Tuesday, 24 January 2017

सड़क दुर्घटनाएं और हम
सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2015 में लगभग 150000 लोगों की अलग-अलग सड़क दुर्घटनाओं में मृत्यु हुई. दस वर्ष पहले, 2005 में, 94000 लोगों की सड़क दुर्घटनाओं में मृत्यु हुई थी.
यह आंकडें चौंकाने वालें हैं. पर अपने चारों ओर देख कर ऐसा लगता नहीं है कि किसी को ज़रा सी भी चिंता या घबराहट हुई है. 
हर दिन चार सौ लोगों का सड़क हादसों में मर जाना किसी भी सभ्य देश में एक अति गंभीर समस्या मानी जाती और इस समस्या को लेकर सभी विचार-विमर्श कर रहे होते.
लेकिन इस देश में तो यह बात चर्चा का विषय भी नहीं है. और लगता नहीं है की निकट भविष्य में स्थिति में कोई सुधार होगा. सबसे डराने वाली बात यह है कि आम नागरिक भी सड़क पर अपनी-अपनी गाड़ियां  चलाते समय अपनी और अपने प्रियजनों की सुरक्षा को कोई ख़ास महत्व देते हैं.
सुबह की सैर करते समय मैंने कई बार लोगों को लाल-बत्ती की अवहेलना करते देखा है, उलटी दिशा से गाड़ियों को चलते देखा है, स्कूल बसों और वैनों को अति तेज़ गति से चलते देखा है.
सबसे डराने वाला दृश्य तो तब होता है जब अपने स्कूटर या बाइक पर एक या दो (और कभी-कभी तो तीन) बच्चों को बिठा कर एक पिता धड़ल्ले से, लाल-बत्ती की परवाह किये बिना, अपनी गाड़ी को सड़क पर, कभी सही और कभी गलत दिशा में, दौड़ाता है.  
ऐसा दृश्य मैंने एक बार नहीं, बीसियों बार देखा है. और आश्चर्य तो तब होता है जब महिलाओं को भी, बच्चों को साथ लिए, ऐसे ही लापरवाह अंदाज़ में कार या स्कूटर चलाते देखता हूँ. समझ में नहीं पाता कि यह लोग अपने बच्चों के जीवन के साथ ऐसा खिलवाड़ कैसे कर लेते हैं.
ऐसे माता-पिता अपने बच्चों को क्या संस्कार दे रहे हैं, यह भी सोचने की बात है. ऐसे ही लोगों के बच्चे अकसर सड़कों पर अपनी गाड़ियां सडकों पर लापरवाही से चलाते हैं और आये दिन किसी न किसी को दुर्घटना में आहत कर देते हैं या मार डालते हैं.
दुर्घटनाएं तो चौबीसों घंटे घटती रहती हैं पर मैंने सुबह के समय की बात इसलिये की क्योंकि सुबह के समय हज़ारों माता-पिता और लाखों बच्चे घरों से स्कूल जाने के लिए निकलते हैं और एक सभ्य समाज से अपेक्षा की जा सकती है कि उस समय लोग कम से कम बच्चों की सुरक्षा को लेकर सचेत होंगे. 

गाड़ियों की संख्या हर दिन बढ़ती जा रही है. गाड़ियां चलाने के शिष्टाचार को हम हर दिन भूलते जा रहे है, नियम कानून के प्रति हमारा सम्मान हर दिन घटता जा रहा है. अगर इस वर्ष सड़क पर मरने वालों की संख्या दो लाख तक भी पहुँच जाती है तो मुझे कोई आश्चर्य न होगा. 

