Monday, 19 December 2016

एटीएम् की लाइन में
बेटे ने आकर सूचना दी कि पिछली मार्किट में लगे एसबीआई के एटीएम् में रूपये भरे जा रहे हैं, अभी लाइन छोटी ही है, रूपये लेने हैं तो जाकर लाइन में लग जाएँ. हमने पूछा, क्या तुम्हें रूपये नहीं निकालने? उत्तर मिला, मेरे पास माँ है (अर्थात कार्ड है, पेटीएम् है), समस्या आप जैसे लोगों की है.
हम चुपचाप लाइन में लगने चल दिए. पर आँखों के सामने कोई और ही दृश्य था.
माँ ने कहा था, पड़ोसन ने बताया है कि बटमालू (उन दिनों हम श्रीनगर में थे) के एक डिपो में मिटटी का तेल आया हुआ है, झटपट दौड़ो और तेल ले कर आओ.  हम आठवीं में थे, परीक्षा कुछ दिनों बाद ही शुरू होने वाली थी. पर हम एक प्लास्टिक कनस्तर उठा कर चल पड़ थे. ऐसा नहीं कि बटमालू बगल में था. पर इस बात की चिंता न माँ को थी, न हमें.
अपनी मस्ती में चलते, लगभग घंटे बाद, ढूँढते-ढांढते तेल के डिपो पहुंचे.  डिपोवाला ने कहा, तेल तो कल आया था और कल ही खत्म हो गया था. हम पूरी तरह हतोत्साहित हो गए थे. हमारी रोनी सूरत देख डिपोवाला बोला, उधर हाई स्कूल के पीछे भी एक डिपो है. वहां आज तेल आयेगा, वहां चले जाओ.
हम इस दुविधा में खड़े रहे कि पहले घर जाकर माँ को बताएं या सीधा दूसरे डिपो जाएँ. विचार आया कि तेल तो चाहिए ही, दुबारा इतनी दूर आने के बजाय अभी ही कोशिश कर लेते हैं. हम दूसरे डिपो आ गए. देखा लाइन में करीब तीस-चालीस लोग थे. हिम्मत कर लाइन में लग ही गए. डेढ़-दो घंटे लाइन में लगने के बाद पाँच लीटर तेल ले कर हम ऐसे लौटे जैसे की परीक्षा( जो सर पर ही थी) में प्रथम आये थे.
ऐसा एक बार नहीं हुआ था. बीसियों बार तेल की लाइन में लगे हैं (दिल्ली आने के बाद भी).  चीनी की लाइन में लग चुके हैं, चावल की लाइन में लग चुके हैं (श्रीनगर में लोग आटा बहुत कम खाते हैं इसलिए आटे की लाइन में नहीं लगना पड़ता था).
चीनी की लाइन का भी एक किस्सा है. प्रति सदस्य आठ सौ ग्राम चीनी मिलती थी. दो-तीन प्रयास करने के बाद एक दिन चीनी की लाइन में खड़ा होना भी सार्थक हुआ. पर हमें इस बात का अंदाज़ ही न था की थैले में एक छेद है. हम थैला पकडे इतमीनान  से चलते रहे, इस बात से पूरी तरह बेखबर कि चीनी धीरे-धीरे गिरती जा रही थी. घर के निकट पहुँच कर ही हमें इस बात का अहसास हुआ कि थैले में तो आधी ही चीनी बची थी. घर पर माँ ने हमारी कैसे खबर ली इसका ब्यान करना उचित नहीं.
रेलवे की टिकट के लिए कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे लाइन में लगे उस पर कई लेख लिखे जा सकते हैं. पर सबसे रोचक किस्से तो लिखे जा सकते हैं भीखाजी कामा प्लेस में स्थित पासपोर्ट ऑफिस के. आप गलत अनुमान लगा रहे हैं, मैंने अपना पासपोर्ट अभी तक नहीं बनवाया, साहस ही नहीं कर पा रहा. अपने बेटों के साथ गया था, उन्हें अपने पासपोर्ट बनवाने थे, मैं सहायता करने के लिए (लाइन में लगने के लिए) साथ गया था. वहां पर अलग-अलग लाइनों में लगने के बाद भी जब काम न बना तो पासपोर्ट अधिकारी से ही उलझना पडा था, दोनों बार.
सबसे हास्यास्पद किस्सा तो तब हुआ जब माँ ने करवाचौथ का व्रत रखना था और मुझे जम्मू की एक ख़ास दूकान से सरगी के लिए फेनियाँ लाने को कहा था. तब शायद मैं छट्टी कक्षा में था. दूकान बंद थी और बंद दूकान के बाहर कोई पचास लोग घेराबंदी कर के खड़े थे. मैं फेनियाँ ले ही आया था, पर जैसे लाया था वह अपने आप में एक कहानी है.
राहुल जी आश्रय चकित हैं कि हमें अपना ही पैसे लेने के लिए लाइन में लगना पड़ता है. वो बेचारे क्या जाने कि इस देश के नब्बे प्रतिशत से भी अधिक लोग कहीं न कहीं, किसी न किसी लाइन में लग चुके हैं और हरेक कुछ रोचक किस्से उन्हें सुना सकता है.

एटीएम् की लाइन धीरे-धीरे बढ़ ही रही है. हमें पूरा विश्वास है कि आज फिर हम परीक्षा में प्रथम आयेंगे.   

