ रुपये मांगे थे और हम उतने ही दे रहे हैं,’ यह बात टिम्मी ने कही पर थोड़ी कठोर वाणी में.
‘आप मुझे नकली रूपए क्यों दे रहे हैं,’ उसने चिल्ला कर कहा और रुपये मेरे हाथ में थमा दिए.
‘आप को कुछ भ्रम हो रहा है, यह नकली रूपये नहीं हैं, सब असली हैं,’ मैंने रूपये लौटाते हुए कहा.
‘लेकिन किसी पर भी किंग जॉर्ज का चित्र नहीं है?’
‘अरे बाबा, देश आज़ाद हो चुका है, लगभग पच्चीस वर्ष हो गये. किंग जॉर्ज अब इस देश पर राज नहीं करते, न ही उनके चित्र हमारे रुपयों पर हैं,’ टिम्मी ने कहा और खिलखिला कर हंस दिया.
गड़ेरिया ने रूपये रख लिए पर वह संतुष्ट न लग रहा था. वह संदेह की दृष्टि से हमें देख रहा था.
‘अगर गेस्ट हाउस का चौकीदार लौट कर न आया तो क्या आज रात भी हम आपके यहाँ रुक सकते हैं?’ चलते-चलते मैंने पूछा.
‘देखेंगे,’ उसने बड़े अनमने ढंग से कहा.
हमने अपनी पदयात्रा शुरू की. सारी यात्रा बहुत ही मनोरम और मन को लुभाने वाली थी. कई जगह हम घास के मैदान से गुज़रे; कहीं बर्फ समान ठंडे पानी की धारा में चल कर गये; एक-दो जगह बर्फ के ऊपर भी चल  कर जाना पड़ा, ऐसी बर्फ जिस के नीचे पानी की धारा बह रही थी.
यात्रा के अंतिम चरण में पहाड़ के ऊपर सीधा चढ़ना पड़ा. यह चढ़ाई कठिन और थका देने वाली थी. परन्तु जैसे ही हम ऊपर पहुंचे, सामने का दृश्य देख कर रोमांचित हो गये. झील की एक झलक पाते ही सारी थकान एक पल में दूर हो गई.
कोंसर नाग झील देश की सुन्दरतम झीलों में से एक है. झील के तीन ओर ऊंचे और भव्य हिम शिखर हैं. झील विशाल है और दूर का किनारा तो दिखाई भी नहीं देता. उस झील की सुन्दरता शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती. इतने वर्षों बाद भी जब में उस दृश्य की कल्पना करता हूँ तो सिहर जाता हूँ.
दो मित्रों ने झील के बर्फ समान ठंडे पानी में डुबकी लगाई. बाकी ऐसा करने का साहस न कर पाये. हमने पानी की कुछ बूंदे ही अपने पर डाल लीं और कहा कि हमने भी स्नान कर लिया है. हम लगभग दो घंटे तक वहां रुके.
कोई वापस न आना चाहता था. पर जैसे ही कहीं से आकर बादल आकाश के घेरने लगे, हम चल दिए. हम जानते थे कि सूरज डलने से पहले ही हमें गेस्ट हाउस पहुंचना होगा.
जल्द ही वर्ष थम गई और हम सब मस्ती में झूमते आगे बढ़ते गये. अब तक हम बूढ़े गड़ेरिया को भूल चुके थे. पर जैसे ही हम कोंगवतन के निकट पहुँचे टिम्मी ने कहा, ‘मुझे वह रहस्यमयी बूढ़ा गड़ेरिया बहुत अच्छा लगा था. एक शानदार कुटिया में ठाठ से रहने वाला एक गरीब गड़ेरिया. ज़ायकेदार गरमागरम खाना जो उसकी अदृश्य बीवी ने पकाया था उसका तो कहना ही क्या. मित्रों, क्यों न आज की रात भी हम उसी रहस्यमयी कुटिया में रहें?’
‘मेरा विचार है कि हमें वन विभाग के गेस्ट हाउस में रुकना चाहिये,’ मैंने कहा.
‘अगर चौकीदार लौट कर न आया हुआ तो?”
‘वहां पहुँच कर सोचेंगे कि क्या करना है.’
