Friday, 28 December 2018


लघुकथा- पाँच 
नेताजी अपने चिर-परिचित गंभीर शैली में लोगों को संबोधित कर रहे थे, ‘सरकार ने जो यहाँ बाँध बनाने का निर्णय लिया है वह यहाँ के किसानों के विरुद्ध के साजिश है. बाँध बना कर नदी का पानी ऊपर रोक लिया जायेगा. फिर उस पानी से बिजली बनाई जायेगी और बिजली बनाने के बाद वह पानी आपको दिया जाएगा. लेकिन, भाइयो और बहनों, वह पानी आप के किस काम आयेगा?’
फिर कुछ पलों के विराम के बाद बोले, ‘जब उस पानी से बिजली निकल जायेगी तो उसकी सारी ताकत ही खत्म हो जायेगी. उसी बेकार पानी से आपको खेती करनी होगी, वही पानी आपको और आपके बच्चों को पीना पड़ेगा और उसी पानी से हमारी बहनों को  खाना पकाना पड़ेगा. यह अन्याय आप कैसे सह सकते हैं. इस सरकार को उखाड़ फैकना होगा........’
सभास्थल से निकलते ही एक व्यक्ति ने घबराई आवाज़ में कहा, ‘भाई जी, पर यह सब तो असत्य....’
इसके पहले कि वह कुछ और कहता नेता जी ने उसे डपट दिया, ‘विधायक बनना है या नहीं...’
‘लेकिन सत्य....’
‘तुम्हें सत्ता चाहिए या सत्य?’
स्वाभाविक था कि उस व्यक्ति ने चुपी साध ली.
(व्ट्सएप से एक वीडियो मिला था. पता नहीं कि वीडियो सच है या नहीं, पर उसी से प्रेरित हो कर यह लघुकथा लिखी है)  

Wednesday, 26 December 2018


लघुकथा-चार
लड़की ने कई बार माँ से दबी आवाज़ में उस लड़के की शिकायत की थी पर माँ ने लड़की की बात की ओर ध्यान ही न दिया था. देती भी क्यों? जिस लड़के की वह शिकायत कर रही थी वह उसके अपने बड़े भाई का सुपुत्र थे, चार बहनों का इकलौता लाड़ला भाई.
पर लड़की के लिए स्थिति असहनीय हो रही थी. उसकी अंतरात्मा विद्रोह कर रही थी. अंततः उसके प्रतिवाद ने एक दिन उग्र रूप ले लिया. लड़के की प्रतिक्रिया आश्चर्यजनक रूप से भयानक थी.
अस्पताल में अंतिम साँसे लेते हुए लड़की ने माँ से कहा, ‘अच्छा होता अगर तुम मुझे भी गर्भ में खत्म कर देती.’

Saturday, 22 December 2018


लघुकथा-तीन
‘बेटा, थोड़ा तेज़ चला. आगे क्रासिंग पर बत्ती अभी हरी है, रैड  हो गयी तो दो-तीन मिनट यहीं लग जायेंगे.’
‘मम्मी, मेरे पास लाइसेंस भी नहीं है. कुछ गड़बड़ हो गयी.....’
‘अरे तुम समझते नहीं हो, हमारी किट्टी में रूल है की जो भी पाँच मिनट लेट होगा उसे गिफ्ट नहीं मिलेगा.’   
‘तो पहले निकलना था न, सजने-सवरने में तो.......’
‘बहस मत करो और कार चलाओ.’
और श्रीमती जी सिर्फ दो मिनट देरी से पहुँची, हालाँकि उनके सोलह वर्षीय बेटे ने कार चालते समय तीन जगह रैड लाइट की अनदेखी की.
पर वह प्रसन्न थी, किट्टी में आज बहुत ही विशेष उपहार मिलने वाला था.
श्रीमती जी ने उपहार ग्रहण किया ही था कि फोन की घंटी बजी. किसी ने बताया कि उनकी कार की दुर्घटना हो गयी थी. बेटे ने फिर ट्रैफिक लाइट की अनदेखी की थी.

