एक निर्दोष पक्षी की
ह्त्या
(एक लम्बी कहानी भाग 1)
‘हम सब प्रयास कर
रहे हैं. हम अपराधी को सज़ा दिला कर ही रहेंगे. अगर यहाँ निर्णय हमारे पक्ष में न
हुआ तो हम अपील दायर करेंगे. हाई कोर्ट जायेंगे. आवश्यक हुआ तो सुप्रीम कोर्ट भी
जायेंगे. परन्तु हम हत्यारे को छोड़ेंगे नहीं. इस बार वह बच न पायेगा. यह चौथी
हत्या है जो उसने की है. आज तक उसे सज़ा नहीं मिली. परन्तु इस बार ऐसा न होगा. हम
उसे सज़ा दिला कर रहेंगे, हमें कुछ भी करना पड़े. बस, प्लीज् आप थोड़ा धैर्य रखें.’
सुबोध सुन रहा था,
पर उसे कुछ भी समझ न आ रहा था. कई विचारों, दुविधाओं व चिंताओं ने उसे एक साथ उसे
घेर लिया था. ‘यह सब क्या हो रहा है? सामने बैठा व्यक्ति जो कुछ कह रहा है क्या
उसका कोई अर्थ भी है? क्या परिस्थितियाँ उसका उपहास कर रही हैं? यह सब उसके साथ ही
क्यों हो रहा है? कहाँ गलती हो गयी? क्या गलती हो गयी?’
एक के बाद एक उठते
प्रश्न उसे विचलित करने लगे. अचानक वह उठ खड़ा हुआ और चल दिया. उसे यह भी ध्यान न
रहा कि वह अकेला न था. सुधा भी साथ थी. सुधा उसके व्यवहार से थोड़ा घबरा गई थी.
लगभग भागती हुई वह उसके पीछे आई.
कार के निकट पहुँच
कर ही सुबोध को पत्नी का ध्यान आया. वह एकदम पलता. पलटते ही सुधा को अपने सामने
पाया. उसे लगा कि वह उसे ऐसे देख रही थी जैसे कि वह उसका पति नहीं कोई अपरिचित हो.
उस क्षण उसे लगा कि अब वह सब कुछ खो बैठा था.
‘तुम्हें आश्चर्य हो
रहा है?’ सुधा का प्रश्न एक खंजर-सा उसके भीतर चुभ गया. बिना कुछ कहे ही वह गाड़ी
चलाने लगा. उसे उस दिन की याद आई जिस दिन वह नई गाड़ी लेकर घर आया था. पुरानी कार बस एक वर्ष पुरानी थी. फिर भी, जैसे ही एक नया मॉडल बाज़ार में आया था, उसने नवानी
को फोन कर नई कार लेने की अपनी इच्छा व्यक्त की थी. नवानी का केस उसके पास फंसा
हुआ था.
अगले ही दिन नई गाड़ी
लेकर नवानी हाज़िर हो गया था. गाड़ी देखकर सुबोध चहक उठा था. ‘नवानी साहब, आपका
चुनाव तो लाजवाब है. क्या कलर चुना है. अब समस्या यह है कि इस पुरानी कार का क्या
करूं?’
नवानी के लिए संकेत
ही बहुत था. पुरानी गाड़ी वह साथ लेता गया था. दो दिन बाद उसने चार लाख रूपए भिजवा
दिए थे. सुबोध ने मन ही मन कहा था, ‘अच्छा सौदा रहा, बाज़ार में तीन-साढ़े तीन से
अधिक न मिलते.’
नई कार देख कर पत्नी
के चेहरे पर प्रसन्नता की हल्की-सी लहर भी न उठी थी. उसने यह भी न पूछा था कि गाड़ी
कब और कैसे खरीदी. बस इतना ही कहा था, ‘अभी भी समय है, सोचो, तुम यह सब क्यों और किस के लिए कर रहे हो. इस अब
का अंत कहाँ और कैसा होगा.’
चिन्नी प्रसन्नता से
उछल पड़ी थी. पिता की हर सफलता का वह भरपूर स्वागत करती थी. उसके उत्साह और उसकी
प्रफुल्लता को देख कर सुबोध पूरी तरह संतुष्ट हो जाता था. उसे चिन्नी पर बहुत गर्व
था. चिन्नी ने उसके जीवन की उस शून्यता को थोड़ा-बहुत भर दिया था जिस शून्यता को सुधा
ने उसके जीवन में रोप दिया था.