Saturday, 17 December 2016

कौन भरता है मेरा बिजली का बिल?
आज पिछले माह का बिजली का बिल मिला. मैं अकसर बैंक से मैसेज आते ही  बिजली का बिल ऑनलाइन भर देता हूँ. बिल बाद में आता है और यूँ ही पड़ा रहता है. आज बिल पहले आ गया तो थोडा ध्यान से देखा.  
बिल है 937 रूपये का, पर मुझे सिर्फ 603 रुपये देने हैं. सरकार की ओर से 334 रूपये की सब्सिडी मिली है. उत्सुकता हुई और पिछले माह का बिल भी खोज निकाला. पिछले माह बिल था 1378 रूपये का, पर मैंने सिर्फ 839 रूपये ही अदा किये थे. मुझे 539 रूपये की सब्सिडी मिली थी. अर्थात पिछले दो महीनों में मैंने 2313 रूपये की बिजली इस्तेमाल की पर मुझे सिर्फ 1442 रूपये देने पड़े. लगभग 38% सब्सिडी  मिली.
मन में सवाल खड़ा हुआ कि बाकि के 873 रूपये कहाँ से आये. इतना तो निश्चित है कि यह सब्सिडी की राशि कोई मंत्री या मुख्य मंत्री अपनी जेब से तो दे नहीं रहा होगा. न ही कोई राजनीतिक पार्टी अपने पार्टी फंड से दे रही होगी. इसका बोझ तो अंततः देश की जनता पर ही पड़ता होगा.
एक रिपोर्ट के अनुसार 2013 में देश में 30% लोग ऐसे थे जो दिन में 130 रुपए से कम खर्च पर अपना जीवन निर्वाह कर रहे थे. स्थिति में कोई ख़ास परिवर्तन आया होगा ऐसा लगता नहीं. आज भी लगभग एक-तिहाई लोग इस गरीबी रेखा के नीचे होंगे. जो लोग इस गरीबी रेखा के ऊपर हैं उन में से भी अधिकाँश लोग सिर्फ दो वक्त की रोटी ही जुटा पाते हैं. पर इन सब लोगों को हर वस्तु और सेवा पर कर देना पड़ता है. देश की सब सरकारें एक वर्ष में कोई पन्द्रह लाख करोड़ का अप्रत्यक्ष कर (indirect tax) इकट्ठा कर लेती हैं. उलेखनीय है कि सिर्फ एक प्रतिशत लोग ही प्रत्यक्ष कर (direct tax)  देते हैं. उनमें से भी कितने लोग सही टैक्स देते हैं इसका अनुमान लगाना कठिन है.
बिजली पर जो सब्सिडी सरकार देती है उसका अधिकाँश बोझ उन लोगों पर ही पड़ता है जो गरीबी रेखा के नीचे हैं या जो गरीबी रेखा के नीचे तो नहीं हैं पर जो जीवन यापन के लिए जीवन भर एक अथक परिश्रम करते हैं. गरीबों के दिए टैक्स से सम्पन्न लोगों को सब्सिडी देना कहाँ तक उचित है ऐसा सोचना कोई सरकार अपनी ज़िम्मेवारी नहीं समझती. न ही किसी नेता मी आत्मा उसे कचोटती है.
पर सबसे अन्यायपूर्ण बात तो यह है कि गरीबों के पैसे से यह सब्सिडी उन कई लोगों को दी जाती है जो अपना बिल चुकाने में पूरी तरह सक्षम हैं. इतना ही नहीं इन लोगों में से कई लोग ऐसे हैं जो वर्षों से अपना इनकम टैक्स भी सही दर पर नहीं चूका रहे.  
ऐसा सब कुछ गरीबों के नाम पर ही होता है. इस देश का दुर्भाग्य ही है कि कुछ चालाक लोग गरीबों के नाम पर देश की सम्पदा को उपभोग करते रहे हैं और करते रहेंगे. शायद इसी कारण इन राजनेताओं को गरीब लोग इतने प्रिये हैं.


Tuesday, 4 October 2016

“फ़र्ज़ी” सर्जिकल स्ट्राइक्स
अरविन्द केजरीवाल, संजय निरुपम, चिदंबरम वगेरा ने भारतीय सेना की पी ओ के में की गयी कार्यवाही को लेकर तरह-तरह के ब्यान दिए हैं. निरुपम ने तो इन स्ट्राइक्स को “फर्जी” तक करार दे दिया है. अब कुछ लोग यह तर्क दे रहे हैं कि उन्हें सेना पर पूरा विश्वास है लेकिन पाकिस्तान के दुष्-प्रचार का जवाब देने के लिए सरकार को इस कार्यवाही की विडियो जारी कर पाकिस्तान को करारा जवाब देना चाहिये.
तर्क के लिए मान भी लेते हैं कि यह सभी महानुभाव पाकिस्तान के दुष्-प्रचार से बहुत दुःखी हैं और इन्हें बहुत चिंता हो रही है कि ऐसे दुष्-प्रचार से सेना की आन-बान-शान को बहुत क्षति पहुंचेगी. पर इन लोगों ने यह कैसे मान लिया कि भारत की सरकार या सेना द्वारा जारी किये गए किसी भी वीडियो को पाकिस्तान सही मान लेगा और स्वीकार कर लेगा कि भारत की सेना ने सफलतापूर्वक सीमा पार कर कई आतंकवादियों को मार गिराया.
अलग-अलग आतंकवादी हमलों के जो भी सबूत पाकिस्तान को अब तक दिए गए थे क्या उन सब को पाकिस्तान ने सच मान कर उन पर कोई कार्यवाही की? चिदंबरम केंद्र में मंत्री रह चुके हैं उन्हें तो इतनी समझ होनी चाहिए कि पाकिस्तान किसी भी सबूत को सही नहीं मानेगा. क्योंकि सही मान लेना का अर्थ होगा यह मान लेना कि पाकिस्तान आतंकवादियों को संरक्षण दे रहा है. और अपनी सेना की पराजय भी स्वीकारनी होगी.   
ऐसे सर्जिकल स्ट्राइक्स के वीडियो या सबूत किसी भी देश की सेना जारी नहीं करती. पाकिस्तान को अगर यह वीडियो मिल जाएँ तो इन वीडियो को विश्लेषण कर उसकी सेना जान सकती है कि भारत की सेना ने किस प्रकार के हथियार इस्तेमाल किये, किस प्रकार के उपकरण वह साथ लाये, कैसी योजना थी, कैसी तैयारी थी और क्या इन स्ट्राइक्स में कोई कमज़ोरियाँ थीं जिसे समझ कर भविष्य में होने वाली स्ट्राइक्स का प्रतिकार की योजना बन सके.
आश्चर्य है की सत्ता में बैठे लोग भी इस हद तक गिर सकते हैं. सुना है कि आज केजरीवाल पाकिस्तान के समाचार पत्रों में छाये हुए हैं. कल शायद निरुपम, अजय आलोक  और चिदम्बरम उन अखबारों की सुर्खियाँ बनेगें. पाकिस्तान के जिस दुष्-प्रचार का एक करारा जवाब यह नेता सरकार और सेना से चाहते हैं उस प्रचार को इन सब ने ही तो प्रसांगिक बना दिया है.
आज हर मीडिया चैनल पर इसी की तो चर्चा हो रही है. पाकिस्तान के दुष्-प्रचार की सबसे बड़ी सफलता तो यही है की हम स्वयं ही अपनी सेना की कार्यवाही पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं. अगर इससे सेना का मनोबल गिरता है तो पाकिस्तान अपने उद्देश्य में सफल ही माना जाएगा.
राजनेता समझें न समझें, हर देशवासी को समझना होगा कि सेना की ऐसी किसी कार्यवाही का ब्यौरा जारी नहीं किया जाता. हमारी सरकार और सेना को पाकिस्तान के दुष्-प्रचार का नहीं बल्कि उसके द्वारा पोषित आतंकवाद का करारा जवाब देना है.
इन तथाकथित नेताओं के दबाव में आकर सरकार को ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहिए जिससे हमारी सेना की शक्ति या मनोबल में कमी आये. 
  

