Monday, 22 August 2016

क्यों नहीं जीत पाये हम ओलंपिक स्वर्ण पदक
फिर एक बार अंतर्राष्ट्रीय खेलों में हमारा प्रदर्शन निराशाजनक रहा. एक रजत और एक कांस्य पदक पाकर भारत ने ओलंपिक पदक तालिका में ६७ स्थान पाया है.
हर बार की भांति इस मुद्दे पर खूब बहस होगी, शायद कोई एक-आध  कमेटी भी बनाई जाये. लेकिन आशंका तो यही है कि चार वर्षों बाद, टोक्यो ओलंपिक  की समाप्ति पर, हम वहीँ खड़े होंगे जहां आज हैं.
कई कारण हैं कि हम लोग खेलों में कभी भी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाये. खिलाड़ियों के लिए सुविधाओं की कमी है, अच्छे कोच नहीं हैं, जो बच्चे व युवक-युवतियां खेलों में आगे बढ़ने का साहस करते भी हैं उन के लिए जीविका का प्रश्न सामने आकर खड़ा हो जाता है. अधिकतर स्पोर्ट्स एसोसिएशंस  के कर्ता-धर्ता वह लोग हैं जिनका खेलों से कोई भी नाता नहीं है.
पर मेरा मानना है कि अगर सुविधाओं में सुधार हो भी गया और अन्य  खामियों को भी थोड़ा-बहुत दूर कर दिया गया तब भी  खेलों के हमारे प्रदर्शन में आश्चर्यजनक सुधार नहीं होगा.
किसी भी खेल में सफलता पाने के लिए दो शर्तों का पूरा करना आवश्यक होता है.
पहली शर्त है, अनुशासन. हर उस व्यक्ति के लिए, जो खेलों से किसी भी रूप में जुड़ा हो, अनुशासन का पालन करना अनिवार्य होता है. दिनचर्या में अनुशासन, जीवनशैली में अनुशासन, अभ्यास में अनुशासन. अगर संक्षिप्त में कहें तो इतना कहना उचित होगा कि अपने जीवन के हर पल पर खिलाड़ी का अनुशासन होना अनिवार्य है तभी वह सफलता की कामना कर सकता है.
दूसरी शर्त है टीम स्पिरिट की भावना. अगर आप टीम के रूप में खेल रहें हैं तो जब तक हर खिलाड़ी के भीतर यह भावना नहीं होगी तब तक सफलता असम्भव है. और अगर कोई खिलाड़ी अकेले ही खेल रहा तब भी अपने कोच वगेरह के साथ एक सशक्त टीम के रूप में उसे काम करना होगा.
अब हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या तो यह ही है कि अनुशासन के प्रति हम सब का रवैया बहुत ही निराशाजनक है. एक तरह से कहें तो अनुशासनहीनता हमारे जींस में है. अगर हम वीआइपी हैं तो अनुशासन की अवहेलना करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार बन जाता है. अगर हम वीआइपी नहीं भी हों तब भी हम लोग अनुशासन के प्रति उदासीन ही रहते हैं. चाहे टिकट काउंटर पर कतार में खड़े होने की बात हो या समय पर दफ्तर पहुँचने की, चाहे सड़क पर गाड़ी चलाने की बात हो या फूटपाथ पर कूड़ा फैंकने की, अनुशासन की प्रति हमारा अनादर हर बात में झलकता है.
टीम स्पिरिट की भी हम में बहुत कमी है. घर में चार भाई हों तो वह भी मिलकर एक साथ नहीं रह पाते. किसी दफ्तर में चले जाओ, वहां आपको अलग-अलग विभागों ओर अधिकारियों में रस्साकशी चलती दिखाई पड़ेगी. पार्लियामेंट में जीएसटी बिल एकमत से पास हुआ तो उसे एक ऐतिहासिक घटना माना जा रहा है. अन्यथा जो कुछ वहां होता है वह सर्वविदित है.
अनुशासन और टीम स्पिरिट ऐसी भावनाएं हैं जो सुविधाओं वगेरह पर निर्भर नहीं हैं, यह एक समाज की सोच पर निर्भर हैं. जिस तरह जापान विश्वयुद्ध के बाद खड़ा हुआ वह उनकी सोच का परिचायक है. हाल ही में एक भयंकर सुनामी के बाद जो कुछ हुआ हम सबके लिए एक संकेत है. इस विपदा से त्रस्त हो कर रोने-धोने के बजाय सब लोग उससे बाहर उभरने के लिए एक साथ जुट गए.

क्या अगले चार वर्षों में अनुशासन की भावना हम में उपज जायेगी? क्या इन चार वर्षों में जीवन के हर क्षेत्र में हम एक टीम की भांति काम करना शुरू कर देंगे? ऐसा लगता नहीं. चार वर्षों बाद भी पदक तालिका में हम कहीं नीचे ही विराजमान होंगे, और हर टीवी पर चल रही गर्मागर्म बहस का आनंद ले रहे होंगे.

