Saturday, 18 December 2021

 

‘हम सरकारी कर्मचारी हैं’

नौकरी में बहाल होने पर चंद्रप्रकाश जब पहली बार कार्यालय आया तो सबसे पहले वह उस अधिकारी से मिला जिसकी रिपोर्ट के आधार पर उसे सेवामुक्त किया गया था. बड़ी विनम्रता के साथ उसने कहा, “सर, मैं जीवनभर आपका आभारी रहूँगा. आपके कारण ही मुझे इस बात का ज्ञान हुआ है कि सरकारी नौकरी से किसी को अलग करना सरकार के लिए कठिन ही नहीं लगभग असंभव है...लगभग क्यों? नहीं सर, पूरी तरह असंभव है. पहले मैं डरा रहता था कि कहीं कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा. अब आपकी अनुकंपा से मैं पूरी तरह निश्चिन्त हो गया हूँ. आपका बहुत-बहुत धन्यवाद.”

चंद्रप्रकाश को तीन वर्ष पहले हमारे विभाग ने नौकरी से हटा दिया था. उस समय उसकी नौकरी तीन वर्ष की ही थी. उन तीन वर्षों में उसके विरुद्ध बीसियों शिकायतें आई थीं. समय पर आने-जाने का वह आदि नहीं था. हर दो-चार दिन बाद बिना अनुमति के गायब हो जाता था. अन्य कर्मचारियों और अधिकारियों के साथ उसकी तू-तू मैं-मैं चलती ही रहती थी. एक बार किसी के साथ उसकी खूब हाथापाई भी हुई थी. जो काम उसे सौंपा गया था उसे न तो उसने कभी समझा था और न ही कभी निपटाया था. उसे कई बार समझाया और चेताया गया पर उसके व्यवहार में कोई सुधार न हुआ था.

हार कर उसके उपनिदेशक ने अपनी रिपोर्ट में लिख दिया था कि परिवीक्षा की अवधि समाप्त होने पर उसे सेवामुक्त कर दिया जाए. और वैसा ही हुआ.

चंद्रप्रकाश इतनी जल्दी हार मानने वाला न था. वह जानता था कि जीवन एक संघर्ष है. इसलिए हर प्रकार की लड़ाई लड़ने के लिए वह तत्पर रहता था. उसने बहुत हाथ-पैर मारे, पर विभाग ने उसे बहाल न किया. तब उसने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया. दो-ढाई वर्ष केस अदालत के विचाराधीन रहा और अंत मैं वह विजयी हुआ.

चंद्रप्रकाश ने अपनी कुर्सी पर विराजते ही एक पाँव मेज़ के ऊपर रखा और दूसरा नीचे और अपना दांया कान खुजलाने लगा. उसने वहीं से चिल्लाकर बड़े बाबू से पूछा, “बड़े बाबू, हमारा तीन साल का वेतन वगेरह कब दे रहे हैं?”

उसकी आवाज़ में ऐसी खनक थी कि बड़े बाबू सहम गये. फिर बड़े अदब से बोले, “चंद्रप्रकाश जी, आपने आज ही ज्वाइन किया है. अदालत के आदेश अनुसार उचित का कार्यवाही आज ही शुरू कर दी जायेगी. आप पूरी तरह निश्चिन्त रहें.”

“वह तो आपको करना ही है. कोई एहसान नहीं कर रहे मुझे पर, अदालत की अवमानना करने से तो आप रहे. बस मेरा यह विनम्र निवेदन हैं कि अगर शीघ्र भुगतान कर देंगे तो सब के लिए अच्छा होगा.”

बड़े बाबू मन ही मन झल्लाए और हौले से, बिलकुल हौले से बुदबुदाये, “पहले ही आठ में से सिर्फ चार लोग ढंग से काम करते हैं. लगता है इसको देखकर वह भी काम करना बंद कर देंगे.”

चंद्रप्रकाश ने रामखिलावन की ओर देखा और बोला, “क्या रामखिलावन, तुम तो फाइलों में ऐसे घुसे हो जैसे शहतूत के पत्तों में रेशम का कीड़ा.” फिर वह अपनी ही बात पर खिलखिलाकर हँस दिया.

एक-दो बाबुओं ने भी ज़ोर का ठहाका लगाया. बड़े बाबू जलभुन कर रह गये.

