बहुत देर हो चुकी होगी
नवरात्र के पहले दिन दिल्ली में कुछ युवकों
ने अपने-अपने मोटर साइकलों पर छतरपुर मंदिर जाने का सोचा. एक जगह एक मोटर साइकिल
को एक अंजान गाड़ी ने टक्कर मार दी. उस पर सवार तीनों लड़के घायल हो गए. एक लड़के को
तो उस गाड़ी ने रौंद ही डाला और उसकी घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई.
एक “सच्चे, सभ्य भारतीय” होने के कारण उस
गाड़ी वाले वहां रुक कर घायलों की सहायता करना आवश्यक न समझा. उसने वहां से भाग
जाना ही उचित समझा.
घायल लड़कों के मित्रों ने रास्ते से आने-जाने
वाली गाड़ियों को रोकने का प्रयास किया ताकि वह अपने घायल साथियों को अस्पताल ले जा
सकें. पर बीस मिनट तक कोई भी “सभ्य नागरिक” उनकी सहायता करने को तैयार न हुआ. इस देरी के कारण एक और युवक
की मौत हो गयी और तीसरा समाचार मिलने तक मौत और ज़िन्दगी के बीच लटका हुआ था. तीनों
लड़कों की उम्र उन्नीस के आस-पास थी.
इस घटना के कई पहलु हैं जिन पर हम सब को
सोच-विचार करना होगा.
एक रिपोट क्र अनुसार 2015 में जितनी सड़क दुर्घटनाएं हुईं उन में से 71% दुर्घटनाएं वाहन चालकों की गलती के कारण हुईं. इन वाहन चालकों की गलती के
कारण उस वर्ष 106021 लोगों की मृत्यु हुई और 401756 लोग घायल हुए. अर्थात हर दिन लगभग तीन सौ लोग मारे गए और 1100 से लोग घायल हुए. यह एक ऐसी संख्या है जो किसी भी सभ्य समाज को डरा दे.
और इस से भी डराने और चौंकाने वाली बात यह है
कि इन दुर्घनाओं में साठ प्रतिशत से अधिक दुर्घटनाएं ओवर-स्पीडिंग के कारण हुई.
अधिक गति से वाहन चलाने के कारण यह वाहन चालक लगभग 65000 लोगों की मृत्यु का कारण बने. अर्थात हर एक घंटे में सात से आठ लोगों को
अपनी जान गवांनी पड़ी क्योंकि कुछ लोग सीमा गति के भीतर अपना वाहन चलाने को तैयार
नहीं हैं.
अब ‘हिट एंड रन’ मामलों की बात की जाए; 2015 में 57000 से अधिक ‘हिट एंड रन’ दुर्घटनाएं हुईं. इन
दुर्घटनाओं में कोई 20709 लोग मारे गए और 47000 लोग घायल हुए. एक बात सोचने की है. यह लोग जो किसी को सड़क पर मार कर भाग
जाते हैं वह सब क्या एक तरह से उन मृतकों के हत्यारे नहीं हैं? क़ानून शायद ऐसी
मृत्यु को हत्या नहीं मानता और न ही ऐसे महानुभावों को हत्यारा मानता है, पर जब
कोई तेज़ गति से गाड़ी चालते हुए किसी को मार देता है और फिर रुक कर उसकी सहायता
करना भी आवश्यक नहीं समझता तो वह हत्यारे से कम कैसे हुआ?
हम सब समाज में न ऐसे लोगों को दोषी मानते
हैं और न ही किसी भांति उनका बहिष्कार या तिरस्कार करते हैं. इस कारण इस देश में सड़क दुर्घनाओं में मरने वालों की संख्या बढ़ती
जा रही है. पर यह बात न नेताओं के लिए चिंता का विषय है न जनता के लिए. मीडिया तो
सिर्फ टीआरपी के पीछे भागता है मीडिया से क्या अपेक्षा की जा सकती है.
अब अंतिम बात, हम सब जो अपने आप को धार्मिक
मानते है, मंदिर-मस्जिद के लिए लड़ मरने को तैयार है, देवों के दर्शन करने के लिए
मंदिरों की लाइन में घंटों लगे रहते हैं,
जप-तप व्रत सब करते हैं, हम सब अपने कितने ही सहज भाव से आसपास के लोगों को लेकर
पूरी तरह तटस्थ रहते हैं, हमारे सामने सड़क पर गिरा कोई घायल व्यक्ति हमारे लिए कोई
मायने नहीं रखता.
हमें कभी यह अहसास नहीं होता कि शायद किसी
दिन हमारा कोई प्रियेजन (या फिर हम स्वयं ही) यूँही सड़क पर घायल पड़ा होगा और
सैंकड़ों लोग आस-पास तटस्थ से खड़े रहेंगे, अपनी-अपनी जेबों में हाथ डाले. बीसियों
गाड़ियां पास से निकल जायेंगी पर कोई उसकी/हमारी सहायता को नहीं रुकेगा. उस दिन हम
इस समाज को धिक्कारेंगे. पर तब तक बहुत देर हो चुकी होगी.
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