Friday, 21 December 2018


लघुकथा-दो
उस युवक का इतना ही दोष था कि उसने उन दो बदमाशों को एक महिला के साथ छेड़छाड़ करने से रोका था. वह उस महिला को जानता तक नहीं था, बस यूँही, किसी उत्तेजनावश, वह बदमाशों से उलझ पड़ा था.
भरे बाज़ार में उन बदमाशों ने उस युवक पर हमला कर दिया था. एक बदमाश के हाथ में बड़ा सा चाक़ू था, दूसरे के हाथ में लोहे की छड़.
युवक ने सहायता के लिये पुकारा. बाज़ार में सैंकड़ों लोग थे पर आश्चर्य की बात है कि कोई भी उसकी पुकार सुन न पाया. अगर किसी ने सुनी भी तो उसकी सहायता करने का विचार उसके मन में नहीं आया. या शायद किसी में इतना साहस ही नहीं था कि उसकी सहायता करता.
अचानक कुछ लड़के-लड़कियां घटनास्थल की ओर दौड़ चले. अब कई लोगों ने साहस कर उस ओर देखा. उत्सुकता से उन की साँसे थम गईं.
लड़के-लड़कियों ने बदमाशों को घेर लिया और झटपट अपने मोबाइल फोन निकाल कर वीडियो बनाने लगे. पर एक लड़की के  फोन ने काम करना बंद कर दिया. उसे समझ न आया कि वह क्या करे. हार कर उसने एक बदमाश से कहा, ‘भैया, ज़रा एक मिनट रुकना. मेरा फोन नहीं चल रहा, इसे ठीक कर लूँ. मैं भी वीडियो बनाना चाहती हूँ.’
तभी घायल युवक निर्जीव सा धरती पर लुढ़क गया.

Wednesday, 19 December 2018


लघुकथा-एक
तीव्र गति से चलती स्कूल-वैन चौराहे पर पहुंची. बत्ती लाल थी. वैन को रुक जाना चाहिये था. परन्तु सदा की भांति चालक ने लाल बत्ती की अवहेलना की और उसी रफ्तार से वैन चलाता रहा.
दूसरी ओर से सही दिशा में चलता एक दुपहिया वाहन बीच में आ गया. वैन उससे टकरा कर आगे ट्राफिक सिग्नल से जा टकराई और पलट गई.
देखते-देखते कई लोग इकट्ठे हो गये. सब ने आनन-फानन में अपने मोबाइल-फोन निकाले और उस भयानक दृश्य की तस्वीरें लेने और वीडियो बनाने में तत्परता से व्यस्त हो गये.
हरेक का यही प्रयास था कि उसे ही सबसे अच्छे चित्र या वीडियो मिलें. वहां एकत्र कुछ लोग निराश भी थे-वह अपना मोबाइल फोन लाना जो भूल गये थे.



Monday, 17 December 2018


अलीपुर बम केस
श्री अरविन्द अलीपुर बम केस में एक आरोपी थे. अपनी पुस्तक, ‘टेल्स ऑफ़ प्रिज़न लाइफ’, में उन्होंने इस मुक़दमे का एक संक्षिप्त वृत्तांत लिखा है. यह वृत्तांत लिखते समय उन्होंने ब्रिटिश कानून प्रणाली पर एक महत्वपूर्ण टिपण्णी की है.
उन्होंने लिखा है कि इस कानून प्रणाली का असली उद्देश्य यह नहीं है की वादी-प्रतिवादियों के द्वारा सत्य को उजागर किया जाए, उद्देश्य है कि किसी भी तरह, कोई भी हथकंडा अपनाकर केस जीता जाए.
यह केस श्री अरविन्द और अन्य आरोपियों पर 1908 में चला था. सौ वर्ष से ऊपर हो गये हैं पर देखा जाए तो आज भी न्याय प्रणाली में वादी-प्रतिवादी का असली उद्देश्य किसी न किसी  तरह केस जीतना होता है, सत्य उजागर करने में किसी का विश्वास नहीं होता.
इस प्रणाली में जीत होती है धनी, शक्तिशाली लोगों की जो वकीलों की फ़ौज खड़ी कर सकते हैं और निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक केस लड़ सकते हैं. आम आदमी तो बस चक्की में पिस कर रहा जाता है. ऐसा न होता तो 1984 के दंगों के मामले अब तक न चलते.

Wednesday, 12 December 2018


क्या हम एक विक्षिप्त समाज बन गये हैं?
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में पाँच वर्ष से लेकर 29 वर्ष की आयु के बच्चों और युवा लोगों की मृत्यु का मुख्य कारण रोग या भुखमरी या मादक पदार्थों की लत या साधारण दुर्घटनाएँ नहीं है. इन बच्चों और युवकों की मृत्यु का मुख्य कारण है सड़क दुर्घटनायें.
सरकारी आंकड़ों पर अगर विश्वास किया जाए तो 80% सड़क दुर्घटनाओं के लिए वाहन-चालक ही ज़िम्मेवार होते हैं. यह तथ्य विश्वसनीय ही लगता है.
सड़क पर चलता (या वाहन चलाता) एक व्यक्ति जो थोड़ा सा भी जागरूक है अनुभव कर सकता है कि अधिकतर वाहन-चालक तेज़ गति से वाहन चलाने के दोषी हैं, कई ट्रैफिक सिग्नल की अनदेखी करते हैं या उलटी दिशा से वाहन चलते है. ऐसी कई गलतियाँ अधिकतर वाहन-चालक बेपरवाही से हर दिन हर जगह करते हैं और अकसर यह गलतियाँ उनके स्वयं के लिए और औरों के लिए घातक सिद्ध होती हैं.
हर वर्ष हम स्वयं ही हज़ारों बच्चों और युवाओं की अकाल मृत्यु का कारण बनते हैं पर हमारे अंत:करण पर खरोंच भी नहीं पड़ती. क्या ऐसा आचरण एक विक्षिप्त मानसिकता का प्रतीक नहीं है?
आश्चर्य की बात तो यह है कि इन दुर्घटनाओं को रोकना बहुत ही सरल है. अगर सभी वाहन-चालक यह निश्चय कर ले कि वह दूसरों की (और अपनी) सुरक्षा का पूरा ध्यान रखेगा तो स्थिति एकदम बदल सकती है.
आवश्यकता है तो बस थोड़ी संवेदनशीलता की. पर लगता है कि इसी गुण को तो हम सब में अपार कमी है.

