Saturday, 8 August 2015

बूढ़ा गड़ेरिया (एक प्रेत कथा) (भाग 1)
‘नहीं, मैं नहीं मानता, भूत-प्रेत नहीं होते, सिर्फ मन का वहम है.’
‘तुम कुछ भी कहो, पर सत्य तो यही है कि भूत-प्रेत होते है.’
‘तुम तो इतने विश्वास से कह रहे हो की जैसे तुम किसी भूत से मिल चुके हो?’
‘मैं तुम्हें एक सच्ची कहानी सुनाता हूँ. जब......’
‘मुझे कोई कहानी नहीं सुननी, तुम बस मुझे इतना बताओ कि क्या तुम किसी भूत से मिले हो? क्या तुम ने कभी कोई प्रेत देखा है?’
‘तुम्हें मेरी कहानी सुनकर स्वयं तय करना होगा की क्या मैं किसी भूत से मिला था या नहीं.’
‘ऐसा ही है तो सुनाओ अपनी कहानी,’ मेरे मित्र के ऐसा कहने पर मैं उसे अपनी एक यात्रा का वृतांत सुनाने लगा.
बात उन दिनों की है जब मैं अमर सिंह कॉलेज में पढ़ता था. हमारे प्रिंसिपल सारे प्रदेश में अपने अनुशासन के लिए जाने जाते थे. अगर कोई विद्यर्थी जरा सी भी भूल कर देता तो वह उसे खूब डांटते थे, कभी-कभार तो अनुशासन भंग करने वाले लड़के की पिटाई भी कर देते थे. लड़के तो लड़के, प्रोफेसर और लेक्चरर भी उनसे डरते थे. कॉलेज का मेरा पहला वर्ष स्कूल से भी अधिक कठोर था.
परन्तु कॉलेज का दूसरा वर्ष मेरे विद्यार्थी जीवन का सबसे अच्छा काल था. हमारे अनुशासन-प्रिय प्रिंसिपल रिटायर हो गये थे. नए प्रिसिपल रिटायरमेंट की कगार पर खड़े थे. कॉलेज से अधिक अपने नए बन रहे घर में उनका ध्यान रहता था. परीक्षा यूनिवर्सिटी में नहीं कॉलेज में ही होनी थी, इस कारण कोई चिंता न थी. हमारा सारा समय मौज-मस्ती में बीतता था. हम मित्रों का एक दल था और हर माह हम कहीं न कहीं घूमने निकल जाते थे.
एक बार हम लोग पीर पंजाल के पहाड़ों में स्थित एक झील देखने के लिए पदयात्रा पर भी गये. हम पाँच मित्र थे. बस द्वारा हम लोग अहरबल पहुंचे. वहां अहरबल प्रपात के बिलकुल सामने एक गेस्ट हाउस है, रात वहीं रुके. गेस्ट हाउस पहुँचते-पहुँचते रात हो गई थी, हम प्रपात को देख न पा रहे थे, सिर्फ लगातार गिरते पानी की ध्वनी सुन पा रहे थे. परन्तु सुबह हम लोग जैसे ही गेस्ट हाउस से बाहर आये तो उस प्रपात को देख कर हम सब चकित हो गये, अहरबल प्रपात की सुन्दरता देखने योग्य थी.
सुबह आठ बजे ही हम पहाड़ पर चढ़ने लगे. हम जानते थे कि सात या आठ घंटे चढ़ाई करने के बाद ही हम कोंगवतन पहुंचेगे. वहां घास का एक बहुत सुंदर मैदान है. वन विभाग का छोटा-सा गेस्ट हाउस वहां पर है. हमारा विचार था कि अगर सम्भव हुआ तो रात हम उसी गेस्ट हाउस में बिताएंगे.
‘तुम्हारे प्रेत महाशय का इस कहानी में कब प्रवेश होगा? तुम्हारी अन्य बातों में मेरी कोई रुचि नहीं है,’ मेरे मित्र ने मुझे टोकते हुए कहा तो मैंने उसे डपट दिया और कहा कि उसे मेरी कहानी बिना मुझे टोके ही सुननी होगी.
पहाड़ पर चढ़ाई कठिन होती जा रही थी. मौसम का मिजाज़ भी बिगड़ रहा था. हम ने आधा रास्ता भी पार न किया था कि हल्की बूँदाबाँदी शुरू हो गई. फिर चारों ओर काले और घने बादल घिर आये और मुसलाधार वर्षा होने लगी, वर्षा से बचने के लिए हमें चट्टानों की ही आसरा मिला.