Wednesday, 18 January 2017

फट्टा कुरता
नेता जी ने अपना फट्टा हुआ कुरता दिखा कर जनसभा में आये लोगों से कहा, ‘जो नेता लाखों रुपये के सूट  पहनते हैं वह कैसे  जान पायेंगे कि ग़रीब आदमी का दर्द क्या होता है. ऐसे ही लोगों के बारे में ही कहा गया था कि बन्दर न जाने जिंजर का स्वाद. मुझ से पूछिये कि गरीबी क्या होती है. जेब में एक रूपया भी नहीं है. फिर भी मैं आपके बीच खड़ा, मेरा फट्टा कुरता ही गरीबों के लिए मेरी प्रतिबद्धता का प्रमाण है.
‘वर्षों से हम देश सेवा में लगे हैं पर हमारे पास दो कमरों का एक छोटा सा अपना घर भी नहीं है. सरकारी बँगलें में रहते हैं और शायद जीवन भर सरकारी बँगलें में रहना पड़ेगा. परन्तु अपने देश के ग़रीबों के लिए हम  यह कष्ट भी ख़ुशी-ख़ुशी उठा लेंगे.  
‘आप विश्वास नहीं करेंगे. पर सत्य यही है कि एक गाड़ी भी नहीं हमारे पास. हर समय सरकारी गाड़ियों में यहाँ-वहां घूमना होता है. बहुत दिक्कत होती है. पर यह मुसीबत भी झेल लेंगे.
‘और एक बात मैं आप सब को बताना चाहता हूँ. बचपन से ही हमने गरीबी की बहुत करीब से देखा है.  हमारे सारे ड्राइवर बहुत गरीब थे. हमारे सारे माली भी गरीब थे. हमारी आया भी गरीब थीं. घर में कितने ही नौकर-चाकर थे पर सब के सब गरीब थे. एक भी अमीर नहीं था. उनको देख कर ही हम  समझ गए थे कि गरीबी क्या चीज़ है. गरीब आदमी का जीवन कैसा होता है हम भली-भांति जानते हैं.
‘मैं इतनी बार विदेश गया हूँ कि अब पता भी नहीं. पर कभी भी अपने देश के गरीब भाइयों को मैं भुला न पाया. मैंने अपना जन्मदिन भी मनाया तो गरीब लोगों को याद कर के ही मनाया. मैं कहीं भी रहा, कैसे भी रहा पर मेरे दिल में सदा मेरे गरीब भाई ही थे.
‘जो नेता दिन में बार-बार सूट बदलते हैं उन्हें समझना चाहिए कि इस देश का गरीब आदमी सारी ज़िन्दगी एक ही जोड़े में बिता देता है, फट्टे हुए कपड़ों में बिता देता है. ग़रीबों की जेबें खाली होती हैं, फट्टी हुई होती हैं.......’

नेता जी अभी बहुत कुछ कहना चाह रहे थे पर तभी किसी ने धीमे से कान में कहा, ‘.....चलना..... फ्लाइट......पार्टी.......जायेगी.’ नेता जी अपने-आप से संतुष्ट जनसभा से झटपट चल दिये.

Monday, 16 January 2017

क्यों चुनते है हम अपराधिक छवि के नेताओं को?
राजनीति में अपराधिक छवि के लोगों का आना हम सब के लिए एक चिंता का विषय होना चाहिए, पर ऐसा है नहीं.
संसद के २०१४ के चुनाव के बाद, एक-तिहाई सदस्य ऐसे हैं जिन के विरुद्ध अपराधिक मामले हैं और इनमें से २१% तो ऐसे सदस्य हैं जिनके विरुद्ध गंभीर मामले हैं.
‘कार्नेगी इंन्डाउमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस’ के ‘मिलन वैष्णव’ का मानना है कि लोग अपराधिक छवि के नेताओं को इस लिए चुनते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ऐसे नेता उनके लिए कुछ कर पायेंगे, खासकर ऐसे प्रदेशों में जहां सरकारी तन्त्र थोड़ा कमज़ोर  हो चुका है.
मिलन वैष्णव की बात कुछ हद तक सही हो सकती है,  पर मेरा मानना है की हम भारतीयों को इस बात से कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता की जिस व्यक्ति को हम चुनकर लोक सभा या विधान सभा या पंचायत वगेरह में भेज रहे हैं उसका चरित्र कैसा है. न्याय की परिभाषा हमारी अपनी ही होती है जो समय और स्थिति के अनुरूप बदलती रहती है. क़ानून और व्यस्था में हमारा अधिक विश्वास नहीं है. दूसरे की सुख सुविधा की चिंता हम कम ही करते हैं.
हम जब सड़कों पर अपनी गाड़ियां दौड़ाते हैं तो इस बात की बिलकुल परवाह नहीं करते कि हमारे कारण दुर्घटना में किसी की जान भी जा सकती है. कुछ दिन पहले जारी की गयी रिपोर्ट के अनुसार २०१५ में लगभग ५ लाख सड़क दुर्घटनाएं घटी जिन में एक लाख सतहत्तर हज़ार लोगों ने जान गवाई, अर्थात हर एक घंटे में कहीं न कहीं बीस लोगों की सड़क दुर्घटनाओं में मृत्यु हुई.
यह एक भयावह स्थिति है पर कितने लोग हैं जो इस बात को लेकर चिंतित हैं. हम अब भी वैसे ही सड़कों पर अपनी गाड़ियां दौड़ाते हैं जैसे दौड़ाते आये हैं. अधिकतर लोग तो सड़क पर किसी को रौंद कर या आहत कर पल भर को रुकते भी नहीं और दुर्घटना स्थल से तुरंत भाग जाते हैं. कोई विरला ही वहां रुक कर ज़ख़्मी की सहायता करता है. 
इस देश में सिर्फ २४ लाख लोग ही मानते हैं कि उनकी आय दस लाख से अधिक है. यह एक हास्यास्पद बात ही है. एन सी आर में ही दस लाख रुपये कमाने वालों की संख्या शायद २४ लाख से अधिक हो.  सत्य तो यह है की लाखों-लाखों  लोग आयकर से बचने के लिए आयकर रिटर्न भरते ही नहीं या फिर झूठे और गलत रिटर्न भरते हैं.
अपने आस पास देख लें, आपको सैंकड़ों ऐसे घर दिखाई दे जायेंगे जो नियम-कानून की अवहेलना कर बनाये गए हैं या जिनमें नियमों के विरुद्ध फेर-बदल किये गए हैं.
सरकारी कार्यलयों में आपके कुछ ही लोग दिखेंगे जो अनुशासन का पालन करते हुए पुरी निष्ठा और लगन के साथ अपना काम करते हैं. अधिकतर तो बस समय काटते हैं या अपने पद का दुरूपयोग करते हैं.
ऐसे कितने ही उदाहरण आपको मिल जायेंगे जो दिखलाते हैं कि  नियम, व्यवस्था, अनुशासन को लेकर हमारा व्यवहार बहुत ही लचीला है. इस कारण हम लोगों को इस बात से कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता कि जिस व्यक्ति को हम अपना वोट दे रहें हैं वह एक अपराधी है या दल-बदलू है या उसका चरित्र संदेहास्पद है.
अगर ऐसा न होता तो इतनी बड़ी संख्या में अपराधिक छवि के लोग संसद, विधान सभाओं और दूसरी अन्य संस्थाओं के लिए न चुने जाते.  दोष राजनीतिक पार्टियों का उतना नहीं जितना नहीं हमारा है. हम अपने को दोषमुक्त मानने के लिए राजनीतिक दलों को दोषी ठहरा देतें हैं. इस कारण निकट भविष्य में स्थिति में किसी सुधार की आशा करना गलत होगा.


