Sunday, 24 February 2019


‘कारवां’ और पुलवामा आतंकी हमला.
पुलवामा आतंकी हमले में शहीद हुए जवानों की जाति का विश्लेष्ण कर, ‘कारवां’ पत्रिका  ने एक अलग ही दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का प्रयास किया है.
लेख पढ़ कर मुझे तो कोई आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि कई वर्षों से आतंकवाद के लिए आतंकवादियों को कम और इस देश की नीतियों को, सामाजिक व्यवस्था को, आर्थिक असमानता को अधिक दोषी ठहराने का प्रयास किया जा रहा है. कई ऐसे बुद्धिजीवी/मीडिया के लोग/राजनेता/अधिकारी हैं जो अलग संस्थाओं या एजेंसियों के पे-रोल पर है और उनका अपना एक एजेंडा है. वह सब निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य निभा रहे हैं.
समस्या तो वह लोग हैं जिन्हें अपने देश पर अभिमान है, अपनी सभ्यता में विश्वास है, वैदिक संस्कृति से लगाव है. यह सब इस बात से बिलकुल बेपरवाह हैं कि किस तरह हमारे विश्वास, आस्था  और देशभक्ति पर धीरे-धीरे लेकिन लगातार चोट की जा रही. कई लोगों की सोच को बदलें में यह लोग सफल हुए हैं. वह दिन दूर नहीं जब अधिकाँश लोग यह मानने लगें कि हम सब गलत हैं. उस दिन हमारी पूरी तरह हार होगी.
तो ख़तरा अज़हर मसूद से उतना नहीं है जितना खतरा उन लोगों से है जो देश और व्यस्था के भीतर हैं और जो दीमक की तरह हमें खत्म करने के मिशन में जुटे हुए हैं. बन्दूकधारी से तो जवान निपट लेंगे, लेकिन जिस के पास कलम है (आज के सन्दर्भ में कहें तो जिसके पास लैपटॉप या स्मार्ट फोन है) उसे हराना कठिन है.
इन्हें विफल करने का अभी तो किसी  ने संजीदगी से प्रयास ही नहीं शुरू किया, इसका उदाहरण कारवां का लेख ही है. इसका खंडन करने के लिए क्या कोई लेख या ब्लॉग किसी ने लिखा? और यह बात समझ लीजिये कि गाली-गलोच से इन लोगों का प्रतिकार आप नहीं कर सकते. गाली-गलोच कर आप इनको मज़बूत बना देंगे.
इनका सामना बौद्धिक स्तर पर करना होगा. और यह कोई सरल कार्य नहीं है. इसके लिए आत्मचिंतन करना होगा, जिसके लिए हम शायद तैयार नहीं हैं.
सब कुछ सरकार करेगी ऐसा समझ लेना भी गलत होगा. अपने समाज, अपनी संस्कृति, अपने देश की अखंडता हमें ही संभालनी होगी.

Wednesday, 20 February 2019


समस्या भ्रष्टाचार ही है
आज के हिंदुस्तान टाइम्स में एक दिलचस्प लेख छपा है.
इस लेख का सार है कि भ्रष्टाचार पर मुख्यरूप से केन्द्रित कर, मोदी सरकार देश की बिगड़ी हुई सामाजिक कल्याण प्रणाली को दुरस्त नहीं कर सकती.
अर्थात भ्रष्टाचार को घटाना या खत्म करना सरकार का मुख्य उद्देश्य नहीं होना चाहिये, बस अन्य उपायों के साथ यह भी एक उपाय होना चाहिये. सुनने में बात बहुत ही तर्कशील लगती है.
लेकिन यह बात इस सच्चाई की पूरी तरह अनदेखी कर देती है कि इस देश में अगर सरकार एक रुपया खर्च करती है तो सिर्फ पन्द्रह पैसे की ही लाभ लोगों तक पहुँचता था. (यह बात भारत के एक प्रधान मंत्री ने ही कही थी).  
बाकी के पचासी पैसे कहाँ जाते हैं? क्या प्रणालियाँ और व्यवस्था इतनी घटिया हैं कि इतने पैसे बर्बाद हो जाते हैं?
हर कोई जानता है (और निश्चय ही लेख को लिखने वाली लेखिका भी जानती है) कि पचासी पैसे भ्रष्टाचारियों की जेबों में ही जाते हैं. और यह भ्रष्टाचारी सिर्फ सरकारी तंत्र में नहीं हैं, सरकारी तंत्र के बाहर भी हैं. इस लूट के कई भागिदार हैं और आज सब वह परेशान हैं.
इस सरकार को उखाड़ फेंकने की छटपटाहट आप जो देश में देख रहे हैं उसका एक मुख्य कारण है कि लूट के रास्ते बंद करने का एक प्रयास किया जा रहा है. यह छटपटाहट आम जनता में नहीं है, यह तड़प है सिर्फ राजनेताओं में, बुद्धिजीवियों में, मीडिया में, व्यापारी वर्ग में. सभी सम्पन्न वर्ग पुरानी रीतियों के लिये तड़प रहे हैं.
हर कोई जानता है कि भ्रष्टाचार की मार सिर्फ गरीब आदमी को झेलनी पड़ती है. भारत जब स्वतंत्र हुआ था लगभग उसी समय दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हुआ था. उस युद्ध के कारण जर्मनी और  जापान तो लगभग विनाश की कगार पर खड़े थे. फ्रांस और इंग्लैंड की हालत भी खराब थी. चीन की स्थिति भी (किन्हीं अलग कारणों से) अच्छी न थी. आज वह देश कहाँ हैं और हम कहाँ है?
हम आजतक गरीबी नहीं हटा पाये, इस का मुख्य कारण भ्रष्टाचार ही है और कुछ बुद्धिजीवियों को लगता है कि भ्रष्टाचार खत्म करना मुख्य मुद्दा नहीं होना चाहिये. आश्चर्य है!