Friday, 5 August 2016

अरविंद केजरीवाल की जंग
अरविंद केजरीवाल की सरकार और एल जी के बीच चल रही तनातनी को लेकर दिल्ली की उच्च न्यायालय ने अपना निर्णय दे दिया है. उच्च न्यायालय का निर्णय अरविंद केजरीवाल विनम्रता से स्वीकार कर लेंगे ऐसा सोचना भी गलत होगा. वैसे भी इस निर्णय को चुनौती देना उनका और उनकी सरकार का संवैधानिक अधिकार है, सुप्रीम कोर्ट का निर्णय ही शायद उन्हें संतुष्ट कर पाए.
एक बात उन्हें और हर नागरिक को समझनी होगी कि प्रजातंत्र एक ऐसी व्यवस्था होती है जहां सरकारें संविधान के अंतर्गत चलती हैं. ऐसे निज़ाम में व्यक्ति विशेष उतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितनी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थाएं होती हैं. संविधान और उसके अंतर्गत बने सब नियम, कानून, कार्यविधि वगैरह ही एक प्रजातंत्र को प्रजातंत्र बनाये रखते हैं. अन्यथा कोई भी प्रजातंत्र किसी भी समय  तानाशाही में परिवर्तित हो सकता है.
सभी परिपक्व प्रजातंत्रों में तो अलिखित परम्पराओं (constitutional conventions) का भी लोग उतना ही सम्मान करते हैं जितना सम्मान वह लिखित संविधान और कायदे-कानून का करते हैं.  उदाहरण के लिए स्विट्ज़रलैंड की बात करें, वहां फेडरल सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति एक चुनाव द्वारा होती है, उम्मीदवार के पास किसी प्रकार का कानूनी प्रशिक्षण होने का कोई लिखित विधान नहीं है, लेकिन परम्परा के अनुसार वहां विधिशास्त्र में पारंगत और जाने-माने विधिवेत्ता ही सुप्रीम कोर्ट के जज चुने जाते हैं. इस परम्परा को तोड़ने की बात उस देश में कोई सोच भी नहीं सकता.
हर प्रजातन्त्र में ऐसा यह सम्भव है कि किसी नागरिक की या किसी संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति की किसी नियम कानून को लेकर अपनी अलग धारणा हो. समय के साथ नए नियम-कानून की भी आवश्यकता उठ खड़ी होती है. परन्तु पुराने नियम बदलने की और नए कानून बनाने की अपनी एक संवैधानिक प्रक्रिया होती है जो न चाहते हुए भी हर एक को अपनानी पड़ती है. अगर ऐसा न होता तो क्या मोदी सरकार आते ही जी एस टी (GST) लागू न कर देती?
पर जब तक कोई कानून संवैधानिक प्रक्रिया द्वारा बदल नहीं दिया जाता या चुनौती देने पर किसी न्यायालय द्वारा रद्द नहीं कर दिया जाता तब तक उसका पालन करना हर एक का कर्तव्य है. चुनी हुई सरकारें संविधान और संवैधानिक संस्थाओं का जितना सम्मान करेंगी उतना ही प्रजातंत्र मज़बूत होगा और आम लोगों का भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में विश्वास पैदा होगा.
आश्चर्य की बात यह है कि अरविंद केजरीवाल एक सिविल सर्विस अधिकारी रह चुके हैं, और एक सिविल सर्विस अधिकारी के लिए यह सब  समझना बहुत ही सरल होना चाहिए. एक बात और उन्हें समझनी होगी; अगर मुख्यमंत्री के पद पर बैठ कर वह किसी नियम-कानून का पालन अपनी समझ और व्याख्या की अनुसार करना चाहतें तो क्या ऐसा अधिकार वह हर एक को देने को तैयार हैं? 

हमारा प्रजातंत्र अभी बहुत पुराना नहीं है इसलिए अभी लोगों की आस्था इसमें कच्ची है. अच्छी संवैधानिक परम्परायें स्थापित करने में हमारे नेताओं की कोई अधिक रूचि नहीं रही है. देश के कितने ही ज़िलों में लोग अपना भाग्य बदलने के लिए वोट के बजाय बंदूक का सहारा ले रहे हैं. ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि हमारे नेता लोगों के सामने ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करें जिसका अनुकरण करने की प्रेरणा आम आदमी को भी मिले.   

