Tuesday, 14 December 2021

 

पाति-एक मित्र के नाम

बाग़  में  जब आती थी चिनार के सूखे पत्तों की बाढ़,

चुपचाप देखते रहते थे हम पर्वतों की चोटियाँ-

वो ले लेती थीं घुमक्कड़ बादलों की आड़,

डल झील के किनारे चलते रहते थे मीलों-मील,

चुपचाप सुनते थे दूर जाती

किसी नाव के चप्पुओं की धीमी-धीमी थाप,

यूहीं खड़े हम  देखते रहते थे

पानी पर झूमती लहरें को,

अचानक छू जाती थी मन को

किसी नादान बच्ची की मुस्कान,

बंद रोशनी में सुनना पुराने गीत,

ख़ामोशी को बना लेना मन का मीत,

सब याद है, कुछ भी भुला नहीं

इतनी दूर आने के बाद भी,

जैसे रुका हुआ हूँ वहीं पर अभी तक,

जिन पेचदार रास्तों में

सदा के लिये खो गये थे तुम,

उन रास्तों की यादें भी अब

धीरे-धीरे हो रही हैं गुम,

जीवन में कितना खोया कितना पाया,

कितना सोचा कितना जी पाया, 

यह सब पर जैसे है निरर्थक,

मन तो जैसे अभी भी है अटका

ज़मीन पर बिखरे चिनार के सूखे पत्तों में,

डल झील की निर्मल लहरों में,

बंद रोशनी और पुराने गीतों में.

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