क्या यह आतंकवाद नहीं है?
कोई पचासेक वर्षों से हम इस देश किसी न किसी तरह के आतंकवाद को झेल रहे
हैं. आतंकवाद की कुछ घटनाएं तो इतनी भयावह थीं कि उन घटनाओं को हम शायद कभी भुला
भी न पायें.
इन्टरनेट पर बहुत खोज करने के बाद भी मैं आतंकवादी घटनाओं में मारे गए
लोगों की कोई अधिकृत संख्या जान न पाया. विकिपीडिया में दी गई जानकारी के अनुसार
पिछले दस वर्षों (2006 से 2015 तक) में घटी घटनाओं में 5789 लोग मारे गए और 10331 लोग घायल हुए. ज्यूइश वर्चुअल लाइब्रेरी की साईट पर दी गई जानकारी के
अनुसार 2012 से 2016 के बीच 1680 लोग मारे गए और 3059 घायल हुए.
स्वाभाविक है कि आतंक को लेकर हम सब चिंतित है. मीडिया में इस विषय पर
लगातार चर्चा होती रहती है. सरकार ने आतंकवाद से झूझने के लिए कई कदम उठाये हैं और
इस सारे बंदोबस्त पर करोड़ों (शायद अरबों?) रूपए खर्च कर दिए हैं. जनता, मीडिया, विपक्ष
सब सरकार के जवाबदेही चाहते हैं और यह भी अपेक्षा करते हैं कि आतंकवाद से निपटने
के लिए और कारगर कदम उठाये जाएँ.
पर एक अन्य प्रकार के आतंक से यह देश बरसों से पीड़ित हैं पर उसको लेकर हम सब पूरी तरह बेपरवाह
और निश्चिन्त हैं.
उस आतंक की गंभीरता को समझने के लिए कुछ आंकड़ों को जान लेना आवयश्क है.
जहां एक ओर पिछले दस वर्षों में अलग-अलग आतंकवादी घटनों के कारण अगर पाँच
से छह हज़ार लोग मारे गए हैं और दस हज़ार के आसपास घायल हुए हैं तो वहीं दूसरी ओर उसी
कालावधी में इस अलग प्रकार के आतंक के कारण 13,04,345 लोग मारे गए और पचास लाख से अधिक लोग
घायल हुए. यह आतंक है सड़क पर घटने वाली दुर्घटनाएं.
पर आश्चर्य है कि हम सब ने इस आतंक को कितने सहज भाव से स्वीकार कर लिया. न
इस पर मीडिया में चर्चा होती है, न विपक्ष के लिए यह एक मुद्दा है.
आतंकवादी की गोली से आहत एक व्यक्ति की मृत्यु पूरे देश को हिला कर रख देती
है. पर सड़क दुर्घटनाओं के कारण हर दिन चार
सौ से अधिक लोग मारे जाते हैं, पर हमारे लिए यह मौतें कोई मायने नहीं रखती. दुर्घटना में मरने वाले किसी
जानकार की अर्थी को कन्धा दे कर हम कर्तव्य-मुक्त हो जाते हैं.
क्या इस बेपरवाही का कारण यह तो नहीं है कि हम सब इन मौतों के लिए
जिम्मेवार हैं, हम सब यह सच्चाई भीतर से
जानते हैं और इसी कारण इसे कोई मुद्दा नहीं बनाना चाहते.
यह बात मैं इस लिए कह रहा हूँ क्योंकि आंकड़ों के अनुसार 77% सड़क दुर्घटनायें वाहन चालकों की गलती के कारण होती हैं. अर्धात इस देश
में हर दिन तीन सौ से अधिक लोग वाहन चालकों की गलती के कारण अपनी जान
गंवाते हैं. इन तीन सौ मौतों में से दो सौ से अधिक मौतें उन वाहन चालकों के
कारण होती हैं जो या तो अपना वाहन तेज़ गति से चलाते हैं या फिर नशे की हालत में अपनी
गाड़ी चलाते हैं. आपको याद दिला दूं कि 1993 के मुंबई बम धमाकों में लगभग 300 लोग ही मारे गए थे.
एक आतंकवादी किसी मॉल या मार्किट में आकर अंधाधुंध गोलियां चलाता है या
वहां बम-विस्फोट करता है, कुछ लोग घायल होते हैं या मारे जाते हैं. हम हर दिन
सड़कों पर अंधाधुंध अपनी गाड़ियाँ दौड़ाते हैं, तेरह सौ से अधिक दुर्घटनाएं करते
हैं, हर दिन तीन सौ से अधिक लोगों को मार
गिराते हैं, एक हज़ार से अधिक लोगों को घायल कर देते है. क्या यह एक प्रकार का
आतंकवाद नहीं है? यह भी बताना उचित होगा कि कुछ आतंकवादियों की भांति कुछ वाहन
चालक इन हादसों में मारे जाते हैं.
अगर वाहन चालकों की गलती के कारण तीन सौ से अधिक लोग हर दिन मर रहे हैं तो हम
सड़क दुर्घटनाओं को बहस का मुद्दा कैसे बना सकते हैं. और अगर हम इसे बहस का मुद्दा
बनायेंगे तो क्या हम स्वयं को ही कटघरे में खड़ा नहीं पायेंगे?
आप कहेंगे कि यह सिस्टम की गलती है जो ऐसे लोगों को लाइसेंस दे देता है जो
अयोग्य हैं; ट्रैफिक पुलिस अपना काम ठीक से नहीं करती; नियम-कानून में खामियां है.
यह सब सही है, लेकिन हम सब यह बात
क्यों नहीं समझते कि लापरवाही से गाड़ी चलाने के कारण हम दूसरों के लिए एक खतरा तो
बनते ही हैं, हम अपनी जान को भी तो जोखिम में डाल देते हैं.
गाड़ी का स्टीयरिंग व्हील हाथ में पकड़ते ही हम इतने विवेकहीन कैसे हो जाते
हैं यह बात मैं आज तक नहीं समझ पाया.
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