रामखिलावन थोड़ा अचकचाया, “नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. बस ज़रा यह रिपोर्ट तैयार करनी है. बड़े बाबू बार-बार कहते रहते हैं.”

“आप जानते हैं यह रिपोर्ट कब जानी थी?” बड़े बाबू अपने को रोक न पाए. “10 अप्रैल को, पिछले वर्ष की 10 अप्रैल को. इस वर्ष की रिपोर्ट भेजने का भी समय जल्दी आ जाएगा और हमने अभी पिछले साल की रिपोर्ट नहीं भेजी.”

बड़े बाबू की पूरी तरह अवहेलना करते हुए चंद्रप्रकाश बोला, “अरे भाई, चाय-वाय पीने नहीं चलना. बाद में गरमागरम समोसे नहीं मिलेंगे. इतना काम करके कुछ न मिलेगा. हमें देखो, काम में सिर खपाते रहे और मिला क्या? तीन साल अदालतों के चक्कर काटने पड़े. इससे तो अच्छा है हाथ पर हाथ धरे बैठे रहो, न कोई गलती होगी, न मुसीबत झेलनी पड़ेगी.”

इस बीच उसने कान खुजलाना बंद न किया था. उसकी बातों का रामखिलावन पर इतना प्रभाव पड़ा कि सारी फाइलें वैसे ही मेज़ पर छोड़ कर चंद्रप्रकाश के साथ कैंटीन चल दिया.

उसी ने चाय-समोसे का आर्डर दिया और फिर धीरे से बोला, “भाई, प्रमोशन नहीं हो रही, दो बार केस डीपीसी के सामने गया था और दोनों बार ही अयोग्य कह दिया.”

“मेरी मानो तो सीधा कोर्ट में जाओ. वहीं न्याय मिलेगा. यहाँ बैठ कर अर्जियां लिखने से कुछ न होगा.”

“पर मुझे तो कोई जानकारी नहीं है कि.....”

चंद्रप्रकाश ने उसे बात पूरी न करने दी, “मैं किस लिए बैठा हूँ, मैं सहायता करूँगा. तुम ऐसा करो, विभाग में सब को बता दो. जिसका भी कोई भी मामला फँसा हुआ है, मैं मदद करूँगा. कोर्ट के इतने धक्के खायें है तो किसी को तो मेरे अनुभव का लाभ मिलना चाहिए. क्यों गलत कर रहा हूँ क्या?”

उस दिन से चंद्रप्रकाश कई कर्मचारियों के कानूनी सलाहकार बन गया है. किसी की प्रमोशन रुका है, किसी का वरिष्ठता का केस है, किसी के वेतन में कटोती का मामला है और किसी का कुछ और. चंद्रप्रकाश सब को सलाह देने लगा है. और बहुत व्यस्त रहता है.

जब से चंद्रप्रकाश नौकरी में बहाल हुआ है, बड़े बाबू चिंतित रहते हैं. पिछले बारह वर्षों से वह एक ही पद पर अटके हुए हैं. अब तीन-चार वर्षों में रिटायर हो जायेंगे. अभी अगर प्रमोशन न हुआ तो इसी पद से रिटायर हो जाना पड़ेगा. फिर मरते दम तक मलाल रहेगा कि पैंतीस साल नौकरी करने के बाद भी ‘क्लास वॅन’ अफसर नहीं बन पाए.

बेचारे बहुत मेहनत करते हैं, फिर भी भाग्य है कि अनुभाग का कार्य उनसे सही ढंग से संभल नहीं पाते. उनके अनुभाग का कोई भी बाबू मन लगा कर काम करने को तैयार नहीं है. कोई निठ्ठला बैठा रहता है, कोई अपने अभिवेदन या कोर्ट केस में व्यस्त रहता है, अधिकाँश को चंद्रप्रकाश की तरह कान खुजलाने के लत लग गई है. इसी कारण बड़े बाबू सदा खिन्न रहते हैं.

चंद्रप्रकाश को बड़े बाबू पर दया आई. एक दिन उन्हें समझाने लगा, “बड़े बाबू, आपको अधिक चिंता नहीं करनी चाहिए. हम सरकारी कर्मचारी हैं, किसी के व्यक्तिगत चाकर नहीं. और इस सरकारी नौकरी में रखा ही क्या है जो इतना सिर मार रहे हैं? ठीक से दो टैम की रोटी भी नहीं मिलती. बस एक ही बात है जो सही है, कोई हाथ नहीं लगा सकता. इसलिए कहता हूँ इतनी चिंता करने की ज़रुरत नहीं है. और रही प्रमोशन की बात, उसके लिए काम करना अनिवार्य नहीं है. बस रिकॉर्ड ठीक होना चाहिए. अब इतना काम करेंगे तो कोई न कोई गलती हो जायेगी और रिकॉर्ड खराब हो जाएगा.”