Tuesday, 19 February 2019


कमल हासन उवाच: क्यों नहीं हो रहा कश्मीर में जनमत?
एक रिपोर्ट के अनुसार कमल हासन ने सरकार से यह पूछा है कि वह कश्मीर में जनमत कराने से क्यों डरती है?
प्रश्न उचित है और हर उस व्यक्ति को ऐसा प्रश्न पूछने का अधिकार है जो राजनीति में स्थापित होना चाहता है. पर समस्या यह है कि कश्मीर पर ब्यान देने वाले अन्य बुद्धिजीवियों और राजनेताओं की तरह कमल हासन की जानकारी भी नगन्य है. 
यू एन के प्रस्ताव के अनुसार जनमत कराने की पहली शर्त है कि पाकिस्तान कश्मीर से अपने सारे नागरिक और सैनिक हटायेगा.
आज तक पाकिस्तान ने यह शर्त पूरी नहीं की है. अगर कमल हासन का हृदय कश्मीरियों के लिए द्रवित हो रहा है तो उन्हें चाहिये कि पाकिस्तान पर दबाव डालें और पाकिस्तान को यू एन प्रस्ताव की पहली शर्त पूरी करने के लिए उत्साहित करें. इस कार्य को पूरा करने के लिए वह सिधु और मणि शंकर की सहायता ले सकते हैं. (वैसे कमल हासन को इस बात की  जानकारी शायद न हो कि कश्मीर का कुछ भाग पकिस्तान ने चीन को भी दे रखा है और चीन तो वह इलाका कभी खाली न करेगा.)
जिस दिन पकिस्तान पहली शर्त पूरी कर देगा उस दिन कमल हासन के पास सरकार से यह प्रश्न पूछने का पूरा नैतिक अधिकार होगा.
कमल हासन को यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि क्या वह ऐसा जनमत सिर्फ ‘कश्मीर’ में चाहते हैं या  ‘जम्मू और कश्मीर’  में? वहां और भी  लोग रहते हैं और उनकी भी अपनी कुछ अपेक्षाएं हैं.  

