जीवन ने वसंत का रूप ले लिया. हर ओर सुंदर पुष्प थे, पुष्पों की सुगंध थी, रंग-बिरंगी तितलियाँ थीं, चहचहाते पक्षी थे, नीले
आकाश में मधुर गति से तैरते बादलों के गुच्छे थे. हर पल कुछ न कुछ गुनगुनाने को मन
उत्सुक रहता था. जीवन, इन्द्रधनुष समान, इस छोर से उस छोर तक फैला लगता था.
इन्हीं रस भरे दिनों की बात है कि सुधा और सुबोध एक पार्टी में गए थे. अब सुधा
को ठीक से याद भी नहीं कि वह पार्टी किसने दी थी और क्यों दी थी. सुबोध के कई
सहकर्मी पति, पत्नियों के साथ आये थी.
हलके-हलके कहकहों के बीच सुधा कभी एक से बात कर रही थी तो कभी दूसरे से.
तभी तारा गुप्ता ने आकर कहा था, ‘अच्छा, तुम हो सुबोध की भाग्यलक्ष्मी. तुम से
मिलने को मैं बहुत आतुर थी.’
‘मैं भाग्यलक्ष्मी नहीं, सुधा हूँ,’ उसने भोलेपन से कहा था.
‘हाउ स्वीट, तुम सुधा हो, यह मैं भी जानती हूँ. पर क्या तुम जानती हो कि जब
से सुबोध ने तुम से विवाह किया है तभी से उसका भाग्य पलट गया है?’ तारा गुप्ता की
वाणी में ईर्ष्या ही नहीं, कड़वाहट भी थी.
‘मैं कुछ समझी नहीं?’ सुधा सच में ही कुछ समझ न पाई थी.
‘अब इतनी भोली भी तो तुम नहीं हो, या हमें मूर्ख समझती हो? यह जो हीरों का
हार तुमने पहन रखा है, दस बारह लाख से कम का न होगा. कहाँ से आया यह? विवाह के बाद
ही सुबोध को एक से बढ़कर एक बढ़िया पोस्टिंग मिली हैं. जहाँ सब लोग कलम घिस रहे हैं
सुबोध मज़े से नोट छाप रहा है.’
सुधा स्तब्ध रह गयी. उसने कल्पना भी न की थी. ‘सुबोध एक भ्रष्ट अधिकारी
है?’ इस प्रश्न ने उसे झंझोड़ दिया. उसने सुबोध की ओर देखा. अपने मित्रों के साथ
खड़ा वह कोई ड्रिंक ले रहा था. उसकी मुस्कुराहट को देखा, उसकी चमकती आँखों को देखा,
लगा तारा गुप्ता ने अवश्य ही झूठ कहा होगा, सुबोध ऐसा नहीं हो सकता. अनायास ही
उसका हाथ गले में बंधे हीरों के हार की ओर गया. उसने हार छुआ और सिहर उठी. अगर यह
हार दस बारह लाख का है तो इतने पैसे सुबोध के पास कहाँ से आये? उसे लगा कि कहीं से
आकर तपती रेतीली हवा उसके चारों ओर फ़ैल गयी थी. उसे लगा कि उसका दम घुटा जा रहा था.
‘यह हार कितने का है?’ घर लौटते ही उसने पूछा था.
‘इस समय तुम्हें यह क्या सूझा?’
‘यह मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है.’
‘उस दिन बताया तो था.’
‘तुम्हें पोर्ट एरिया का चार्ज कब मिला?’
‘तुम्हें किसने कहा?’
‘तारा गुप्ता ने.’
‘वह चिढ़ती है मुझसे.’
‘क्या तुम घूस लेते हो?’
सुबोध को लगा कि जैसे किसी ने उठा कर उसे धरती पर पटक दिया था और उसकी छाती
पर चढ़ कर बैठ गया था. अचानक शब्दों ने उसका साथ छोड़ दिया. विचार तिरोहित हो गए.
उसने बहुत प्रयास किया पर कुछ कह न पाया.
सुधा इस तरह सीधे और सपाट शब्दों में उससे यह प्रश्न कर बैठेगी इसकी उसने
कल्पना भी न की थी. उसके मन में संदेह तो था कि सुधा को उसका घूस लेना अच्छा न
लगेगा. परन्तु उसे यह आशंका न थी कि उसकी प्रतिक्रिया इतनी तीखी और स्पष्ट होगी.