इतना कह कर चंद्रप्रकाश ने एक पाँव मेज़ पर रखा और आँख मूंद कर बड़ी तन्मयता से कान खुजलाने लगा. उसका हावभाव देखकर ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उसे परम आनन्द की अनुभूति हो रही है.

बड़े बाबू चंद्रप्रकाश का प्रवचन सुन कर असमंजस की स्थिति में हैं. वह तय नहीं कर पा रहे कि क्या करें, क्या न करें.

उपलेख: यह लेख एक सत्य घटना से प्रेरित होकर कई वर्ष पहले लिखा था. शायद इस बीच स्थिति बदल गई हो, पर मुझे नहीं लगता कि कोई सुधार हुआ होगा.

 

Thursday, 16 December 2021

 

क्या भारत एक हिन्दू राष्ट्र बन गया है?

आप को क्या लगता है, भारत क्या एक हिन्दू राष्ट्र बन गया है?” मुकंदी लाल जी ने पूछा.

“सच कहूँ तो मुझे तो ऐसा ही लगता है.”

“क्यों? क्यों ऐसा लगता है आपको?” मुकन्दी लाल जी को शायद मेरी बात अच्छी न लगी.

“भई, जब देश का प्रधान मंत्री राम मंदिर का शिलान्यास करता है, काशी जाता है......”

“पर....”

“मुझे अपनी बात पूरी तो कर लेने दें.....सुनिए, जिन्होंने राम सेवकों पर गोली चलवाई थी आज वह भी राम नाम जपने लगे हैं. जिनकी सरकार ने राम के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाया था वह भाई-बहन मंदिर-मंदिर जा ही रहे हैं, भगवा पहन रहे हैं, गंगा स्नान कर रहे हैं. और जिनकी नानी को मस्जिद गिरा कर राम मंदिर बनवाना पसंद न था वह भी जय श्री राम के नारे लगा रहे हैं.”

“तो इतने भर से हम हिन्दू राष्ट्र ही गये?” मुकन्दी लाल जी मेरी बात से सहमत न थे.

“पर आप मुझे यह बताइये कि हम सेक्युलर कब थे?” मैंने उलट कर प्रश्न किया.

“हम तो सदा से सेक्युलर थे, संविधान में लिखा है.”

“यही तो भूल करते हैं आप सेक्युलर लोग.  संविधान में शुरू से नहीं लिखा था. यह तो 1976 में संशोधन हुआ था-उस समय जब देश में इमरजेंसी लगी हुई थी. पर हमारा सेकुलरिज्म सिर्फ किताबी ही था, 1976 से पहले भी और 1976 के बाद भी, आप माने न माने, ?”

“ऐसा कैसे कह सकते हैं आप?”

“अगर हम सेक्युलर थे, तो यूनिफार्म सिविल कोड क्यों नहीं बनाया गया? ? शाहबानो के केस में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को क्यों बदल दिय? सिर्फ मंदिरों के चढ़ावे पर क्यों टैक्स लगता है? क्यों मंदिरों पर ही सरकारें नियन्त्रण लगाती हैं? और .........”   

“आप लोग बात कहाँ की कहाँ ले जाते हैं,” मेरी बात सुन कर मुकन्दी लाल जी खफा हो गये.

 

Tuesday, 14 December 2021

 