हम कोंगवतन पहुंचे तो शाम के पाँच बज रहे थे. वर्षा बंद हो चुकी थी. सूरज पहाड़ों की पीछे छिप हुआ था. दिन की डलते प्रकाश में सिर्फ वन विभाग का गेस्ट हाउस ही दिखाई दे रहा था. घास के उस मैदान में कहीं कोई और झोंपड़ी दिखाई न दे रही थी. कहीं कोई प्राणी भी दिखाई न दे रहा था. निकट बहती नदी की ध्वनी के अतरिक्ति कोई आवाज़ भी सुनाई न दे रही थी.
हम सब गेस्ट हाउस के भीतर आये. हम बहुत थक चुके थे, भूख भी लग रही थी, कुछ खा कर सोने का मन हो रहा था. परन्तु वहां पहुँच कर निराश ही हमारे हाथ लगी. गेस्ट हाउस के दरवाज़े पर ताला लगा हुआ था. आस-पास कोई भी न था जो हमें बता पाता कि चौकीदार कहाँ था.
पाँचों मित्रों में से कोई कुछ न बोला. सब गेस्ट हाउस के बरामदे में लेट गये. किसी की समझ न आ रहा था कि रात कैसे काटेंगे. खाने-पीने का थोड़ा सामान तो हम साथ लाये थे. परन्तु खुले आसमान के नीचे रात भर सोना संभव न था, रात में ठंड बढ़ जाती है, यह बात हम सब जानते थे.
थकान के कारण हम सब बरामदे में लेटे-लेटे कब सो गये हमें पता ही न चला. परन्तु हम शायद पन्द्रह-बीस मिनट ही सोये होंगे कि मैंने एक अजीब आवाज़ सुनी. मैं हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ. मेरे मित्रों ने भी वह आवाज़ सुनी थी और वह भी उठ बैठे थे.
हमने गेस्ट हाउस के निकट एक बूढ़े व्यक्ति को देखा. वही आदमी अपने मुंह से अजीब आवाज़ निकाल रहा था. शाम के धुंधले प्रकाश में वह थोड़ा भयानक दिखाई दे रहा था; वह एक प्रेत सा लग रहा था. इस समय सुंदर घास का वह मैदान डरावना प्रतीत हो रहा था.
हम लोगों की आहट सुन बूढ़ा आदमी हमारी ओर मुढ़ा. कई लमहों तक वह हमें एकटक घूर कर देखता रहा. फिर वह धीरे-धीरे आगे आया और संकोची वाणी में बोला,’ मेरी एक भेड़ खो गई है. मैं उसे ही बुला रहा हूँ.’
‘क्या आप जानते हैं कि यहाँ का चौकीदार कहाँ गया है? हम ने सोचा था कि आज की रात इसी गेस्ट हाउस में बिताएंगे. पर यहाँ तो ताला लगा है और आस-पास कोई भी नहीं है,’ मैंने उस से कहा.
‘आप लोग क्या कोंसरनाग झील जा रहे हो? आप सब को सुबह बहुत जल्दी चढाई शुरू करनी पड़ेगी. सूरज डलने से पहले ही आप को यहाँ वापस आना होगा.’
‘हम ऐसा ही करेंगे, परन्तु आप बता सकते हैं कि चौकीदार कहाँ है?’
‘मुझे लगता है कि वह बीमार है. नहीं, मैं जानता हूँ कि वह बीमार है, बहुत बीमार. कुछ रोज़ पहले वह अपने गाँव चला गया था. उसे लग रहा था कि गेस्ट हाउस में रुकने के लिए कोई भी न आयेगा.’
‘हम क्या करें? हम यहाँ बाहर तो रात नहीं बिता सकते.’
‘ताला तोड़ डालो.’
‘नहीं, ऐसा करना अपराध होगा,’ यह बात हारून ने कही थी, वह नियम-कानून पर चलने वाला व्यक्ति था.
‘तुम लोग चाहो तो मेरे झोंपड़े में रह सकते हो, पर मुफ्त नहीं. इसके लिए तुम्हें पैसे देने होंगे.’
‘कितना देना होगा?’ यह प्रश्न टिम्मी ने किया था, हम सब में वह खूब तेज़-तर्रार था.
‘सिर्फ सौ रूपए दे देना, लेकिन अगर तुम्हें खाना भी चाहिये तो दो सौ देने होंगे.’
‘यह सरासर ठगी है, हम पचास से अधिक देंगे और तुम्हें खाना भी खिलाना पड़ेगा,’ टिम्मी थोड़ा चिल्ला कर बोला.
‘और खाने में हमें चावल और मटन-करी चाहिये,’ यह बात हारून ने विनम्रता से कही .
‘दो सौ से एक रुपया भी कम नहीं.’
“लेकिन आपकी झोंपड़ी है कहाँ?’ मैंने पूछा.
‘झोंपड़ी वहां है, उस पेड़ों के झुंड के पीछे,’ बूढ़े व्यक्ति ने गेस्ट हाउस के पश्चिम में स्थित पेड़ों के एक झुंड की ओर संकेत करते हुए कहा.