वह हतप्रभ हो गया, परन्तु थोड़े काल के लिए ही. मन के किसी कोने से आवाज़ आई, चलो
अच्छा ही हुआ, आज नहीं तो कल सुधा को इस बात का पता चलना ही था, आज नहीं तो कल इस
तूफ़ान को आना ही था, आज नहीं तो कल मुझे इस स्थिति को झेलना ही था.
सुधा को किसी उत्तर की प्रतीक्षा न थी. सुबोध के विवर्ण चेहरे को देख कर ही
वह सत्य जान गई थी. उसने कुछ कहा नहीं. इस स्थिति में शब्दों का सहारा लेना उसे
निरर्थक लगा था.
कुछ दिनों तक दोनों एक-दूसरे से खिंचे-खिंचे से रहे थे. सुधा इस बात को
स्वीकारने में अपने-आप को असमर्थ पा रही थी कि उसका पति एक भ्रष्ट अधिकारी था. अब
तक वह समझे बैठी थी कि उसके पिता के समान ही सुबोध एक ईमानदार, चरित्रवान पुरुष
था.
उसकी माँ ने उसे कितनी बार बताया था कि उसके पिता सरकार के जिस विभाग में
कार्यरत थे वहां भ्रष्टाचार ने, एक रोग की भाँति, सभी कर्मचारियों को ग्रसित कर
रखा था. परन्तु उसके पिता ने तो ईमानदारी से कार्य करने का व्रत ले रखा था. इस
कारण उन्हें बहुत कष्ट भी उठाने पड़े थे. एक झूठे मामले में उनके विरुद्ध अनुशासनिक
कार्यवाही भी हुई थी. तीन माह तक वह निलंबित भी रहे थे. परन्तु अपने निश्चय से वह
कभी भी नहीं डिगे थे.
पिता की जो छवि उसके मन पर अंकित हो गई थी उसने उसकी सोच को बहुत प्रभावित
किया था. शायद यही कारण था कि बिना जाने ही उसने मान रखा था कि सुबोध भी एक
ईमानदार अधिकारी था.
अब अचानक एक चक्रवात ने सुधा को घेर लिया था. घर की हर वस्तु उसे दूषित
लगने लगी थी. जितनी भी सुख-सुविधायें सुबोध ने जुटायीं थीं वह सब अपवित्र लगने लगीं
थीं. उसे समझ न आ रहा था कि ऐसा कब तक चलेगा. कई प्रश्न, फन उठाये, नागों समान
उसके सामने खड़े हो गए थे. क्या वह कभी सामान्य हो पायेगी? क्या भ्रष्टाचार से
अर्जित की हुई संपत्ति का भोग कर पाएगी? क्या उनका विवाहित जीवन अभिशप्त हो जाएगा?
जिस चक्रवात में सुधा अनचाहे ही फंस गई थी, समय की मार ने धीरे-धीरे उसे
प्रभावहीन कर दिया. वह कुछ सामान्य हुई. परिस्थितियों को फिर से समझने का उसने
प्रयास किया. सोच-विचार कर उसे एक ही रास्ता दिखाई दिया, उसे सुबोध को समझाना
होगा, उसे सही रास्ते पर लाने का एक प्रयास करना होगा.
बड़े हौले से उसने बात छेड़ी, अपने मन की दुविधा बताई, अपनी इच्छा से अवगत
कराया, अपने प्यार का वास्ता दिया, भविष्य के प्रति उपजी अपनी आशंका की ओर इंगित
किया. परन्तु सुबोध पर किसी बात का कोई प्रभाव न पड़ा. उसके मन में कोई संदेह न
था. उसने कह दिया कि वह जीवन का भरपूर आनंद उठाना चाहता है और ऐसा तभी संभव है जब
पास में धन हो. उसने स्पष्ट कर दिया कि उसे धन चाहिये, धन चाहे कैसा भी हो, चाहे
कैसे भी आये.
सुधा डावांडोल हो गयी. परन्तु फिर भी उसने कई बार सुबोध को टोका, कई बार समझाया,
कई बार रोका. परन्तु सुबोध ने उसकी एक न सुनी और खूब पैसा बनाया. कई बार वह मामलों
को जानबूझ कर उलझा देता था. विवश हो कर दूसरे को उसकी इच्छानुसार पैसे देने ही
पड़ते थे. करोड़ों रूपए की सम्पत्ति उसने कुछ ही वर्षों में इकट्ठी कर ली थी. लेकिन
यह धन-सम्पदा सुधा को रत्तीभर आकर्षित न कर पायी थी.(क्रमशः)
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©आइ बी अरोड़ा