पाति-एक मित्र के नाम

बाग़  में  जब आती थी चिनार के सूखे पत्तों की बाढ़,

चुपचाप देखते रहते थे हम पर्वतों की चोटियाँ-

वो ले लेती थीं घुमक्कड़ बादलों की आड़,

डल झील के किनारे चलते रहते थे मीलों-मील,

चुपचाप सुनते थे दूर जाती

किसी नाव के चप्पुओं की धीमी-धीमी थाप,

यूहीं खड़े हम  देखते रहते थे

पानी पर झूमती लहरें को,

अचानक छू जाती थी मन को

किसी नादान बच्ची की मुस्कान,

बंद रोशनी में सुनना पुराने गीत,

ख़ामोशी को बना लेना मन का मीत,

सब याद है, कुछ भी भुला नहीं

इतनी दूर आने के बाद भी,

जैसे रुका हुआ हूँ वहीं पर अभी तक,

जिन पेचदार रास्तों में

सदा के लिये खो गये थे तुम,

उन रास्तों की यादें भी अब

धीरे-धीरे हो रही हैं गुम,

जीवन में कितना खोया कितना पाया,

कितना सोचा कितना जी पाया, 

यह सब पर जैसे है निरर्थक,

मन तो जैसे अभी भी है अटका

ज़मीन पर बिखरे चिनार के सूखे पत्तों में,

डल झील की निर्मल लहरों में,

बंद रोशनी और पुराने गीतों में.

Sunday, 12 December 2021

 संदेह-एक लघु कथा

सिवाय लालाजी के हर किसी को संदेह था कि उसने ही धोबी की बारह वर्षीय लड़की के साथ दुष्कर्म किया था.वह लालाजी का चहेता था और उसे पूरा विश्वास था कि अपनी अकूत संपदा का वह उसे ही अपना वारिस बनायेंगे.

वह भी समझ रहा था कि सब उस पर संदेह करते है. यद्यपि किसी के पास कोई प्रमाण न था. लेकिन वह चिंतित था कि कहीं सब मिलकर लालाजी के मन में यह संशय न पैदा कर दें कि दोषी कोई और नहीं, वही था. ऐसी बातों को लेकर लालाजी बहुत संवेदनशील थे. ज़रा सा संदेह भी उनके विश्वास को चोट पहुँचा सकता था.

अगर लालाजी के मन यह बात घर कर गई तो उसका भविष्य अंधकारमय हो जाएगा. उसे कुछ करना होगा, उसने तय किया. कुछ ऐसा करना होगा जिससे लालाजी का उसके प्रति विश्वास  अटूट हो जाए.

रात के खाने पर उसने अचानक कहा, “आप सब लोग क्या सोच रहे हैं मैं अच्छी तरह समझता हूँ. पर लालाजी, यह लोग अकारण ही मुझे दोषी मान रहे हैं. मैं निर्दोष हूँ.....अगर...अगर आप में से कोई भी एक प्रमाण दे दे, ज़रा सा प्रमाण दे दे तो मैं....मैं अपना जीवन समाप्त कर लूंगा.”

उसकी बात सुन कर किसी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. हर कोई उसे घूर कर देखता रहा.

उसने सामने रखी रोटी का एक बड़ा टुकड़ा तोडा. फिर लालाजी की ओर देखते हुए उसने धीमी पर गम्भीर वाणी में कहा, “अगर मैं दोषी हूँ तो यह रोटी का टुकड़ा निगलते ही मेरे प्राण निकल जाएँ.”

उसने रोटी का टुकड़ा निगला और अगले ही पल लुढ़क कर नीचे गिर गया.

Tuesday, 7 December 2021

 

                         कोरोना काल में हमारा मीडिया

मार्च के अंतिम सप्ताह में हमारे परिवार में एक शिशु का आगमन हुआ. स्वाभाविक था कि हमें अस्पताल के कुछ चक्कर लगाने पड़े. अब यही कारण था या कुछ और हमें समझ नहीं आया लेकिन १३ अप्रैल को मेरे बेटे ( शिशु के पिता) को कोरोना हो गया. अगले तीन दिनों के अंदर घर के सभी सदस्य संक्रमित हो गये.

मुझे और मेरी पत्नी को वैक्सीन का एक इंजेक्शन लग चुका था इसलिए हम दोनों को अधिक परेशानी न हुई. चार या पाँच दिन बुखार रहा. फिर हमारी स्थिति में सुधार आने लगा.

लेकिन बेटे और बहु को बहुत कष्ट सहना पड़ा. अस्पताल में भर्ती होने की आवश्यकता तो नहीं आई. परन्तु बहुत मुसीबत झेलनी पड़ी. हमें सबसे अधिक चिंता शिशु की थी. कारण, मेरे बेटे के एक मित्र के परिवार के सब लोगों को जब कोरोना हुआ था तो उसका तीन माह का बच्चा भी इससे प्रभावित हुआ था.