Saturday, 16 February 2019


चीन का लक्ष्य-भारत की अगली सरकार, मजबूर सरकार
अपने पिछले लेख “मतदातों से एक निवेदन-अगली सरकार मज़बूतसरकार” में मैंने आशंका व्यक्त की थी कि हमारा कोई पड़ोसी देश नहीं चाहेगा कि भारत एक शक्तिशाली देश बने.
आज के ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में ‘ब्रह्मा चेलानी’ ने लिखा है कि नेपाल की राजनीति में चीन के हस्तक्षेप के कारण वहां ऐसी सरकार बनी जिसका झुकाव चीन के प्रति है. अपनी इस सफलता से उत्साहित हो कर अब चीन का लक्ष्य है कि अगले चुनाव के बाद भारत में एक मजबूर और बेढंगी (weak and unwieldy government) सरकार बने.
चीन भारत की राजनीति और चुनावी प्रणाली में दखल करना चाहता है, इस बात का अंदेशा तो तब ही हो गया था जब यह समाचार बाहर आया था कि श्री राहुल गांधी चीन के अधिकारियों से गुपचुप मुलाकातें करते रहे थे. जैसा की अपेक्षा थी मीडिया ने इस बात की अधिक चर्चा नहीं की. सरकार ने भी गंभीरता से इस बात को लोगों के सामने नहीं रखा.
चीन हमेशा से पाक-समर्थक रहा है. पाकिस्तान के पास जो सैनिक शक्ति है उसके पीछे चीन का बहुत बड़ा योगदान है. हालाँकि चीन अपने देश में इस्लामिक कट्टरवाद को बुरी तरह कुचल डालता है, लेकिन मसूद अज़हर को पूरा समर्थन देता है. आतंकवाद रोकने के लिए पाकिस्तान सरकार पर दबाव डालना तो दूर, इस बात की पूरी संभावना है कि चीनी अधिकारी पाक-आतंकवादियों को कठपुतिलयों समान अपने इशारों पर चलाते हों.
एक समय जॉर्ज फेर्नान्देस ने कहा था कि हमारा शत्रु पाकिस्तान नहीं चीन है, बिलकुल सत्य है. हम देशवासी अरबों-खरबों  डॉलर का चीनी सामान खरीद कर उन्हें सम्पन्न बना रहे हैं, पर चीन का रुख हमारे प्रति बिलकुल भी अनुकूल नहीं रहा. अभी कुछ दिन पहले जब प्रधान मंत्री अरुणाचल गये थे तो चीन ने इस बात पर आपत्ति उठाने में एक दिन भी न लगाया था.
सब राजनेताओं का अपना एक एजेंडा है. अधिकतर राजनेताओं का मुख्य उद्देश्य किसी भी कीमत पर सत्ता पाना और सत्ता नें बने रहना है. पर हमें तो चौकस रहना पड़ेगा, अपने शत्रुओं से चाहे वह देश के भीतर हों या बाहर. इसलिये उन सब लोगों के विरुद्ध आवाज़ उठायें जो देश को तोड़ देना चाहते हैं या बेच डालना चाहते हैं. और ध्यान रखें अगली सरकार मजबूर या बेढंगी न हो. यह हम सब पर निर्भर करता है.

Thursday, 14 February 2019


मतदातों से एक निवेदन-अगली सरकार मज़बूत सरकार-२
लेख के पहले भाग में मैंने यह तर्क दिया था कि देश को सिर्फ एक मज़बूत सरकार ही सुरक्षित रख सकती है. देश को तोड़ने के प्रयास में कई शक्तियाँ सक्रिय हैं, इसलिए चौकस रहना हमारे लिए एक मजबूरी ही है.
आम आदमी को यह बात समझनी होगी कि शक्तिशाली लोग, धनी लोग कहीं भी, कभी भी जाकर बस सकते हैं. पर ऐसा विकल्प आम आदमी के पास नहीं है. कई लोगों ने पहले ही करोड़ों, अरबों रूपये बाहर के बैंकों में जमा कर रखे हैं, दूसरे देशों में घर बना रखे हैं. यह सुविधा आम आदमी के पास नहीं हैं. उसका जीना भी यहाँ, मरना भी यहाँ.
और आम आदमी भाग कर जा भी कहाँ सकता है. इस देश में हम ने सबका स्वागत किया, चाहे वह यहूदी थे या पारसी.  बँगला देश, अफगानिस्तान  और म्यांमार से भागे लोगों को भी जगह दी. लेकिन यहाँ के लोग कहीं पनाह नहीं पा सकते, यह एक कड़वा सच है. और हिन्दुओं के लिए तो और भी झंझट है. जहां 150 से अधिक देशों में ईसाई बहुमत में हैं और पचास से अधिक देशों में मुस्लिम बहुमत में हैं, वहां हिन्दू सिर्फ दो देशों में बहुमत में हैं-भारत और नेपाल. (वास्तव में तो कश्मीर के हिन्दुओं की अपने देश में ही दुर्गत  हुई है.)  
तो इस भुलावे मत रहिये कि, ‘चीनो-अरब हमारा....सारा जहां हमारा’. अपने लिये तो बस एक ही है अपना देश है और उसको सुरक्षित रखना हम सब का कर्तव्य तो है, लेकिन मजबूरी अधिक है.
मजबूर सरकार कितनी मजबूर होती है इसका उल्लेख लेख के अगले भाग में.