Monday, 10 December 2018


सड़क दुर्घटनायें और हमारी बेपरवाही
सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में हर दिन चार सौ से अधिक लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं. निश्चय ही यह एक भयानक सच्चाई है. पर इस त्रासदी को लेकर हम सब जितने बेपरवाह हैं वह देख कर कभी-कभी आश्चर्य होता है; लगता है कि सभ्य होने में अभी कई वर्ष और लगेंगे.
अब जो आंकड़े विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने जारी किये हैं वह पढ़ कर तो लगता है कि स्थिती बहुत ही भयावह है. एक समाचार पत्र में छपी रिपोर्ट के अनुसार 2016 में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 150785 लोगों की सड़क दुर्घटनाओं में मृत्यु हुई थी, परन्तु विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार यह संख्या 299091 थी. अर्थात हर दिन 820 लोग, या कहें तो हर एक घंटे में 34 लोग, भारत की सड़कों पर अकाल मृत्यु को प्राप्त होते है.
उससे भी चौकाने वाली बात यह है की पाँच वर्ष से लेकर 29 वर्ष की आयु में बच्चों ओर युवकों की मृत्यु का सबसे कारण सड़क दुर्घटनायें हैं.
यह तथ्य हैरान करने वाले और डराने वाले हैं. पर लगता नहीं कि इस देश में किसी को भी इस बात की रत्ती भर भी परवाह या चिंता है.
बीच-बीच में हम लोग, किसी दुर्घटना घटने के बाद, थोड़ा-बहुत रोना-धोना करके और नेताओं के सामने नारेबाजी करके अपना दायित्व निभा देते हैं और फिर सड़कों पर चिर-परिचित बेपरवाही से अपनी गाड़ियाँ दौड़ातें हैं. लेकिन स्थिति में थोड़ा-सा बदलाव लाने का  कहीं कोई गम्भीर प्रयास होता नहीं दिखाई देता.
अब ज़रा भविष्य की कल्पना करते हैं. हर दिन मैं बीसियों लोगों को ट्रैफिक नियमों का उल्लघंन करते हुए अपने वाहन चलाते हुए देखता हूँ. इन वाहनों में बच्चे भी सवार होते है. यह बच्चे क्या सीख पाते हैं?
निश्चय ही इन बच्चों की चेतना में यह बात बैठ रही है कि सड़क पर वाहन चलते समय हमें सिर्फ अपनी और अपनी सुविधा का सोचना चाहिए, दूसरों की सुविधा या सुरक्षा का कोई अर्थ नहीं है, कि ट्रैफिक नियमों का पालन करना हमारा दायित्व नहीं है, कि अपनी इच्छानुसार हम इन नियम का पालन कर सकते हैं, कि जीवन कोई मूल्यवान उपहार नहीं है, बस दो कोड़ी का है-अपना भी और औरों का भी.
भारत की सड़कों पर भविष्य तो अंधाकारमय ही लगता.