इस कठिनाई के समय में सबसे अच्छी बात यह रही कि हम समाचार पत्रों और मीडिया से दूर रहे. समाचार पत्र तो लॉकडाउन के लगते ही मेरे बेटे ने लेना बंद कर दिया था. टीवी मेरे बेटे ने ले नहीं रखा. इस कारण हमें इस बात से पूरी तरह अनभिक्ष थे कि समाचार पत्रों में क्या लिखा जा रहा था और टीवी पर क्या दिखाया जा रहा था.

मई के अंत में जब हमारी गाड़ी पटरी पर लौटी तो जम्मू में माँ की तबियत बिगड़ने लगी. जून के शुरू होते ही हम जम्मू चले गये और वहाँ भी मीडिया से दूरी बनी रही. माँ कैलाशवासी हो गईं और मध्य-जुलाई में वापस लौटे.

यहाँ आकर पता चला कि कोरोना काल में मीडिया ने किस प्रकार की रिपोर्टिंग की थी. लौट कर जिससे भी हमारी बात हुई उसने यही कहा कि कठिनाई के समय में मीडिया से दूरी बना कर हमने बड़ी समझदारी का काम किया था.

जब देश में लोग एक भयावह स्थिति का सामना कर रहे थे, तब  मीडिया के प्रतिष्ठित महानुभाव लोगों का मनोबल तोड़ने का पूरा प्रयास कर रहा था. ऐसे-ऐसे दृश्य दिखाए गये कि भले-चंगे लोग भी सहम गये थे.

चूँकि मैंने स्वयं यह समाचार देखे या पढ़े नहीं इसलिय किसी निर्णय पर पहुँचना सरल नहीं है. लेकिन यू ट्यूब चैनलों पर कुछ विश्लेषकों को सुना उससे पता चलता है कि कोरोना काल में भी मीडिया राजनीति करने से नहीं चूका.  लेकिन यह आश्चर्यजनक नहीं है. इन लोगों की कौन फंडिंग कर रहा है वह जानना भी कठिन है. यह लोग किस के एजेंडा पर चल रहे हैं उसका अनुमान ही लगाया जा सकता है.

Friday, 3 December 2021

 

मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी

“तो आप का कहना है...किसी को सब्सिडी नहीं मिलनी चाहिए?” मुकन्दी लाल जी ने पूछा.

“प्रश्न यह नहीं है कि सब्सिडी मिलनी चाहिए या नहीं मिलनी चाहिए. प्रश्न यह है कि किसे मिलनी चाहिए और कब तक.” 

“अर्थात?”

“मुफ्त बिजली की ही बात करते हैं. मान लीजिये एक आदमी है जो एक महीने में पचास हज़ार रूपये कमाता है और उसका पड़ोसी पूरे साल में पचास हज़ार कमाता है. तो आपके विचार में क्या दोनों को एक समान बिजली पर सब्सिडी मिलनी चाहिए?”

“नहीं, बिलकुल नहीं.”

“अभी क्या हो रहा है. जिसकी आर्थिक स्थिति विषम नहीं है उसे भी सब्सिडी दी जा रही है. हर ओर मुफ्तखोरी चल रही है. नेता भी खुश लोग भी खुश.”

“क्यों?”

“राजनीति के लिए. मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त साड़ियाँ, मुफ्त..मुफ्त...यह सब वोटरों को लुभाने के तरीकें हैं. नेता अपनी जेब से पैसे तो खर्च कर नहीं रहे...ऐसा नहीं है कि उनके पुरखे कुबेर का खज़ाना छोड़ गये थे जो यह लोगों में मुफ्त में बाँट रहे हैं.... आपका ही पैसा जिसे यह बाँट कर वोटरों को रिझाते हैं. टैक्स देते जाइए और मुफ्त बिजली लेते रहिये.”

“पर लोगों के आत्मसम्मान को चोट नहीं पहुँचती? खासकर वह जो सम्पन्न हैं?”

“इसका उत्तर तो आप स्वयं दे सकते हैं. क्यों, दे सकते हैं या नहीं?” मैंने घूर कर उन्हें देखते हुए कहा.

मुकन्दी लाल में मेरी बात सुन कर झेंप गये.

Thursday, 2 December 2021

 

            कौन भर रहा है आपका बिजली का बिल?

“इस माह का बिजली का बिल आज आ गया,” मुकंदी लाल जी चहकते हुए बोले.

“कितना है?”

“बिल तो 833.58 रूपये का है पर मुझे तो एक पैसा भी नहीं देना.”