चौकीदार लौट आया था. हमने गेस्ट हाउस में ही रुकने का निर्णय लिया. चौकीदार ने कहा कि वह रात के खाने का प्रबंध कर देगा. हमने उसे कुछ रूपए दिए और वह खाने का प्रबंध करने चल दिया.
जब हम लोग खाना खाने बैठे तो टिम्मी ने चौकीदार से कहा, ‘तुम भी हमारे साथ खा लो.’
चौकीदार तुरंत मान गया.
‘अब तुम्हारी तबीयत कैसी है?’ मैंने चौकीदार से पूछा.
‘मुझे क्या हुआ है, भला-चंगा हूँ,’ उसने उत्साह के साथ कहा.
‘तुम बीमार थे और अपने गाँव चले गये थे,’ मैंने पूछा.
‘अरे नहीं साहब, मैं तो अपने दोस्त से मिलने गया था, एक रात के लिए.’ उसका उत्तर सुन हम सब चौंक पड़े और एक दूसरे की ओर देखने लगे.
‘उधर झोंपड़ी में जो बूढ़ा गड़ेरिया रहता है उसे तुम जानते हो?’ टिम्मी ने पश्चिम की ओर संकेत करते हुए पूछा.
‘कौन सी झोंपड़ी? कौन सा गड़ेरिया? यहाँ आसपास तो कोई झोंपड़ी नहीं है.’
हम सब के हाथ और मुहं एक साथ रुक गये. कुछ पलों तक कोई कुछ न बोला. एक आशंका धुंध समान हर ओर फ़ैल गई.
‘उधर पश्चिम में जो पेड़ों का झुण्ड है उसके पीछे एक झोंपड़ी है. वहां एक बूडा गड़ेरिया रहता है. हम पिछली रात वहीँ रहे थे,’ मैंने कहा पर मेरी आवाज़ हल्की सी थरथराहट थी.  
‘उसने हमारे लिए चावल और मटन करी का प्रबंध भी किया था, हमने उसे दो सौ रूपए दिए थे. अगर तुम आज न लौटते तो हम आज भी वहीँ रुकते,’ टिम्मी ने कहा.
चौकीदार के चेहरे का रंग उड़ गया. उसने कुछ न कहा और एक ओर रखे लकड़ी के पुराने संदूक में कुछ ढूँढने लगा. उसने सन्दुक में से कुछ निकाला और उस वस्तु को मेरी आँखों के सामने बढ़ा दिया. पल भर को में समझा न कि वह क्या था. फिर थोड़ा संभल कर देगा तो पाया कि वह एक पुरानी फोटो थी. यह उसी बूढ़े गड़ेरिये की फोटो थी.
‘क्या आप इस आदमी से मिले थे?’ उसकी आवाज़ भय से कांप रही थी.
‘हां,’ मेरी आवाज़ में भी एक कम्पन था.
‘ऐसा कैसे हो सकता?’ यह एक प्रश्न था या एक वक्तव्य मैं समझ न पाया.
‘क्यों?’ टिम्मी ने पूछा.
‘यह तस्वीर मेरे दादा की है, उन्हें मरे हुए तो कई वर्ष हो गये.’
कुछ समय तक कोई कुछ न बोला.
‘उसका प्रेत होगा. आपने उसके प्रेत को देखा होगा,’ चौकीदार ने धीमी आवाज़ में कहा.
उस घड़ी चौकीदार स्वयं भी एक प्रेत के समान लग रहा था. पर हमें समझ न आ रहा था कि चौकीदार सच कह रहा था या हमें मूर्ख तो नहीं बना रहा था. मैंने गौर से उसके चेहरे की ओर देखा; वह बहुत डरा हुआ लग रहा था. परन्तु उसकी आँखें निष्प्राण लग रही थीं.
‘मैं सोने जा रहा हूँ. आप बर्तन बाहर रख देना. मैं रसोईघर में ही सोऊंगा. मैं सदा वहीं सोता हूँ.’
उसके जाते ही टिम्मी ने कहा, ‘कल उस गड़ेरिये ने भी ऐसी बात कही थी. क्या यह दोनों मिले हुए हैं? हमें मूर्ख बना रहे हैं?’
किसी ने भी उसकी बात का उत्तर न दिया. हम चुपचाप खाना खाते रहे पर अब खाने में कोई स्वाद न रहा.