‘मुझे तो कोई झोंपड़ी वहां दिखाई नहीं दे रही,’ मैंने दब्बी आवाज़ में कहा.
‘अगर तुम लोग नहीं आना चाहते तो तुम्हारी इच्छा,’ इतना कह बूढ़ा गड़ेरिया धीरे-धीरे चल दिया. वह पेड़ों के झुंड की ओर ही जा रहा था.
हम लोग जानते थे की उसकी बात मानने के अतिरिक्त हमारे पास कोई रास्ता न था. हम सब थके हुए थे और गर्मा-गर्म मटन-करी और चावल खा कर सो जाना चाहते थे. हम सब ने एक-दूसरे की ओर देखा. सब की आँखे एक ही बात कह रही थीं,
हम सब उस गड़ेरिये के पीछे चलने लगे. उसने पीछे मुड़ कर हमें देखा और मुस्कुरा दिया. मुझे उसकी मुस्कराहट थोड़ी रहस्यमयी थी या मुझे सिर्फ भ्रम हो रहा था, मैं तय न कर पाया.
पेड़ों का झुंड दूर न लग रहा था, परन्तु था वह बहुत दूर. जब तक हम वहां पहुंचे अँधेरा हो चुका था. पेड़ों से छिपी उस गड़ेरिया की झोंपड़ी देख कर हम सब को बहुत निराशा हुई.
झोंपड़ी जर्जर अवस्था में थी. उसे देख कर तो ऐसा लगा कि वहां कोई न रहता होगा. हम सब ने एक-दूसरे को देखा पर कोई कुछ बोला नहीं.
‘आप सब यहाँ रुको, मैं ज़रा लालटेन जला लूँ.’ इतना कहा वह भीतर चला गया. कुछ ही पलों के बाद झोंपड़ी की खिडकियों और दरवाज़े से होकर प्रकाश की लहरें बाहर आकर हमें आकर्षित करने लगीं.
भीतर आकर हम थोड़ा चौंक गये. झोंपड़ी उतनी छोटी न थी जितनी छोटी हम समझे बैठे थे. आश्चर्यजनक बात यह थी कि भीतर बहुत कुछ था और सब कुछ आकर्षक था और हर वस्तु सुचारू ढंग से रखी हुई थी.
‘यह किसी गरीब व्यक्ति की कुटिया तो नहीं लगती?’ हारून ने धीमे से कहा.
टिम्मी को छोड़ बाकि सब की आँखों में यही प्रश्न झलक रहा था. टिम्मी तो उस झोंपड़ी की तस्वीरें लेने में मग्न था. उसी का पास कैमरा था. उसने बूढ़े गड़ेरिये की भी फोटो ली. परन्तु गड़ेरिये को उसका ऐसा करना अच्छा न लगा था. उसने घूर कर टिम्मी को देखा और क्रोध भरी वाणी में कहा, ‘तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये था.’
इतना कह गड़ेरिया दनदनाता हुआ झोंपड़ी से बाहर चला गया. उसके इस व्यवहार ने हम सब को आश्चर्य में डाल दिया.
‘इसे क्या हुआ? मैंने ऐसा क्या कर दिया जो इसे इतना क्रोध आ गया? देखूं तो सही वह गया कहाँ है,’ टिम्मी ने कहा और गड़ेरिये के पीछे-पीछे झोंपड़ी के बाहर चला गया.
‘क्या तुम्हें नहीं लगता की यह गड़ेरिया कुछ अजीब प्राणी है?’ हारून ने कहा.
‘यह झोंपड़ी भी तो अचरज में डालती है. बाहर से देखने पर लगता है कि जैसे कोई खंडहर हो. परन्तु भीतर की बात ही निराली है. यह तो जैसे किसी रईस की कुटिया लगती है,’ रिहान ने कहा.
‘हमें इस से क्या लेना-देना है, हमें यहाँ एक रात रुकना है, इस आरामदायक कुटिया में मज़े से सोयेंगे, अब खाना अच्छा और गरमागरम मिल जाये तो नींद भी अच्छी आ जायेगी,’ मैंने वातावरण को हल्का करने के लिए, अपनी शंका को छिपाते हुए, यह बात पूरे उत्साह के साथ कही.
‘क्या पता यह कोई पहाड़ी लुटेरा हो? हमें चौकस रहना पडेगा,’ जोगी बोला.
‘क्या पता वह एक प्रेत ही हो और यह कुटिया एक प्रेत-कुटिया हो? अरे, क्यों उस गरीब आदमी पर संदेह कर रहे हो. आज अगर वह हमारी सहायता न करता तो उस गेस्ट हाउस के बरामदे में बिना खाने के सो रहे होते. यहाँ रातें कितनी ठंडी होती हैं इसका तुम्हें अंदाज़ा नहीं है,’ मैंने कहा.