“क्यों?”
“क्यों क्या अर्थ?
828.72 रुपये की सब्सिडी दी है हमारी कृपानिधान सरकार ने. बाकी रकम दस से कम है तो बस इसलिए जीरो बिल है. पर आप तो ऐसे कह रहे हैं कि आपको सब्सिडी नहीं मिलती?”

“भई, मैं भी तो यहीं रहता हूँ. मुझे भी मिलती है. पर आपने कभी सोचा है कि आपका बिजली का बिल कौन भर रहा है?”

“इससे मुझे क्या लेना-देना? यह काम सरकार का है. वह सब्सिडी दे रही है तो वह भर रही होगी.”

“हाँ, भर तो रही है पर जानते हैं कि इस सब्सिडी का पैसा जुटाने के लिए सरकार जो टैक्स लगाती है वो टैक्स गरीब से गरीब आदमी को भी देना पड़ता है. यह समझ लीजिये कि रास्ते में भीख मांगता भिखारी भी जब अपनी भीख के पैसे से कुछ खरीदता है तो वह भी टैक्स अदा करता है. उसी टैक्स से आपको सब्सिडी मिलती है.”

“अर्थात उसकी भीख का कुछ अंश मुझे मिल रहा है?’

“एक मायने में ऐसा ही है.”

“अगर सरकार ने पैसे उधार लिए हों तो?”

“वह रकम चुकाने के लिए भी टैक्स लगाना पड़ेगा, कभी न कभी.”

मुकन्दी लाल जी मेरी बात सुन कर खामोश हो गये. मैं समझ रहा था कि वह क्या सोच रहे थे. वह बहुत स्वाभिमानी व्यक्ति हैं पर आज उनके स्वाभिमान को थोड़ी ठेस लग गयी थी.

Monday, 29 November 2021

 

एक पुराना किस्सा

“आज एक पुराना किस्सा याद आ गया,” मुकन्दी लाल जी आज फिर बीते दिनों में पहुँच गये थे. “एक वकील के साथ मेरा पहली बार वास्ता पड़ा था. सुनेंगे?”

“अरे, आप सुनाये बिना रह पायेंगे क्या?” मैंने हंसते हुए कहा.

“हमारे एक कर्मचारी ने ट्रिब्यूनल में केस कर दिया कि बिना ट्रेड टेस्ट पास किये उसे प्रमोशन दी जाए. हम ने कहा कि नियमों के अनुसार ऐसा नहीं हो सकता. जो लोग ट्रेड टेस्ट पास करेंगे उन्हें ही प्रमोशन के लिए विचार किया जा सकता है. पर वह माना नहीं और उसने ट्रिब्यूनल में केस कर दिया. मैने डीडीजी के अनुमति लेकर फाइल कार्मिक विभाग को भेज दी और उन्होंने भी कहा कि ट्रेड टेस्ट पास करने के बाद ही किसी की प्रमोशन हो  सकती है. फाइल लेकर मैं सरकारी वकील से मिलने गया. उन्होंने भी कहा कि हमारा निर्णय सही है. उन्होंने आश्वासन दिया कि ट्रिब्यूनल एक ही सुनवाई में उक्त अर्जी खारिज कर देगा.”

“तो अवश्य ही ऐसा नहीं हुआ होगा?” मैंने चुटकी लेते हुए कहा.

“साहब, सुनवाई के दिन तो गज़ब हो गया. मैं भी ट्रिब्यूनल गया था, मेरा पहला अनुभव था. पूरा हॉल भरा हुआ था. हॉल के बीचोंबीच एक जंगला था. मुझ जैसे अधिकारी एक ओर खड़े या बैठे थे. दूसरी और ट्रिब्यूनल के मेम्बर्स के बैठने के लिए विशाल मंच थे और उनके सामने सब वकील थे. हमारे केस की बारी आई तो हमारे सरकारी वकील ने कहा कि विभाग ने कर्मचारी के केस को पुनर्विचार करने के निर्णय लिया है. उनकी बात सुन कर ट्रिब्यूनल ने अगली तारीख देकर सुनवाई खत्म कर दी. इस सब में तीस सेकंड भी नहीं लगे होंगे. मैं दंग रह गया. समझ ही नहीं आया कि क्या हुआ था, क्योंकि न हमने ऐसा कोई निर्णय लिया था और न ही उन्हें ऐसा ब्यान देने के लिए कहा था. मैं तुरंत भागा कि वकील साहब से कहूँ कि उन्होंने ने ऐसा बयान क्यों दिया था. जब तक भीड़ को चीरते हुए मैं बाहर आया वकील साहब पहले दरवाज़े से बाहर निकल, किसी दूसरी कोर्ट में जा चुके थे.”