Sunday, 8 January 2017

ओम पूरी ने अगर कहीं ओर जन्म लिया होता?
गोविन्द निहालनी के निर्देशन में बनी फिल्म ‘आक्रोश’ देखकर मैं आश्चर्यचकित हो गया था. सबसे चौंकाने वाला था ओम पूरी का अभिनय; लगभग सारी फिल्म में ओम पूरी का एक भी डायलाग नहीं है पर इसके बावजूद उनका अभिनय देखने वाले को झकझोड़ देता है.
उस दिन मन में एक प्रश्न उठा, ‘क्या और अभिनेता है  जो ऐसा अभिनय करने की क्षमता रखता है?’ आज भी जब उस किरदार के विषय में सोचता हूँ तो वह प्रश्न सामने खड़ा हो जाता है.
ओम पूरी ने अभिनय करने की अपनी विलक्षण प्रतिभा का भरपूर प्रदर्शन कई फिल्मों में किया. ‘अर्ध सत्य’ का अनंत वेलेंकर और ‘जाने भी दो यारो’ का आहूजा ऐसे ही दो यादगार किरदार हैं जिन्हें ओम पूरी ने बड़ी सफलता के साथ निभाया था और देखने वालों को मंत्रमुग्ध कर दिया था.  
पर ओम पूरी कभी सुपर स्टार नहीं बन पाये. उन्हें लोगों ने कभी भी उतना सम्मान नहीं दिया जितना वह उन सुपर स्टारों को देतें हैं जिन में अभिनय करने की क्षमता बहुत सीमित है. अगर ओम पूरी जी ने किसी और देश में जन्म लिया होता तो वह अपनी इस प्रतिभा के कारण कब के एक सुपर स्टार बन गए होते. ओम पूरी किसी भी तरह Robert De Niro  या Al Pacino से कम योग्य नहीं थे पर ओम पूरी को अपने देश में वैसा स्थान कभी नहीं मिला जैसा उन दो कलाकारों को अपने देश में मिला है. 
यह विचार करने की बात है कि हम अकसर अतिसामान्य लोगों को सर आँखों पर बैठा लेते हैं और प्रतिभाशाली लोगों की अवहेलना कर देते हैं. आडम्बर हमें सम्मोहित कर देता है और सादगी का हम अपमान कर देते हैं. अपराधियों को हम सत्ता सौंप देते हैं और सीधे-सच्चे लोगों को पीछे धकेले देते हैं. ईमानदारी हमें कष्टकारक लगती है झूठ का रास्ता हमें सरल लगता है.

जिस समाज के लिए सत्य सिर्फ एक नारा भर हो उस समाज में प्रतिभा को रास्ते में खड़े हो कर बिकना ही होगा, सम्मानित तो बस वह होगा जिस के पास प्रतिभा का मोल लगाने का सामर्थ्य होगा.