Monday, 5 September 2016

अरविन्द केजरीवाल की नई राजनीति
‘आप’ के एक विधायक ने अरविन्द केजरीवाल को पत्र लिख कर कहा है कि उन्हें लोगों को बताना चाहिए की हमारा[ अर्थात आम आदमी पार्टी का] विश्वास है की हम राजनीति को बदल देंगे.
आज से लगभग २५०० वर्ष पहले प्लेटो ने कहा था की जब तक दार्शनिक राजा नहीं बनते या वह जिन्हें हम राजा मानते हैं दार्शनिक नहीं बन जाते तब तक प्रजा की मुसीबतों का अंत नहीं हो सकता. प्लेटो के समय से लेकर आज तक कोई विरला ही देश होगा जहां कोई दार्शनिक राजा बना होगा. राजनीति सदा से सत्ता का खेल रही है और रहेगी. जो लोग यह समझते है की वह राजनीति को बदलने के लिए राजनीति में आये हैं वह सिर्फ एक भ्रम पाल रहे होते हैं. राजनीति सदा एक जैसी होती है बस उसका दिखावा अलग-अलग हो सकता है.
एक समय था जब गद्दी पाने के लिए एक व्यक्ति हज़ारों लोगों का लहू बहा देता था. औरंगजेब ने तो अपने सभी भाइयों को मार डाला, अपने पिता को भी कैदी बना लिया था. आज भी ग़रीब ही मरता है. करोड़ों रूपए एक विधायक के चुनाव पर खर्च हो जाते हैं, इसका बोझ तो आम आदमी ही उठाता है. केजरीवाल सरकार ने अपना प्रचार करने के लिए दिल्ली सरकार के जो पैसे खर्च किये वह कहाँ से आये? लोगों ने टैक्स भरा तभी वह अपनी छवि सुधारने के लिए इतना व्यय कर पाए. अधिकतर यह वह लोग हैं जो दो वक्त की रोटी पाने के लिये और अपना परिवार पालने के लिए हर दिन १२  से १५ घंटे परिश्रम  करते हैं. ऐसा कठोर परिश्रम उन्हें जीवनभर करना पड़ता है.
फिर चुनावों में जो हिंसा होती है उसमें भी तो गरीब ही मरता है. न कोई राजनेता मरता है न ही कोई अभिजात्य वर्ग का व्यक्ति.
क्या बदल सकते हैं केजरीवाल? क्या वह अपने को बदल पाए हैं? क्या अपने अन्य नेताओं को बदल पाए हैं? क्या उन में इतनी समझ आ गई है कि आन्दोलन चलाना एक बात होती है और सरकार चलाना अलग बात? ऐसा लगता तो नहीं है.
जब वह अपने को नहीं बदल पाए तो राजनीति कैसे बदलेंगे?  अरविन्द केजरीवाल को समझना होगा कि सत्ता की अपनी जिम्मेवारियां होती हैं जिन्हें समझ और विवेक के साथ निभाना पड़ता है. जिस राजनेता के मन में सत्ता जिम्मेवारी का अहसास उपजा नहीं पाती वह राजनेता कभी भी समाज या संस्थाओं को सही ढंग से नहीं बदल पायेगा.
अगर सत्ता में बैठे लोग संस्थाओं का, नियम कानून का, परम्पराओं का सम्मान नहीं करते तो धीरे-धीरे समाज का भी इन संस्थाओं और नियमों से विश्वास उठ जाता है. समाज और संस्थाओं के बदलने के लिए असीम समझ और धैर्य की आवश्यकता होती है क्योंकि किसी भी ढांचे को एक पल में गिरा देना सरल होता है पर उसके पुनर्निर्माण धीरे-धीरे ही हो पाता है .
सत्ता किस तरह एक राजनेता को जिम्मेवार और व्यवहारिक बना देती है इसका उत्कृष्ट उदहारण लिंकन है. अपनी इन्हीं खूबियों के बल पर वह, दास प्रथा समाप्त कर, अमरीका में एक ऐतिहासिक  परिवर्तन ला पाए.