Thursday, 4 August 2016

आज़म खान की आलोचना क्यों?
आश्चर्य है कि जब एक राजनेता सत्य बोलता है तो अन्य राजनेता उसकी आलोचना करना शुरू कर देते हैं. क्या उन्हें यह भय लगता है कि जनता उन सब का असली चेहरा पहचान जायेगी?
बुलंदशहर में घटी दुखद घटना के सन्दर्भ में आज़म खान ने  कहा कि इस देश में सत्ता पाने के लिए राजनेता किसी भी स्तर तक जा सकते हैं, वह हत्याएं करवा सकते हैं, दंगे करवा सकते हैं, निर्दोष लोगों को मरवा सकते हैं. इस कारण आज़म खान को लगता है कि बुलन्दशहर की घटना साज़िश हो सकती है.
बुलन्दशहर में जो घटा उस पर कोई टिप्पणी करना असभ्य और अनुचित होगा. लेकिन जो कुछ आज़म खान ने  कहा उसे पूरी तरह नकार देना गलत होगा. आज़म खान एक अनुभवी नेता हैं, राजनीति और राजनेताओं को अवश्य ही करीब से देखा है. उनके अपने व्यक्तिगत अनुभव भी रहे होंगे जो वह ऐसी बात कह रहे हैं. हालांकि अपने को  और सपा को वह साफ़ पाक ही मानते हैं और उनका इशारा विरोधियों की ओर है. ऐसी बात कह कर अपनी सरकार की खामियों से भी लोगों का ध्यान भटकाना चाहते हैं और कुछ हद तक सफल भी  हो गए हैं. पर उनकी बात काल्पनिक नहीं है.
A D R की रिपोर्ट के अनुसार २०१६ चुनावों के बाद केरल, पुदुचेर्री, पश्चिम बंगाल, तमिल नाडू और असम में जो विधायक चुने गए हैं उन में से ३६% ऐसे हैं जिनके विरुद्ध किसी न किसी तरह के अपराधिक मामले हैं. यह संख्या चौकाने वाली न लगती हो क्यों कि इससे पहले भी ऐसे लोग विधान सभाओं में आते रहे हैं. उत्तर प्रदेश में ही शायद यह संख्या ४६% थी, ऐसा कहीं पढ़ा था. कई वर्ष पूर्व एक समाचार पत्र की रिपोर्ट में लिखा था की आंध्र प्रदेश के एक मुख्य मंत्री लाशों का ढेर पार कर के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे.

चीन और भारत की प्रगति के सम्बन्ध में लिखे अपने एक लेख में गुरुचरण दास ने कहा था की जहां एक ओर चीन की पार्लियामेंट में ४०% सदस्य technocrats वहां भारत की संसद में लगभग ४०% सदस्य ऐसे हैं जिनके खिलाफ किसी न किसी न किसी प्रकार के अपराधिक मामले हैं. अगर चीन भारत से आगे निकल गया है तो आश्चर्य क्यों.
ऐसे लोगों को राजनीतिक पार्टियां चुनाव क्यों खड़ा करती हैं? हो सकता कुछ ऐसे गिने-चुने लोग हों जिनके विरुद्ध दर्ज किये मामले झूठे हों, पर सभी के सभी लोग पाक-साफ़ होंगे ऐसा नहीं है. ऐसे अपराधियों को विधान सभा या संसद में चुनाव में खड़ा करने का कोई तो कारण होगा. मेरी समझ में तो इसका दो ही कारण हो सकते हैं. एक, ऐसे लोग पैसे के बल चुनाव में खड़े होते हैं, पैसे के बल पर पार्टियों से टिकट खरीदते हैं. दूसरा, यह लोग किसी न किसी रूप में पार्टियों को उपयोगी लगते हैं. शायद यह लोग वही काम करते हैं जिस की ओर आज़म खान ने इशारा किया है.
आज तक किसी भी सरकार ने राजनीति से अपराधियों को दूर करने का कोई प्रयास नहीं किया और न ही कोई कानून बनाया. अभी तक एक भी पार्टी ने स्वेच्छा से यह निर्णय नहीं लिया कि सिर्फ साफ़ छवि के व्यक्तियों को चुनाव में टिकट दिया जाएगा.
अब कोई सुधार आएगा तो उसके लिए आम आदमी (आप नहीं) को ही कोई पहल करनी होगी. ऐसे लोगों का बहिष्कार करना होगा जो अपराधिक प्रष्ठभूमि से हैं और उन लोगों को चुन कर विधान सभाओं और संसद में भेजना होगा जिनके विरुद्ध अपराधिक मामले न हों. अगर सभी उम्मीदवारों के विरुद्ध मामले हों तो ऐसे चुनाव का बहिष्कार करना ही उचित होगा.

आप के लिए यह जानना अनिवार्य है कि जिस व्यक्ति का पुलिस में कोई भी अपराधिक रिकॉर्ड होता है वह सरकारी चपरासी भी नहीं बन सकता. ऐसा व्यक्ति संसद या विधान सभा या पंचायत के लिए कैसे योग्य हो सकता है?