“आश्चर्य है!”

“तब मुझे भी आश्चर्य हुआ था. गुस्सा भी आया था. मैंने आकर अपने डीडीजी को यह बताई और कहा कि हमें विधि मंत्रालय को शिकायत करनी चाहिए.”

“फिर?”

“वह अनुभवी अधिकारी थे. मुस्कराए. बोले, अभी पाँच साल की ही नौकरी है तुम्हारी. आज पहली बार कोर्ट या ट्रिब्यूनल गए थे. इसलिए उत्तेजित हो रहे हो. धीरे-धीरे समझ आएगी.”

“शायद ठीक ही कहा था उन्होंने,” मैंने टिपण्णी क्यों की वकीलों के साथ मेरा अपना अनुभव भी कोई ख़ास अच्छा न था.

“बाद में कई बार वकीलों से वास्ता पड़ा. और धीरे-धीर समझ आ ही गया कि.......”

…..लोग क्यों कामना करते हैं कि कभी अदालत न जाना पड़े, कभी वकीलों के मुँह न लगना पड़े,” मैंने सिर हिला कर बीच में टोक कर कहा.

उपलेख: यह किस्सा सत्य घटना पर आधारित है. आगे चल कर वकील साहब कुछ समय के लिए भारत सरकार के एएसजी भी बने.        

Thursday, 25 November 2021

 क्या यह लोग हिंदू विरोधी नहीं हैं?

किसान कानूनों के वापस लेने के परिपेक्षय में नागरिकता कानून को लेकर लेफ्ट-लिबरल और कुछ नेता सक्रिय हो रहे हैं. इनके बयानों को सुन कर प्रश्न उठता है कि क्या यह लोग हिंदू विरोधी नहीं हैं?

नागरिकता कानून के अंतर्गत उन लोगों को नागरिकता देने का प्रावधान है जो बँगला देश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अल्पसंख्यक हैं और जो धार्मिक उत्पीड़न के कारण 2014 से पहले भारत आ गये थे.

पाकिस्तान और अफगानिस्तान में तो हिंदुओं की संख्या अब न के बराबर ही है. बँगला देश में भी हिंदुओं की संख्या बहुत घट गई है. इसलिए स्वाभाविक है कि धार्मिक उत्पीड़न के चलते, इन देशों से भारत में आये लोगों में सबसे बड़ी संख्या हिन्दुओं की है.

इस कानून के द्वारा भारत के किसी नागरिक की नागरिकता खत्म करने का कोई प्रावधान नहीं है और न ही किसी का कोई अधिकार छीना जा सकता है. इसलिए जब लेफ्ट-लिबरल वगेरह इस कानून को वापस लेने की मांग करते हैं तो एक तरह से वह मांग कर रहे हैं कि भारत से आये हिन्दुओं को भारत की नागरिकता न दी जाए.

विचारणीय है कि जब पिछले दिनों बँगला देश में हिन्दुओं पर फिर से हमले हुए थे तब इन लेफ्ट-लिबरल या इन नेताओं  ने इसके विरोध में एक शब्द भी न कहा था. (वेस्ट बंगाल के हिन्दुओं की चुपी तो चिंता का विषय होनी चाहिए). अगर ऐसे हमले यू पी या गुजरात में एक वर्ग विशेष पर हुए होते तो नश्चय ही यह लेफ्ट लिबरल दिल्ली से लेकर न्यू यॉर्क तक छाती पीट कर रो रहे होते.

तो क्या इस व्यवहार को देखते हुए, यह अनुमान लगाना गलत होगा की यह लोग हिंदू विरोधी हैं और हिंदू विरोध में ही नागरिकता कानून को वापस लेने की मांग कर रहे हैं?

उपलेख: क्या कश्मीर से मार कर भगाए गये हिन्दुओं के समर्थन में जेएनयू में कभी कोई प्रदर्शन हुआ था? क्या लेफ्ट लिबरल लोग मोमबत्तियां लेकर जंतर-मंतर या कहीं ओर कभी इकट्ठे हुए थे?