तभी टिम्मी बाहर से आया. वह बहुत घबराया हुआ था, ‘यहाँ कोई भी नहीं है, न कोई आदमी, न कोई पशु.’
‘गड़ेरिया कहाँ गया? आस-पास ही होगा?’ मैंने कहा.
‘वह कहीं नहीं है. मैंने हर जगह देख लिया है, इस समय इस झोंपड़ी में हमारे अतिरिक्त कोई नहीं है,’ टिम्मी बोला.
‘शायद वह खाने का प्रबंध करने गया हो?’ अब मुझे भी घबराहट होने लगी थी.
हम सब थोड़ा आशंकित थे, थोड़ा घबराए हुए थे. परन्तु प्रतीक्षा करने के अतिरिक्त हम कुछ न कर सकते थे. टिम्मी कुटिया के चित्र लेता रहा. अनचाहे ही हम सब अपनी घबराहट को छिपाने के लिए ऊँची-ऊंची आवाज़ में बात कर रहे थे.
लगभग एक घंटे बाद बूढ़ा गड़ेरिया आया.
‘खाना तैयार है. क्या आप अभी खाना चाहेंगे?’ उसने बहुत ही रुखी आवाज़ में पूछा.
‘हाँ, हम सब को भूख लगी हुई है, खाना ले आओ.’
वह खाना ले आया. खाना वही था जो हम चाहते थे, चावल और मटन-करी. खाना गरमागरम और स्वादिष्ट था.
‘आप भी हमारे साथ खा लो,’ टिम्मी ने कहा.
‘नहीं, मैं यह खाना नहीं खा सकता.’
‘क्यों?’ हम सब ने एक साथ पूछा. हम सब ने एक साथ खाना बंद कर दिया.
‘यह खाना बहुत अच्छा है पर मैं मांस नहीं खाता,’ उसने बिना किसी भाव के यह बात कही.
‘यह तो बड़े अचरज की बात है, यहाँ तो सभी मांस खाते हैं,’ मुझे उस पर संदेह होने लगा था.
वह चुप रहा, मुझ से कोई तर्क न किया.
‘क्या यह सब तुमने पकाया है?’ टिम्मी ने पूछा.
‘अरे नहीं, यह तो मेरी बीवी है जो इतना अच्छा और लज़ीज़ खाना बनाती है. उसी ने सब पकाया है.’
‘पर यहाँ तो कोई नहीं है, मैंने स्वयं जा कर देखा था, मुझे तो कोई दिखाई न दिया था,’ टिम्मी ने उसे घूरते हुए कहा.
‘सब यहीं हैं, अब मुझे जाना है. आप जूठे बर्तन बाहर रख देना,’ इतना कह वह चल दिया. उसकी झुंझलाहट साफ दिखाई दे रही थी.
‘तुम भी यहीं भीतर सो जाओ, हमें कोई आपत्ति न होगी,’ मैंने कहा.
‘नहीं, मैं रसोईघर में सोता हूँ, हमेशा,’ उसने जाते-जाते कहा.
‘रसोईघर कहाँ है?’ टिम्मी ने चिल्ला कर पूछा. पर उसे कोई उत्तर न मिला.
हम सब ने सारा खाना तो खा लिया पर अब एक अजीब सी शंका ने हम सब को घेर लिया था. अनचाहे ही हम सब किसी अनहोनी की प्रतीक्षा कर रहे थे. लेकिन अधिक देर तक प्रतीक्षा न कर पाये. एक-एक कर सबने थकान के आगे घुटने टेक दिए.
दरवाज़े पर हो रही खटखटाहट सुन मेरी नींद टूटी. मैंने झट से दरवाज़ा खोला और बाहर आया. बाहर बूढ़ा गड़ेरिया था.
‘आप लोग अभी तक जागे नहीं? मैंने कहा था कि आपको सूरज डलने से पहले ही वापस आना होगा. आप को अभी ही अपनी यात्रा शुरू करनी होगी. रास्ता लंबा है और चढ़ाई कठिन. अगर आप ने और देर कर दी तो लौटते समय दिक्कत होगी,’ उसने लगभग आदेश देते हुए कहा.

मैंने देखा कि सुबह कब की हो चुकी थी और हम सच में बहुत देर तक सोये रहे थे. मैंने उसे धन्यवाद कहा और अपने साथियों को जगाने के लिए भीतर आया. पर भीतर आने से पहले मैंने बूढ़े गड़ेरिया का चेहरा ध्यान से देख. वह बहुत ही बूढ़ा था, पर सबसे अजीब थी उसकी आँखे, उसकी आँखे बिलकुल भावहीन थीं, उसकी आँखे एक मृत आदमी की आँखों जैसी लग रही थीं. मैं सिहर गया.
© आइ बी अरोड़ा 

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