Tuesday, 2 August 2016

क्या सत्य बोल रही हैं आनंदीबेन
गुजरात की मुख्यमंत्री ने त्यागपत्र दे दिया है. उनका कहना है कि वह शीघ्र ही ७५ वर्ष की हो जायेंगी. अत: वह अपनी ज़िम्मेवारियों से मुक्त होना चाहती हैं. उनकी जगह किसी कम उम्र के राजनेता को मुख्यमंत्री का पद सम्भालना चाहिये. अगले चुनाव तक नए मुख्यमंत्री को उचित समय मिलना चाहिये ताकि वह पार्टी का ठीक से नेतृत्व कर पाए.
मीडिया और विश्लेषकों की जो प्रतिक्रिया हुई है उससे ऐसा लगता है कि इस त्यागपत्र का असली कारण कुछ और है.
हो सकता है कि मीडिया और विश्लेषकों का संदेह सही हो. पर आज हम ऐसी स्थिति में आ चुके हैं कि हम किसी भी राजनेता की किसी बात को सत्य नहीं मानते. आज लगभग हर राजनेता की विश्वसनीयता न के बराबर है. लोगों को न तो उनके कथन पर कोई विश्वास है और न ही उनके वायदों पर.
ऐसी स्थिति के लिए राजनेता स्वयं ही जिम्मेवार हैं.
पिछले ७० वर्षों में कोई विरला ही राजनेता रहा होगा जो अपनी इच्छा से सक्रिय राजनीति से पूरी तरह अलग हुआ होगा. अधिकतर राजनेता तब तक राजनीति में सक्रिय रहे जब तक उनके  जीवन की डोर टूट न गई (पंडित नेहरु, एम जी आर, मुफ़्ती सईद वगेरा ऐसे कुछ नाम आपको स्मरण होंगे) या जब तक की लोगों ने उन्हें नकार नहीं दिया.
ऐसे कई नेता थे, और आज भी हैं, जिन्हें लोगों ने तो नकार दिया पर उन्हें उनकी पार्टियों ने बैकडोर से राजनीति में बनाये रखा. वह राज्यसभा के सदस्य बनाये गये, राज्यसभा के लिए मनोनीत कर दिए गए, राज्यों में राज्यपाल नियुक्त किये गए.
हर नेता का प्रयास रहा है की राजनीति में रहते-रहते अपने परिवार के किसी सदस्य को अपना उत्तराधिकारी बना दे. लोकसभा में कांग्रेस के कई सदस्य राजनीतिक परिवारों से है. दूसरी पार्टियों में भी ऐसे कई सदस्य हैं जो राजनीतिक परिवारों से हैं. सपा के सभी सदस्य परिवार के हैं.
नीति या विचारधारा की चिंता किये बिना, सत्ता के लिए, जिस तरह पार्टियाँ एक दूसरे के साथ गठबंधन करती रही हैं उस पर तो अब कोई चर्चा भी नहीं होती. स्थिति तो यहाँ तक आ पहुंची है कि एक ओर दो पार्टियाँ केंद्र में सत्ता के लिए एक साथ खड़ी होती हैं तो दूसरी ओर किसी राज्य में सत्ता पाने के लिए एक दूसरे के खिलाफ. ऐसे में लोग किस का और किस पर विश्वास करें.
एक तरह से देखा जाये तो विचारधारा हमारी राजनीति में एक बे मायने  शब्द बन चूका है. हर पार्टी और हर नेता की एक ही विचारधारा है, किसी भी भांति सत्ता पाना और सता पा कर सत्ता में बने रहना.

ऐसे में कौन विश्वास करेगा कि आनंदीबेन अपनी इच्छा से सत्ता का त्याग कर रही हैं. 

Monday, 1 August 2016

ट्रैफिक जाम
कल था सड़कों पर भयंकर जाम
क्योंकि
बारिश नहीं ले रही थी रुकने का नाम.
हर जगह था पानी इकट्ठा
रास्ता हो या गड्ढा. 
फंसे रहे थे हम रात भर
गाड़ियों की भीड़ में.
कोसते अपने को और उनको
जिनको वोट दिए थे अपने.
आज फिर फंसें हैं
हम गाड़ियों की भीड़ में.
नहीं साहिब,
आज रास्तों और गड्ढों में
नहीं भरा पानी. 
आज उतर आये हैं
सड़कों पर 
वह लोग जिन्हें
वोट नहीं दिए थे अपने.
वह सब हो रहे हैं
हमारी परेशानियों से परेशान
वह सब चिल्ला रहे हैं,
जब तक
‘सडकों पर लगते रहेंगे जाम
तब तक
चैन से न बैठेंगे,
उतर आयेंगे सड़कों
पर सुबह हो या शाम’.
हम समझ नहीं पा रहे,
कब से फंसें हैं
और कब तक फंसे रहेंगे

गाड़ियों की भीड़ में.