अगली सुबह जब हम जाने लगे तो चौकीदार को बुलाया. पर वह गेस्ट हाउस में न था. हमने उसे हर जगह ढूंढा पर वह कहीं न मिला.
‘क्या उसके लौटने की प्रतीक्षा करें?’ मैंने पूछा.
‘हम पैसे पहले ही दे चुके हैं. उसकी प्रतीक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं, अब हमें यहाँ से चल देना चाहिये.’ रिहान ने कहा.
‘क्यों न एक बार हम उस पेड़ों के झुण्ड की ओर जाएँ? देखें तो सही कि वहां कोई झोंपड़ी है भी या नहीं,’ यह बात हारून ने कही.
टिम्मी को यह सुझाव अच्छा लगा परन्तु रिहान और जोगी यहाँ जाने को तैयार न थे. हारून और टिम्मी का कहना था कि हमें पता लगाना ही होगा कि सच क्या था. अंत में सब उस ओर जाने को तैयार हो गये. परन्तु जैसे ही हम पश्चिम दिशा की ओर गये तो देखा कि उस ओर तो पेड़ों के कई झुण्ड थे.
‘मुझे लगा था की इस ओर पेड़ों का एक ही झुण्ड था. उस रात तो अन्य झुण्ड दिखाई न दिए थे,’ मैंने अपने मित्रों से कहा.
‘मुझे लगता है कि वह झोंपड़ी उस झुण्ड के पीछे थे,’ टिम्मी ने एक झुण्ड की ओर संकेत करते हुए कहा.
हम लोग उस झुण्ड के निकट पहुंचे पर वहां कोई झोंपड़ी न थी.
‘शायद उस झुण्ड के पीछे हो?’ टिम्मी ने एक दूसरे झुण्ड की ओर संकेत करते हुए कहा.
‘हमें लौट जाना चाहिये, हम व्यर्थ में समय गवां रहे हैं,’ रिहान ने चीख कर कहा.
उसके लहज़े ने सब को चौंका दिया. हम लोगों के बीच बुझीबुझी सी चर्चा हुई और हम वापस चल दिए. वापसी यात्रा सुखद और बिना किसी अवरोध के पूरी हुई, पर सारा समय हम एक उलझन से घिरे रहे. कुछ था जो हमारी समझ के परे था. हम  न खुल कर बात कर पा रहे थे न खुल कर हंस पा रहे थे.
अहरबल बस स्टैंड पर अच्छी भीड़ थी. हम पाँचों को छोड़ सभी देहाती थे जो आसपास के गाँव से आये हुए थे. हम चुपचाप बस के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे. तभी टिम्मी ने मेरे कान में फुसफुसा कर कहा, ‘उधर देखो, पेड़ के नीचे कौन खड़ा है?’
भय की एक तरंग टिम्मी से निकल कर मेरे भीतर समा गई. मैंने उस ओर देखा जिस ओर टिम्मी ने संकेत किया था. पेड़ के नीचे बूढ़ा गड़ेरिया था. वह एकटक हम पाँचों को देख रहा था. धीरे-धीरे वह हमारी ओर आया. निकट आ कर उसने कहा, ‘क्या हुआ? कल रात आप आये नहीं? रात कहाँ बिताई?’
‘हम गेस्ट हाउस में रहे.’
‘ताला तोड़ दिया? तुम्हारे मित्र ने कोई आपत्ति न की?’
‘ताला क्यों तोड़ना था? चौकीदार लौट आया है, उसी ने हमें वहां ठहरने दिया. भोजन का भी प्रबंध किया, सिर्फ सौ रुपये में, आपकी तरह उसने हमें ठगा नहीं,’ यह बात टिम्मी ने कही.
बूढ़े गड़ेरिये ने हमें घूर कर देखा, वह धीमे-धीमे कुछ बड़बड़ा भी रहा था. हम समझ न पाये की वह क्या कह रहा था.
‘आप लोग ठीक तो हो न?’ उसने कहा.
‘क्यों? ऐसा क्यों कह रहे हो?’ रिहान ने पूछा.
‘आप समझ नहीं रहे. ऐसा नहीं हो सकता.’
‘क्यों?’