कभी-कभी लगता है कि दिल्ली वालों ने इतनी बड़ी जीत देकर ‘आप’ के साथ अन्याय ही किया है. ‘आप’ के नेताओं को लगने लगा है की नई दिल्ली के सिंहासन तक पहुंचना बहुत ही सरल है इस कारण सब थोड़ा उतावले हो रहे हैं. पर इस देश की राजनीति २०-२० का क्रिकेट मैच नहीं है. उतावलापन हानिकारक हो सकता है ‘आप’ के लिए. अगर ‘आप’ के नेता अपने को बदल लेंगे तो राजनीति स्वयं ही बदल जायेगी.

Monday, 22 August 2016

क्यों नहीं जीत पाये हम ओलंपिक स्वर्ण पदक
फिर एक बार अंतर्राष्ट्रीय खेलों में हमारा प्रदर्शन निराशाजनक रहा. एक रजत और एक कांस्य पदक पाकर भारत ने ओलंपिक पदक तालिका में ६७ स्थान पाया है.
हर बार की भांति इस मुद्दे पर खूब बहस होगी, शायद कोई एक-आध  कमेटी भी बनाई जाये. लेकिन आशंका तो यही है कि चार वर्षों बाद, टोक्यो ओलंपिक  की समाप्ति पर, हम वहीँ खड़े होंगे जहां आज हैं.
कई कारण हैं कि हम लोग खेलों में कभी भी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाये. खिलाड़ियों के लिए सुविधाओं की कमी है, अच्छे कोच नहीं हैं, जो बच्चे व युवक-युवतियां खेलों में आगे बढ़ने का साहस करते भी हैं उन के लिए जीविका का प्रश्न सामने आकर खड़ा हो जाता है. अधिकतर स्पोर्ट्स एसोसिएशंस  के कर्ता-धर्ता वह लोग हैं जिनका खेलों से कोई भी नाता नहीं है.
पर मेरा मानना है कि अगर सुविधाओं में सुधार हो भी गया और अन्य  खामियों को भी थोड़ा-बहुत दूर कर दिया गया तब भी  खेलों के हमारे प्रदर्शन में आश्चर्यजनक सुधार नहीं होगा.
किसी भी खेल में सफलता पाने के लिए दो शर्तों का पूरा करना आवश्यक होता है.
पहली शर्त है, अनुशासन. हर उस व्यक्ति के लिए, जो खेलों से किसी भी रूप में जुड़ा हो, अनुशासन का पालन करना अनिवार्य होता है. दिनचर्या में अनुशासन, जीवनशैली में अनुशासन, अभ्यास में अनुशासन. अगर संक्षिप्त में कहें तो इतना कहना उचित होगा कि अपने जीवन के हर पल पर खिलाड़ी का अनुशासन होना अनिवार्य है तभी वह सफलता की कामना कर सकता है.
दूसरी शर्त है टीम स्पिरिट की भावना. अगर आप टीम के रूप में खेल रहें हैं तो जब तक हर खिलाड़ी के भीतर यह भावना नहीं होगी तब तक सफलता असम्भव है. और अगर कोई खिलाड़ी अकेले ही खेल रहा तब भी अपने कोच वगेरह के साथ एक सशक्त टीम के रूप में उसे काम करना होगा.
अब हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या तो यह ही है कि अनुशासन के प्रति हम सब का रवैया बहुत ही निराशाजनक है. एक तरह से कहें तो अनुशासनहीनता हमारे जींस में है. अगर हम वीआइपी हैं तो अनुशासन की अवहेलना करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार बन जाता है. अगर हम वीआइपी नहीं भी हों तब भी हम लोग अनुशासन के प्रति उदासीन ही रहते हैं. चाहे टिकट काउंटर पर कतार में खड़े होने की बात हो या समय पर दफ्तर पहुँचने की, चाहे सड़क पर गाड़ी चलाने की बात हो या फूटपाथ पर कूड़ा फैंकने की, अनुशासन की प्रति हमारा अनादर हर बात में झलकता है.
टीम स्पिरिट की भी हम में बहुत कमी है. घर में चार भाई हों तो वह भी मिलकर एक साथ नहीं रह पाते. किसी दफ्तर में चले जाओ, वहां आपको अलग-अलग विभागों ओर अधिकारियों में रस्साकशी चलती दिखाई पड़ेगी. पार्लियामेंट में जीएसटी बिल एकमत से पास हुआ तो उसे एक ऐतिहासिक घटना माना जा रहा है. अन्यथा जो कुछ वहां होता है वह सर्वविदित है.
अनुशासन और टीम स्पिरिट ऐसी भावनाएं हैं जो सुविधाओं वगेरह पर निर्भर नहीं हैं, यह एक समाज की सोच पर निर्भर हैं. जिस तरह जापान विश्वयुद्ध के बाद खड़ा हुआ वह उनकी सोच का परिचायक है. हाल ही में एक भयंकर सुनामी के बाद जो कुछ हुआ हम सबके लिए एक संकेत है. इस विपदा से त्रस्त हो कर रोने-धोने के बजाय सब लोग उससे बाहर उभरने के लिए एक साथ जुट गए.

क्या अगले चार वर्षों में अनुशासन की भावना हम में उपज जायेगी? क्या इन चार वर्षों में जीवन के हर क्षेत्र में हम एक टीम की भांति काम करना शुरू कर देंगे? ऐसा लगता नहीं. चार वर्षों बाद भी पदक तालिका में हम कहीं नीचे ही विराजमान होंगे, और हर टीवी पर चल रही गर्मागर्म बहस का आनंद ले रहे होंगे.