Tuesday, 12 February 2019


मतदातों से एक निवेदन-अगली सरकार मज़बूत सरकार
सबसे पहले यह स्पष्ट करना अनिवार्य होगा कि यह अपील मज़बूत सरकार चुनने के लिये है, मोदी सरकार चुनने के लिये नहीं. अगर आपको लगता है कि कांग्रेस एक मज़बूत सरकार दे सकती है तो उसे भरपूर बहुमत देकर जितायें. और अगर आप समझते हैं कि बीएसपी, या टीएम्सी या एएपी या कोई अन्य दल या दलों का समूह मज़बूत सरकार दे सकता है तो उस दल/समूह को अपना भरपूर समर्थन दें, कोई कमी न छोड़े.
हर  मतदाता  को यह बात समझनी होगी कि देश को तोड़ने वाली ताकते बहुत चालाकी से अपना काम कर रही हैं. चाहे वह जेएनयू का टुकड़े-टुकड़े गैंग हो या कश्मीर के आतंकवादी या गाँव से लेकर नगरो तक फैले नक्सलवादी या अन्य ऐसे लोग, यह सब अपने मिशन पर पूरी तरह डटे हुए हैं. यह भयंकर लोग हैं. इन्हें देश के भीतर भी समर्थन मिल रहा है और देश के बाहर भी. एक उदाहरण-छोटे से नगर कठुआ में एक घटना घटती है तो रातोंरात उसकी गूँज अमेरिका/युएनओ में सुनाई देती है. ज़रा सोचिये ऐसा कैसे संभव हुआ?
और क्या कोई पड़ोसी देश चाहेगा कि भारत एक शक्तिशाली  देश बन कर उभरे? कदापि नहीं. एक मज़बूत भारत हरेक लिये चुनोती बन सकता है, चीन के लिये भी.
और अगर आप सोचते है कि किसी देश का टूटना किस्से-कहानियों में होता है यथार्थ में नहीं तो ज़रा पिछले तीस वर्ष की ही इतिहास ही  देख लें. क्या सोवियत यूनियन, यूगोस्लाविया, चैकोस्ल्वाकिया विश्व के नक्शे में कहीं दिखते हैं? आप कहेंगे की इन देशों के टूटने के अलग कारण थे, इसलिए हमें चिंतित होने की ज़रूरत नहीं.
कारण कोई भी हों, सत्य तो यह है कि यह देश बिखरे-टूटे. और यह मत भूलिये कि जो कारण जग –जाहिर हैं वही असली कारण हों, ऐसा ज़रूरी नहीं. जो शक्तियाँ दूसरे देशों को तोड़ती हैं वह सदा छिपकर ही वार करती हैं और कभी भी इस बात की जिम्मेवारी या श्रेय नहीं लेती, और ले भी नहीं सकती.
भारत एक अकेला देश है जिसके अधिकाँश भाग पर अलग-अलग समय में अलग-अलग विदेशी लोगों ने हज़ार वर्षों तक हुकुमत की. यह जानने के लिये कि ऐसा क्यों हुआ, हमने कभी कोई चिंतन नहीं किया- न समाज ने, न सरकार ने. शायद हम यह मान बैठे हैं कि ऐसा फिर नहीं हो सकता. पर याद रखें  किसी ने कहा है कि जो लोग अतीत से सीखते नहीं हैं उसे दोहराते रहते हैं.
हमें इतिहास दोहराना नहीं है. इसके लिए आवश्यक है कि हम एक मज़बूत सरकार चुने. जो भी सरकार आप चाहते हैं उसे भरपूर  समर्थन से चुने. आधा-अधुरा समर्थन हम सब के भविष्य को धूमिल ही करेगा.

Thursday, 7 February 2019


लघुकथा
सारा दिन तो वह अपने-आप को किसी न किसी बात में व्यस्त रखता था; पुराने टूटे हुए खिलौनों में, पेंसिल के छोटे से टुकड़े में, एक मैले से आधे कंचे में या एक फटी हुई फुटबाल में. लेकिन शाम होते वह अधीर हो जाता था.
लगभग हर दिन सूर्यास्त के बाद वह छत पार आ जाता था और घर से थोड़ी दूर आती-जाती रेलगाड़ियों को देखता रहता था.
“पापा वो गाड़ी चला रहे हैं?”
“शायद,” माँ की आवाज़ बिलकुल दबी सी होती.
“आज पापा घर आयेंगे?” हर बार यह प्रश्न माँ को डरा जाता था.
“नहीं.”
“कल?”
“नहीं.”
“अगले महीने?”
“शायद?”
“वह कब से घर नहीं आये. सबके पापा हर दिन घर आते हैं.”
“वह ट्रेन ड्राईवर हैं और ट्रेन तो हर दिन चलती है.”
“फिर भी.”
माँ ने अपने लड़के की और देखा, वह मुरझा सा गया था. उसकी आँखें शायद भरी हुई थीं. माँ भी अपने आंसू न रोक पाई.
‘मैं कब तक इसे सत्य से बचा कर रखूँगी?’ मन में उठते इस प्रश्न का माँ सामना नहीं कर सकती थी. उस प्रश्न को उसने मन में ही दफना दिया.