एक पुराना किस्सा
“आज एक पुराना किस्सा याद आ गया,”
मुकन्दी लाल जी आज फिर बीते दिनों में पहुँच गये थे. “एक वकील के साथ मेरा पहली
बार वास्ता पड़ा था. सुनेंगे?”
“अरे, आप सुनाये बिना रह पायेंगे
क्या?” मैंने हंसते हुए कहा.
“हमारे एक कर्मचारी ने ट्रिब्यूनल में
केस कर दिया कि बिना ट्रेड टेस्ट पास किये उसे प्रमोशन दी जाए. हम ने कहा कि
नियमों के अनुसार ऐसा नहीं हो सकता. जो लोग ट्रेड टेस्ट पास करेंगे उन्हें ही
प्रमोशन के लिए विचार किया जा सकता है. पर वह माना नहीं और उसने ट्रिब्यूनल में
केस कर दिया. मैने डीडीजी के अनुमति लेकर फाइल कार्मिक विभाग को भेज दी और
उन्होंने भी कहा कि ट्रेड टेस्ट पास करने के बाद ही किसी की प्रमोशन हो सकती है. फाइल लेकर मैं सरकारी वकील से मिलने
गया. उन्होंने भी कहा कि हमारा निर्णय सही है. उन्होंने आश्वासन दिया कि
ट्रिब्यूनल एक ही सुनवाई में उक्त अर्जी खारिज कर देगा.”
“तो अवश्य ही ऐसा नहीं हुआ होगा?”
मैंने चुटकी लेते हुए कहा.
“साहब, सुनवाई के दिन तो गज़ब हो गया.
मैं भी ट्रिब्यूनल गया था, मेरा पहला अनुभव था. पूरा हॉल भरा हुआ था. हॉल के
बीचोंबीच एक जंगला था. मुझ जैसे अधिकारी एक ओर खड़े या बैठे थे. दूसरी और
ट्रिब्यूनल के मेम्बर्स के बैठने के लिए विशाल मंच थे और उनके सामने सब वकील थे.
हमारे केस की बारी आई तो हमारे सरकारी वकील ने कहा कि विभाग ने कर्मचारी के केस को
पुनर्विचार करने के निर्णय लिया है. उनकी बात सुन कर ट्रिब्यूनल ने अगली तारीख देकर
सुनवाई खत्म कर दी. इस सब में तीस सेकंड भी नहीं लगे होंगे. मैं दंग रह गया. समझ
ही नहीं आया कि क्या हुआ था, क्योंकि न हमने ऐसा कोई निर्णय लिया था और न ही
उन्हें ऐसा ब्यान देने के लिए कहा था. मैं तुरंत भागा कि वकील साहब से कहूँ कि
उन्होंने ने ऐसा बयान क्यों दिया था. जब तक भीड़ को चीरते हुए मैं बाहर आया वकील
साहब पहले दरवाज़े से बाहर निकल, किसी दूसरी कोर्ट में जा चुके थे.”
“आश्चर्य है!”
“तब मुझे भी आश्चर्य हुआ था. गुस्सा भी
आया था. मैंने आकर अपने डीडीजी को यह बताई और कहा कि हमें विधि मंत्रालय को शिकायत
करनी चाहिए.”
“फिर?”
“वह अनुभवी अधिकारी थे. मुस्कराए.
बोले, अभी पाँच साल की ही नौकरी है तुम्हारी. आज पहली बार कोर्ट या ट्रिब्यूनल गए
थे. इसलिए उत्तेजित हो रहे हो. धीरे-धीरे समझ आएगी.”
“शायद ठीक ही कहा था उन्होंने,” मैंने
टिपण्णी क्यों की वकीलों के साथ मेरा अपना अनुभव भी कोई ख़ास अच्छा न था.
“बाद में कई बार वकीलों से वास्ता पड़ा.
और धीरे-धीर समझ आ ही गया कि.......”
“…..लोग क्यों कामना करते हैं कि कभी अदालत न जाना पड़े, कभी वकीलों के मुँह न लगना
पड़े,” मैंने सिर हिला कर बीच में टोक कर कहा.
उपलेख: यह किस्सा सत्य घटना पर आधारित
है. आगे चल कर वकील साहब कुछ समय के लिए भारत सरकार के एएसजी भी बने.
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