Friday, 5 August 2016

अरविंद केजरीवाल की जंग
अरविंद केजरीवाल की सरकार और एल जी के बीच चल रही तनातनी को लेकर दिल्ली की उच्च न्यायालय ने अपना निर्णय दे दिया है. उच्च न्यायालय का निर्णय अरविंद केजरीवाल विनम्रता से स्वीकार कर लेंगे ऐसा सोचना भी गलत होगा. वैसे भी इस निर्णय को चुनौती देना उनका और उनकी सरकार का संवैधानिक अधिकार है, सुप्रीम कोर्ट का निर्णय ही शायद उन्हें संतुष्ट कर पाए.
एक बात उन्हें और हर नागरिक को समझनी होगी कि प्रजातंत्र एक ऐसी व्यवस्था होती है जहां सरकारें संविधान के अंतर्गत चलती हैं. ऐसे निज़ाम में व्यक्ति विशेष उतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितनी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थाएं होती हैं. संविधान और उसके अंतर्गत बने सब नियम, कानून, कार्यविधि वगैरह ही एक प्रजातंत्र को प्रजातंत्र बनाये रखते हैं. अन्यथा कोई भी प्रजातंत्र किसी भी समय  तानाशाही में परिवर्तित हो सकता है.
सभी परिपक्व प्रजातंत्रों में तो अलिखित परम्पराओं (constitutional conventions) का भी लोग उतना ही सम्मान करते हैं जितना सम्मान वह लिखित संविधान और कायदे-कानून का करते हैं.  उदाहरण के लिए स्विट्ज़रलैंड की बात करें, वहां फेडरल सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति एक चुनाव द्वारा होती है, उम्मीदवार के पास किसी प्रकार का कानूनी प्रशिक्षण होने का कोई लिखित विधान नहीं है, लेकिन परम्परा के अनुसार वहां विधिशास्त्र में पारंगत और जाने-माने विधिवेत्ता ही सुप्रीम कोर्ट के जज चुने जाते हैं. इस परम्परा को तोड़ने की बात उस देश में कोई सोच भी नहीं सकता.
हर प्रजातन्त्र में ऐसा यह सम्भव है कि किसी नागरिक की या किसी संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति की किसी नियम कानून को लेकर अपनी अलग धारणा हो. समय के साथ नए नियम-कानून की भी आवश्यकता उठ खड़ी होती है. परन्तु पुराने नियम बदलने की और नए कानून बनाने की अपनी एक संवैधानिक प्रक्रिया होती है जो न चाहते हुए भी हर एक को अपनानी पड़ती है. अगर ऐसा न होता तो क्या मोदी सरकार आते ही जी एस टी (GST) लागू न कर देती?
पर जब तक कोई कानून संवैधानिक प्रक्रिया द्वारा बदल नहीं दिया जाता या चुनौती देने पर किसी न्यायालय द्वारा रद्द नहीं कर दिया जाता तब तक उसका पालन करना हर एक का कर्तव्य है. चुनी हुई सरकारें संविधान और संवैधानिक संस्थाओं का जितना सम्मान करेंगी उतना ही प्रजातंत्र मज़बूत होगा और आम लोगों का भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में विश्वास पैदा होगा.
आश्चर्य की बात यह है कि अरविंद केजरीवाल एक सिविल सर्विस अधिकारी रह चुके हैं, और एक सिविल सर्विस अधिकारी के लिए यह सब  समझना बहुत ही सरल होना चाहिए. एक बात और उन्हें समझनी होगी; अगर मुख्यमंत्री के पद पर बैठ कर वह किसी नियम-कानून का पालन अपनी समझ और व्याख्या की अनुसार करना चाहतें तो क्या ऐसा अधिकार वह हर एक को देने को तैयार हैं? 

हमारा प्रजातंत्र अभी बहुत पुराना नहीं है इसलिए अभी लोगों की आस्था इसमें कच्ची है. अच्छी संवैधानिक परम्परायें स्थापित करने में हमारे नेताओं की कोई अधिक रूचि नहीं रही है. देश के कितने ही ज़िलों में लोग अपना भाग्य बदलने के लिए वोट के बजाय बंदूक का सहारा ले रहे हैं. ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि हमारे नेता लोगों के सामने ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करें जिसका अनुकरण करने की प्रेरणा आम आदमी को भी मिले.   

Thursday, 4 August 2016

आज़म खान की आलोचना क्यों?
आश्चर्य है कि जब एक राजनेता सत्य बोलता है तो अन्य राजनेता उसकी आलोचना करना शुरू कर देते हैं. क्या उन्हें यह भय लगता है कि जनता उन सब का असली चेहरा पहचान जायेगी?
बुलंदशहर में घटी दुखद घटना के सन्दर्भ में आज़म खान ने  कहा कि इस देश में सत्ता पाने के लिए राजनेता किसी भी स्तर तक जा सकते हैं, वह हत्याएं करवा सकते हैं, दंगे करवा सकते हैं, निर्दोष लोगों को मरवा सकते हैं. इस कारण आज़म खान को लगता है कि बुलन्दशहर की घटना साज़िश हो सकती है.
बुलन्दशहर में जो घटा उस पर कोई टिप्पणी करना असभ्य और अनुचित होगा. लेकिन जो कुछ आज़म खान ने  कहा उसे पूरी तरह नकार देना गलत होगा. आज़म खान एक अनुभवी नेता हैं, राजनीति और राजनेताओं को अवश्य ही करीब से देखा है. उनके अपने व्यक्तिगत अनुभव भी रहे होंगे जो वह ऐसी बात कह रहे हैं. हालांकि अपने को  और सपा को वह साफ़ पाक ही मानते हैं और उनका इशारा विरोधियों की ओर है. ऐसी बात कह कर अपनी सरकार की खामियों से भी लोगों का ध्यान भटकाना चाहते हैं और कुछ हद तक सफल भी  हो गए हैं. पर उनकी बात काल्पनिक नहीं है.
A D R की रिपोर्ट के अनुसार २०१६ चुनावों के बाद केरल, पुदुचेर्री, पश्चिम बंगाल, तमिल नाडू और असम में जो विधायक चुने गए हैं उन में से ३६% ऐसे हैं जिनके विरुद्ध किसी न किसी तरह के अपराधिक मामले हैं. यह संख्या चौकाने वाली न लगती हो क्यों कि इससे पहले भी ऐसे लोग विधान सभाओं में आते रहे हैं. उत्तर प्रदेश में ही शायद यह संख्या ४६% थी, ऐसा कहीं पढ़ा था. कई वर्ष पूर्व एक समाचार पत्र की रिपोर्ट में लिखा था की आंध्र प्रदेश के एक मुख्य मंत्री लाशों का ढेर पार कर के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे.