‘पापा, यह गाड़ी आप
मुझे दे दो. आप पुरानी गाड़ी से अपना काम चला लो. मेरे सब फ्रेंड्स अपनी-अपनी
गाड़ियों में आते हैं. सिर्फ मैं ही हूँ जिसके पास अपनी गाड़ी नहीं है. इस गाड़ी को
देख कर सब जल-भुन कर रह जायेंगे.’
‘ऐसा नहीं हो सकता.’
‘क्यों? क्यों?
क्यों?’
‘इसके दो कारण हैं.
पहला कारण, तुम भूल रही हो कि तुम अपना ड्राइविंग लाइसेंस खो बैठी हो और अभी तक
तुमने अपना नया लाइसेंस नहीं बनवाया है. दूसरा कारण, मैंने पुरानी गाड़ी बेच दी
है.’
‘पापा, यू कांट डू
दिस टू मी.’
अचानक एक झटका लगा.
सुबोध जैसे नींद से जागा, ‘ध्यान ही न रहा, शायद स्पीड ब्रेकर था.’
‘मैंने तुम्हें कई
बार चेताया था. परन्तु तुम ने मेरी एक न सुनी. आज परिणाम तुम्हारे सामने है.’ सुधा
की वाणी में न क्रोध था, न क्षोभ. सिर्फ एक हताशा थी, हताशा जो अब सुबोध के मन में
भी समाने लगी थी.
सुधा से उसका विवाह
उसकी मां की इच्छा के अनुसार हुआ था. वह माँ की एक सहेली की बेटी थी. पाँच-सात
वर्ष की थी जब उसके पिता का निधन हो गया था. मां ने कई कष्ट झेल कर बेटी को पाला-पोसा
था. वह सुंदर पर सीधी-साधी लड़की थी. बी ए पास करने के बाद कुछ करने का सोच ही रही
थी कि सुबोध की माँ ने विवाह की बात छेड़ दी थी. सुधा की माँ को अपने कानों पर
विश्वास न हुआ था. पति की मृत्यु के बाद वह पूरी तरह निराश हो चुकी थी. जो कुछ पति
छोड़ गए थे उससे तो बस दो-चार वर्ष ही ठीक से निर्वाह कर पाई थी. अब उसके पास ऐसा
कुछ भी न था जिस के सहारे वह किसी संपन्न परिवार में सुधा का विवाह करने का सपना
देखती.
सुबोध प्रशासनिक
सेवा की परीक्षा में सफल होकर आयकर विभाग का एक अधिकारी बन चुका था. कई संपन्न
परिवारों से संकेत आ रहे थे. सब लाखों रूपए का दहेज़ देने को भी तैयार थे. परन्तु
सुबोध की माँ को सुधा भा गयी थी. उसकी सुन्दरता से अधिक उसके स्वभाव ने उन्हें मोह
लिया था. सुबोध अपने ही विभाग में कार्यरत एक लड़की से
विवाह करना चाहता था. ट्रेनिंग के समय दोनों साथ ही थे. तभी से वह सुबोध को अच्छी लगती थी. परन्तु वह इतना लजीला
था कि उस लड़की के सामने विवाह का प्रस्ताव रखने का कभी साहस ही न कर पाया था. एक
दिन उस लड़की ने भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी से विवाह कर लिया. सुबोध अपने
आप से खीज उठा और उसने तुरंत माँ का प्रस्ताव मान लिया.
सुधा को सब कुछ स्वप्न समान लगा था. उसने कल्पना भी न की थी कि सब कुछ ऐसे
होगा. सुबोध उसे किसी राजकुमार से कम न लगा था. वह सोचती कि ऐसा तो सिर्फ परी कथाओं
में होता है कि कहीं दूर देश से अचानक आकर कोई राजकुमार किसी सिंड्रेला के साथ
विवाह कर लेता है.
सुधा की प्रसन्नता की कोई सीमा न थी. जीवन में सब कुछ बहुत ही सुंदर व मधुर
लगने लगा था. सारा खालीपन पल भर में भर गया था. सारे कांटे गुलाबों में परिवर्तित
हो गए थे. आकाश छूती, उफनती लहरें मासूम-सी लगने लगीं थीं.
सुधा अपनी इस अनुभूति को अपने पति के साथ भरपूर बांटना चाहती थी. वह चाहती
थी कि उनका विवाहित जीवन सौन्दर्य और सुख से परिपूर्ण हो. अपनी इस कामना को जीवंत
करने का पूर्ण प्रयास किया उसने. सुबोध भी सुधा के निश्छल प्रेम की धारा में ऐसा
बहा कि वह भूल ही गया कि कुछ दिन पहले उसका मन कड़वाहट से भरा पड़ा था.(क्रमशः)
©आइ बी अरोड़ा
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