‘उस चौकीदार की तो चार दिन पहले ही मृत्यु हो गई थी. उसने अपनी बीमारी का इलाज ठीक से न कराया था. आप लोगों के जाने के बाद उसके गाँव से कोई आया था, उसी ने बताया. पर आप लोगों से वह कैसे मिला? क्या उसका भूत था? अवश्य ही उसका भूत होगा?’ इतना कह वह फिर से कुछ बड़बड़ाने लगा, ऐसे दुरूह शब्द उसके मुंह से निकल रहे थे जो हम समझ न पा रहे थे.
हम कुछ कहते या पूछते कि बस आ गई. भीड़ को देखते हुए, हम बस की ओर दौड़े. जैसे ही सब लोग चढ़ गये, बस चल दी. बस में बैठ कर मैंने गड़ेरिये को तलाशने का प्रयास किया. वह बस में न था.
श्रीनगर पहुँचते-पहुँचते टिम्मी अपने ऊधमी रूप में लौट आया था.
‘तो मित्रो, क्या लगता है तुम सब को? कौन थे वह दोनों विचित्र लोग? दोनों में से कौन भूत था और कौन नहीं? मुझे तो लगता है कि दोनों ने मिल कर हमें मूर्ख बनाया. नहीं?’
‘नहीं, ऐसा नहीं है, गड़ेरिया ही भूत था, तुमने उसकी आँखें देखीं थीं क्या? उसकी आँखें पूरी तरह निष्प्राण थीं,’ रिहान ने कहा.
‘भूत-प्रेत कुछ नहीं होते, हमें मूर्ख बनाया, दोनों ने,’  जोगी बोला.
‘उसकी झोंपड़ी का क्या हुआ? वह कैसे गायब हो गई?’ मैंने धीमे से कहा.
‘मेरे भोले और डरे हुए मित्रो, इन सारे प्रश्नों का उत्तर मेरे कैमरे में बंद है. भूल गये, मैंने सब की फोटो खींचे थे, उस रहस्यमयी कुटिया के भी. शीघ्र ही इस रहस्य से पर्दा हट जाएगा,’ टिम्मी ने शान से एक फिल्मी हीरो के अंदाज़ में कहा.
जब फोटो बन गये तो हम सब एक साथ फोटोग्राफर की दूकान पर गये.
‘इस कहानी का अंत क्या हुआ? अभी तक मुझे यह कहानी डरावनी कम और नाटकीय अधिक लगी है,’ मेरा मित्र अभी तक चुपचाप, बिना मुझे टोके, यह कहानी सुन रहा था. पर अब वह अपने को रोक न पाया और बोल पड़ा था.
‘कहानी का अंत जान कर तुम भी उतने आश्चर्यचकित हो जाओगे जितने हम हुए थे उस दिन.’
‘जल्दी बताओ, तस्वीरों ने क्या उस रहस्य से पर्दा हटाया.’
‘टिम्मी ने उस पूरी यात्रा के कोई सौ फोटो लिये थे अपने कैमरे से, लगभग सभी फोटो बहुत सुंदर थे, बस रहस्यमयी कुटिया के चित्र न बन पाये थे. फिल्म के कुछ भाग पूरी तरह खाली थे.’
‘सारे फोटो रात में लिए थे, शायद कैमरे की फ़्लैश ख़राब होगी?’
‘पर सुबह भी एक–दो फोटो खींचे थे.’
‘जो फोटो गेस्ट हाउस में लिए उस चौकीदार के, उनका क्या हुआ?’
‘तुम्हें जानकार आश्चर्य होगा कि वह फोटो भी ख़राब थे, गेस्ट हाउस तो दीख रहा था पर चौकीदार के फोटो पर काले-काले से धब्बे थे.’
‘क्या वह दोनों ही भूत थे?’
‘इसका निर्णय तो तुम्हें ही करना होगा, मैं तो आज तीस साल बाद भी यह तय नहीं कर सकता कि वहां हमारे साथ हुआ क्या.’
मेरा मित्र ऐसे देख रहा था जैसे मैंने उसे एक मनगढ़ंत कहानी सुनाई थी. पर मैं नहीं जानता था कि किस भांति मैं उसका संदेह दूर करूं.
(समाप्त)  
© आइ बी अरोड़ा 

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