चीन और भारत की प्रगति के सम्बन्ध में लिखे अपने एक लेख में गुरुचरण दास ने कहा था की जहां एक ओर चीन की पार्लियामेंट में ४०% सदस्य technocrats वहां भारत की संसद में लगभग ४०% सदस्य ऐसे हैं जिनके खिलाफ किसी न किसी न किसी प्रकार के अपराधिक मामले हैं. अगर चीन भारत से आगे निकल गया है तो आश्चर्य क्यों.
ऐसे लोगों को राजनीतिक पार्टियां चुनाव क्यों खड़ा करती हैं? हो सकता कुछ ऐसे गिने-चुने लोग हों जिनके विरुद्ध दर्ज किये मामले झूठे हों, पर सभी के सभी लोग पाक-साफ़ होंगे ऐसा नहीं है. ऐसे अपराधियों को विधान सभा या संसद में चुनाव में खड़ा करने का कोई तो कारण होगा. मेरी समझ में तो इसका दो ही कारण हो सकते हैं. एक, ऐसे लोग पैसे के बल चुनाव में खड़े होते हैं, पैसे के बल पर पार्टियों से टिकट खरीदते हैं. दूसरा, यह लोग किसी न किसी रूप में पार्टियों को उपयोगी लगते हैं. शायद यह लोग वही काम करते हैं जिस की ओर आज़म खान ने इशारा किया है.
आज तक किसी भी सरकार ने राजनीति से अपराधियों को दूर करने का कोई प्रयास नहीं किया और न ही कोई कानून बनाया. अभी तक एक भी पार्टी ने स्वेच्छा से यह निर्णय नहीं लिया कि सिर्फ साफ़ छवि के व्यक्तियों को चुनाव में टिकट दिया जाएगा.
अब कोई सुधार आएगा तो उसके लिए आम आदमी (आप नहीं) को ही कोई पहल करनी होगी. ऐसे लोगों का बहिष्कार करना होगा जो अपराधिक प्रष्ठभूमि से हैं और उन लोगों को चुन कर विधान सभाओं और संसद में भेजना होगा जिनके विरुद्ध अपराधिक मामले न हों. अगर सभी उम्मीदवारों के विरुद्ध मामले हों तो ऐसे चुनाव का बहिष्कार करना ही उचित होगा.

आप के लिए यह जानना अनिवार्य है कि जिस व्यक्ति का पुलिस में कोई भी अपराधिक रिकॉर्ड होता है वह सरकारी चपरासी भी नहीं बन सकता. ऐसा व्यक्ति संसद या विधान सभा या पंचायत के लिए कैसे योग्य हो सकता है?

Tuesday, 2 August 2016

क्या सत्य बोल रही हैं आनंदीबेन
गुजरात की मुख्यमंत्री ने त्यागपत्र दे दिया है. उनका कहना है कि वह शीघ्र ही ७५ वर्ष की हो जायेंगी. अत: वह अपनी ज़िम्मेवारियों से मुक्त होना चाहती हैं. उनकी जगह किसी कम उम्र के राजनेता को मुख्यमंत्री का पद सम्भालना चाहिये. अगले चुनाव तक नए मुख्यमंत्री को उचित समय मिलना चाहिये ताकि वह पार्टी का ठीक से नेतृत्व कर पाए.
मीडिया और विश्लेषकों की जो प्रतिक्रिया हुई है उससे ऐसा लगता है कि इस त्यागपत्र का असली कारण कुछ और है.
हो सकता है कि मीडिया और विश्लेषकों का संदेह सही हो. पर आज हम ऐसी स्थिति में आ चुके हैं कि हम किसी भी राजनेता की किसी बात को सत्य नहीं मानते. आज लगभग हर राजनेता की विश्वसनीयता न के बराबर है. लोगों को न तो उनके कथन पर कोई विश्वास है और न ही उनके वायदों पर.
ऐसी स्थिति के लिए राजनेता स्वयं ही जिम्मेवार हैं.
पिछले ७० वर्षों में कोई विरला ही राजनेता रहा होगा जो अपनी इच्छा से सक्रिय राजनीति से पूरी तरह अलग हुआ होगा. अधिकतर राजनेता तब तक राजनीति में सक्रिय रहे जब तक उनके  जीवन की डोर टूट न गई (पंडित नेहरु, एम जी आर, मुफ़्ती सईद वगेरा ऐसे कुछ नाम आपको स्मरण होंगे) या जब तक की लोगों ने उन्हें नकार नहीं दिया.
ऐसे कई नेता थे, और आज भी हैं, जिन्हें लोगों ने तो नकार दिया पर उन्हें उनकी पार्टियों ने बैकडोर से राजनीति में बनाये रखा. वह राज्यसभा के सदस्य बनाये गये, राज्यसभा के लिए मनोनीत कर दिए गए, राज्यों में राज्यपाल नियुक्त किये गए.
हर नेता का प्रयास रहा है की राजनीति में रहते-रहते अपने परिवार के किसी सदस्य को अपना उत्तराधिकारी बना दे. लोकसभा में कांग्रेस के कई सदस्य राजनीतिक परिवारों से है. दूसरी पार्टियों में भी ऐसे कई सदस्य हैं जो राजनीतिक परिवारों से हैं. सपा के सभी सदस्य परिवार के हैं.
नीति या विचारधारा की चिंता किये बिना, सत्ता के लिए, जिस तरह पार्टियाँ एक दूसरे के साथ गठबंधन करती रही हैं उस पर तो अब कोई चर्चा भी नहीं होती. स्थिति तो यहाँ तक आ पहुंची है कि एक ओर दो पार्टियाँ केंद्र में सत्ता के लिए एक साथ खड़ी होती हैं तो दूसरी ओर किसी राज्य में सत्ता पाने के लिए एक दूसरे के खिलाफ. ऐसे में लोग किस का और किस पर विश्वास करें.
एक तरह से देखा जाये तो विचारधारा हमारी राजनीति में एक बे मायने  शब्द बन चूका है. हर पार्टी और हर नेता की एक ही विचारधारा है, किसी भी भांति सत्ता पाना और सता पा कर सत्ता में बने रहना.

