संदेह-एक लघु कथा
सिवाय लालाजी के हर किसी को संदेह था
कि उसने ही धोबी की बारह वर्षीय लड़की के साथ दुष्कर्म किया था.वह लालाजी का चहेता
था और उसे पूरा विश्वास था कि अपनी अकूत संपदा का वह उसे ही अपना वारिस बनायेंगे.
वह भी समझ रहा था कि सब उस पर संदेह
करते है. यद्यपि किसी के पास कोई प्रमाण न था. लेकिन वह चिंतित था कि कहीं सब
मिलकर लालाजी के मन में यह संशय न पैदा कर दें कि दोषी कोई और नहीं, वही था. ऐसी
बातों को लेकर लालाजी बहुत संवेदनशील थे. ज़रा सा संदेह भी उनके विश्वास को चोट
पहुँचा सकता था.
अगर लालाजी के मन यह बात घर कर गई तो
उसका भविष्य अंधकारमय हो जाएगा. उसे कुछ करना होगा, उसने तय किया. कुछ ऐसा करना
होगा जिससे लालाजी का उसके प्रति विश्वास अटूट हो जाए.
रात के खाने पर उसने अचानक कहा, “आप सब
लोग क्या सोच रहे हैं मैं अच्छी तरह समझता हूँ. पर लालाजी, यह लोग अकारण ही मुझे
दोषी मान रहे हैं. मैं निर्दोष हूँ.....अगर...अगर आप में से कोई भी एक प्रमाण दे
दे, ज़रा सा प्रमाण दे दे तो मैं....मैं अपना जीवन समाप्त कर लूंगा.”
उसकी बात सुन कर किसी ने कोई प्रतिक्रिया
व्यक्त नहीं की. हर कोई उसे घूर कर देखता रहा.
उसने सामने रखी रोटी का एक बड़ा टुकड़ा
तोडा. फिर लालाजी की ओर देखते हुए उसने धीमी पर गम्भीर वाणी में कहा, “अगर मैं
दोषी हूँ तो यह रोटी का टुकड़ा निगलते ही मेरे प्राण निकल जाएँ.”
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