‘कारवां’ और पुलवामा आतंकी हमला.
पुलवामा आतंकी हमले में शहीद हुए जवानों की जाति का
विश्लेष्ण कर, ‘कारवां’ पत्रिका ने एक अलग ही दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का प्रयास किया
है.
लेख पढ़ कर मुझे तो कोई आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि कई
वर्षों से आतंकवाद के लिए आतंकवादियों को कम और इस देश की नीतियों को, सामाजिक
व्यवस्था को, आर्थिक असमानता को अधिक दोषी ठहराने का प्रयास किया जा रहा है. कई ऐसे
बुद्धिजीवी/मीडिया के लोग/राजनेता/अधिकारी हैं जो अलग संस्थाओं या एजेंसियों के
पे-रोल पर है और उनका अपना एक एजेंडा है. वह सब निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य निभा
रहे हैं.
समस्या तो वह लोग हैं जिन्हें अपने देश पर अभिमान है,
अपनी सभ्यता में विश्वास है, वैदिक संस्कृति से लगाव है. यह सब इस बात से बिलकुल
बेपरवाह हैं कि किस तरह हमारे विश्वास, आस्था
और देशभक्ति पर धीरे-धीरे लेकिन लगातार चोट की जा रही. कई लोगों की सोच को
बदलें में यह लोग सफल हुए हैं. वह दिन दूर नहीं जब अधिकाँश लोग यह मानने लगें कि
हम सब गलत हैं. उस दिन हमारी पूरी तरह हार होगी.
तो ख़तरा अज़हर मसूद से उतना नहीं है जितना खतरा उन लोगों
से है जो देश और व्यस्था के भीतर हैं और जो दीमक की तरह हमें खत्म करने के मिशन
में जुटे हुए हैं. बन्दूकधारी से तो जवान निपट लेंगे, लेकिन जिस के पास कलम है (आज
के सन्दर्भ में कहें तो जिसके पास लैपटॉप या स्मार्ट फोन है) उसे हराना कठिन है.
इन्हें विफल करने का अभी तो किसी ने संजीदगी से प्रयास ही नहीं शुरू किया, इसका उदाहरण
कारवां का लेख ही है. इसका खंडन करने के लिए क्या कोई लेख या ब्लॉग किसी ने लिखा?
और यह बात समझ लीजिये कि गाली-गलोच से इन लोगों का प्रतिकार आप नहीं कर सकते. गाली-गलोच
कर आप इनको मज़बूत बना देंगे.
इनका सामना बौद्धिक स्तर पर करना होगा. और यह कोई सरल
कार्य नहीं है. इसके लिए आत्मचिंतन करना होगा, जिसके लिए हम शायद तैयार नहीं हैं.
सब कुछ सरकार करेगी ऐसा समझ लेना भी गलत होगा. अपने समाज,
अपनी संस्कृति, अपने देश की अखंडता हमें ही संभालनी होगी.