ऐसे में कौन विश्वास करेगा कि आनंदीबेन अपनी इच्छा से सत्ता का त्याग कर रही हैं. 

Monday, 1 August 2016

ट्रैफिक जाम
कल था सड़कों पर भयंकर जाम
क्योंकि
बारिश नहीं ले रही थी रुकने का नाम.
हर जगह था पानी इकट्ठा
रास्ता हो या गड्ढा. 
फंसे रहे थे हम रात भर
गाड़ियों की भीड़ में.
कोसते अपने को और उनको
जिनको वोट दिए थे अपने.
आज फिर फंसें हैं
हम गाड़ियों की भीड़ में.
नहीं साहिब,
आज रास्तों और गड्ढों में
नहीं भरा पानी. 
आज उतर आये हैं
सड़कों पर 
वह लोग जिन्हें
वोट नहीं दिए थे अपने.
वह सब हो रहे हैं
हमारी परेशानियों से परेशान
वह सब चिल्ला रहे हैं,
जब तक
‘सडकों पर लगते रहेंगे जाम
तब तक
चैन से न बैठेंगे,
उतर आयेंगे सड़कों
पर सुबह हो या शाम’.
हम समझ नहीं पा रहे,
कब से फंसें हैं
और कब तक फंसे रहेंगे

गाड़ियों की भीड़ में. 

Thursday, 28 July 2016

विरासत
बनवारी लाल जी बहुत परेशान हैं.
कड़े संघर्ष के उपरान्त वह वहां पहुंचे हैं जहां देश के इक्का-दुक्का लोग ही अपने बल-बूते पर पहुँच पाते हैं. उन्होंने कितने कष्ट उठाये, कितना बलिदान दिया इसका अनुमान हर कोई नहीं लगा सकता; पर अंततः वह प्रदेश के मुख्यमंत्री बन ही गए थे. लेकिन आज नई समस्या खड़ी हो गयी है.
आप गलत सोच रहे हैं, प्रधान मंत्री ने उनके और उनके विश्वस्त लोगों को मरवाने की कोई साजिश अभी तक नहीं रची है. न ही उनकी पार्टी के किसी सदस्य को जेल भेजा गया है. वैसे बनवारी लाल जी ने मन ही मन कई बार ईश्वर से प्रार्थना की है कि किसी तरह उनका नाम भी प्रधान मंत्री के नाम के साथ जुड़ जाये और टीवी और समाचार पत्रों में उनकी भी उतनी ही चर्चा हो जितनी दिल्ली के मुख्यमंत्री की होती है. पर ऐसा सौभाग्य उन्हें अभी प्राप्त नहीं हुआ.
बनवारी लाल अपने इकलौते बेटे के कारण परेशान हैं. उसने कहा है कि वह राजनीति से दूर रहेगा.
उसकी बात सुन बनवारी लाल जोर से हंस पड़े थे. उन्हें लग रहा था कि बेटा मज़ाक कर रहा था. अगले ही पल उन्हें अहसास हुआ की वह गम्भीर था.
‘तुम जानते भी हो कि क्लर्क बनने के लिए भी व्यक्ति में कुछ योग्यता होनी चाहिये. पाँच रिक्तियां होती हैं और पचास हज़ार उम्मीदवार आ जाते है. परीक्षा, इंटरव्यू, मेडिकल टेस्ट और पता नहीं क्या-क्या. और सबसे महत्वपूर्ण बात, पुलिस में रिकॉर्ड साफ़ होना चाहिए. तब जाकर आदमी एक अदना सा क्लर्क बनता है. यहाँ तुम बैठे-बिठाये मुख्यमंत्री बन सकते हो’.
‘बन सकता हूँ, पर मुझे यह सब मंज़ूर नहीं.’
‘अरे ना-समझ, देखो अपने आसपास, ऐसे-ऐसे लोग मंत्री, मुख्यमंत्री बन गए हैं जो ढंग से दो लफ्ज़ भी नहीं बोले पाते. तुम तो इतने पढ़े-लिखे, सुलझे विचारों वाले लड़के हो. तुम जैसे लोगों की ही देश को आवश्यकता है.’
‘मैं प्रशासनिक सेवा में जाउंगा.’
‘सपने देखना अच्छा होता है, पर यथार्थ को समझना आवश्यक होता है.’
‘मैं प्रयास तो कर सकता हूँ.’
‘अरे, तुम मेरी समस्या नहीं समझ रहे, अगर तुम पीछे हट गए तो मुझे विवश हो कर इतवारी के बेटे को अपना उत्तराधिकारी बनाना पड़ेगा. आठवीं फेल है. पचासों ममाले दर्ज हैं.’ इतवारी उनकी पत्नी का लाड़ला भाई है. उनके हर विरोधी का उचित समाधान उसने ही किया था.
‘यह निर्णय तो लोग करेंगे.’
‘लोग ही तो चाहते हैं की मेरे परिश्रम का फल मेरा परिवार भोगे. सब कह रहे हैं कि अगले चुनाव से पहले तुम्हें पार्टी का अध्यक्ष बना दिया जाये. फिर चुनाव के बाद तुम मुख्यमंत्री का पद भी सम्भाल लो.’

‘आप किसी और को चुन लें'. इतना कह बेटा चल दिया था. अब बनवारी लाल परेशान हैं कि अपनी विरासत किसे सौंपे.

Monday, 25 July 2016

आनंद मंत्रालय
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री की पहल से प्रेरित हो कर एक अन्य राज्य के मुख्यमंत्री ने भी अपनी सरकार में ‘आनंद मंत्रालय’ बनाने का विचार किया.
वह झटपट अपने बड़े भाई के पास दौड़े. बड़े भाई जेल में बंद होते हुए भी पार्टी के अध्यक्ष थे, उन्हीं के आदेश पर मुख्यमंत्री सब निर्णय लेते थे. बड़े भाई ने सोच-विचार कहा की पत्नी (अर्थात बड़े भाई की पत्नी) से बात करो. पत्नी भारत सरकार में एक मंत्री के पद पर भी थीं.  लेकिन हर निर्णय वह अपने मामा की सलाह पर लेती थीं.
मामा बोले, अच्छा विचार है. बनवारी लाल बहुत परेशान रहते हैं, उन्हें मंत्री जो न बनाया था. यह मंत्रालय उन्हें सौंप दो.
बनवारी लाल जी मामा के चहेते थे पर बड़े भाई को फूटी आँख न सुहाते थे. मामा राजनीति के पुराने खिलाड़ी थे, जानते थे कि कम से कम बीस चुनाव क्षेत्रों में बनवारी लाल की पकड़ थी. साल भर में चुनाव होने वाले थे. कई पार्टियाँ बनवारी लाल को अपनी ओर खींच रहीं थीं. मुख्यमंत्री को बात जंच गयी. बनवारी लाल जी ‘आनंद मंत्री’ बन गए.
बड़े भइया ने सुना तो आग-बबुला हो गए. उधर बनवारी लाल भी अप्रसन्न थे. चुनाव सिर पर थे, साल भर ही मंत्री रह सकते थे. उन्हें पी डब्लू डी जैसा विभाग चाहिए था.  ‘आनंद मंत्री’ बन कर वह ‘कुछ’ न कर पायेंगे, इस बात का उन्हें अहसास था.
शाम कुमार को ‘आनंद मंत्रालय’ का सचिव नियुक्त किया गया. वह तीन वर्षों से बिना किसी कार्यभार के अपना समय काट रहे थे. न्यायलय ने आदेश दे रखा था कि उन्हें तुरंत किसी पद पर नियुक्त किया जाए. उनके बारे में प्रसिद्ध था कि कानून की हर किताब उन्होंने रट रखी थी. जिस भी मंत्री के पास उन्हें भेजा जाता था वह मंत्री चार दिनों में ही उनसे छुटकारा पाने को आतुर हो जाता था.
मंत्री जी के हर प्रस्ताव पर शाम कुमार मंत्री जी को बीसियों कायदे-कानून समझा देते थे. शांत चित भाव से वही करते थे जो उन्हें न्याय-संगत, तर्क-संगत, विधि-संगत, नियम-संगत और लोकोपकारी लगता था. मंत्री अपने बाल नोच लेते थे पर  शाम कुमार बड़े शांत स्वभाव से अपने काम में जुटे रहते थे. कोई भी मंत्री उन्हें उत्तेजित या क्षुब्द न कर पाया था.
शाम कुमार को अपने समक्ष पा कर बनवारी लाल के हाथ अपने सिर की ओर उठे. बहुत प्रयास के बाद ही वह अपने को अपने बाल नोचने से रोक पाए.
‘नया विभाग है, तुरंत नये कायदे-कानून बनाने होंगे, तभी तो हम राज्य के इन पीड़ित लोगों को आनंदित कर पायेंगे,’ शाम कुमार ने शांत लहजे में कहा.
‘कायदे-कानूनों की क्या कोई कमी हैं इस देश में जो आप को नए कानून बनाने की सूझ रही है? अगर लोगों के कष्टों को दूर करना है तो कुछ कायदे-कानून हटाने की सोचें. मिनिमम गवर्नेंस की बात करें,’ मंत्री ने थोड़ा खीज कर कहा.
‘कानून तो दूसरे विभागों के हटेंगे, हमारे विभाग के कानून तो बनाने होंगे. पहली बार यह विभाग बना है, कानून तो बनाने ही होंगे.............’
‘क्यों न हम अलग-अलग देश जाकर पता लगाएं कि वहां उन देशों में ऐसे मंत्रालय किस भांति चलते हैं, किस तरह वहां की सरकारें लोगों को आनन्द पहुंचातीं हैं?’ बनवारी लाल ने टोक कर कहा. वह दो बार मंत्री रह चुके थे लेकिन एक बार भी वह किसी विदेशी दौरे पर न जा पाए थे. कई नये-नये मंत्री तो दस-बीस देश घूम आये थे, परिवारों सहित. यह बात उन्हें बहुत खलती थी.
‘कुछ नये लोगों की भर्ती भी करनी होगी विभाग में,’ शाम कुमार अपनी धुन में बोले.
भर्ती की बात सुनते ही मंत्री के कान खड़े हो गये. बोले, ‘मेरी अनुमति के बिना एक भी आदमी भर्ती न हो.’
‘आप निश्चिंत रहें, इस विभाग में हर काम पूरी तरह नियमों के अनुसार ही होगा. भर्ती नियमों के अनुसार...............’ शाम कुमार भर्ती नियमों की एक लम्बी व्याख्या करने लगे. अब बनवारी लाल अपने को रोक न पाये और अपने बाल नोचने लगे. मन ही मन वह मुख्यमंत्री को कोस रहे थे.

बनवारी लाल और शाम कुमार को देख कर तो नहीं लगता कि यह मंत्रालय लोगों को कभी को भी आनंदित कर पायेगा. फिर भी मुख्यमंत्री और उनके बड़े भाई की पत्नी के मामा आनंदित हैं, शायद आने वाले तूफ़ान का उन्हें अभी आभास नहीं.