Friday, 27 April 2018


दुर्घटना बनाम नौटंकी
कुशीनगर में एक दुर्घटना में 13 बच्चे मारे गए. मुख्यमंत्री घटना स्थल पहुंचे. कुछ लोगों ने नारेबाज़ी की तो मुख्यमंत्री बोले कि नौटंकी बंद करो. स्वाभाविक है कि अब चर्चा का विषय दुर्घटना नहीं कुछ और ही है.
मेरा तो यह मानना है कि बच्चे किसी दुर्घटना में नहीं मारे गए, उनकी गैर-इरादतन हत्या हुई है.
दुर्घटना किसे कहना चाहिए? हम उसी घटना को दुर्घटना कह सकते हैं जिस घटना के लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जो अप्रत्याशित होती है, अचानक घट जाती है, किसी को अनुमान भी नहीं होता कि ऐसा कुछ हो सकता है पर हो जाता है.
जब कोई सड़क पर 120 या 140 किलोमीटर की रफ़्तार से अपनी गाड़ी दौड़ाता है और दो-चार लोगों को कुचल डालता है तो यह घटना अप्रत्याशित नहीं है. जब कोई उलटी दिशा से अपना वाहन चलाता आता है या फिर ट्रैफिक लाइट की अवहेलना करता है या कानों में ईयर फोन लगाये संगीत सुनते या फोन पर किसी से बातें करते गाड़ी चलाता है तो ‘दुर्घटना’ अवश्यंभावी है. ऐसी ‘दुर्घटना’ अप्रत्याशित नहीं मानी जा सकती. इसलिए ऐसी घटना को ‘दुर्घटना’ कह देना हमारी पहली भूल है.
मेरा तो मानना है कि हमारी इसी सोच के कारण इतनी अधिक दुर्घटनाएं इस देश में घटती है. यह जान लेना आवश्यक है कि भारत में हर एक घंटे में कोई 17 लोग सड़क-दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं.
एक भयानक सत्य से हम सब अपनी आँखें मूंदे बैठे हैं और जब तक हम इस सत्य को स्वीकारेंगे नहीं तब तक ऐसी दुखदाई ‘दुर्घटनाएं’ आये दिन घटती रहेंगी. वह भयानक सत्य यह है कि 70% से भी अधिक दुर्घटनाएं वाहन-चालकों की गलती के कारण घटती हैं. वर्ष 2015 के आंकड़ों के अनुसार लगभग 150000 लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए थे. इनमें से कोई 106000 लोग वाहन-चालकों की गलती के कारण मारे गए.
वह कौन लोग हैं जो इन मौतों के लिए ज़िम्मेवार है? क्या वह सब किसी और ग्रह पर रहते हैं? किसी और देश के निवासी हैं?
हम सब इसका उत्तर जानते और इसी कारण कभी भी ऐसा प्रश्न नहीं करते. इस प्रश्न का उत्तर हमें ही कटघरे में खड़ा कर देता है. सत्य यह है कि सड़क पर अपना वाहन चलाते समय न तो हम सावधानी बरतते हैं और न ही दूसरों की सुरक्षा का ध्यान रखते है. अकसर तो हम जानबूझ कर नियमों का उल्लघंन करते हैं. कोई आश्चर्य नहीं कि हर वर्ष हमारा ऐसा आचरण हज़ारों  लोगों की अकाल मृत्यु का कारण बनती है.
हमारे लिए सरल है समाज और व्यवस्था को गाली देना और धड़ल्ले से, बिना नियम-क़ानून की परवाह किये, अपने-अपने वाहन चलाना.
अंत में, एक रिपोर्ट के अनुसार 2015 में हर दिन 43 बच्चों की सड़क दुर्घटनाओं में मौत हुई थी. तब से स्तिथि सुधरी होगी ऐसा लगता नहीं. भविष्य में कोई सुधार होगा ऐसा प्रतीत नहीं होता. इस लिये “नौटंकी” पर चर्चा करना ही स्वाभाविक प्रतिक्रिया है.

Saturday, 17 March 2018


संसद में गतिरोध
संसद में पिछले कई दिनों से गतिरोध चल रहा है. इस कारण बजट भी शोर-शराबे के बीच, बिना किसी चर्चा के, पास कर दिया गया. कई महत्वपूर्ण बिल अटके हुए हैं. कई गम्भीर समस्याएं देश के सामने हैं पर लगता नहीं कि इन बातों की किसी दल या सांसद को ख़ास चिंता है.
क्या कारण है कि संसद की कार्यवाही वैसे नहीं चलती जैसे चलनी चाहिए?
मेरी समझ में इसके कई कारण हैं.
पहला कारण है राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की कमी. लगभग सभी दल किसी परिवार या व्यक्ति विशेष के नियन्त्रण में हैं. वह परिवार या व्यक्ति एक निरंकुश शासक की भांति अपने दल को अपने वश में रखता है. एक राजा या ज़मींदार की तरह ही “शासक” अपना उतराधिकारी तय करता है. उसके हर निर्णय को सब सदस्य बड़े विनम्र भाव से स्वीकार कर लेते हैं. सब पूरी आस्था के साथ इस व्यस्था का पालन करते हैं. ऐसे दलों के सदस्यों की संसदीय प्रणाली में कितनी आस्था होगी इसकी कल्पना की जा सकती है.
अगर आप ने कभी ससंद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण देखा होगा तो आपने पाया होगा कि जब किसी विषय पर चर्चा हो भी रही होती है तो अकसर सदन में चालीस-पचास सांसदों से अधिक सदस्य उपस्थित नहीं होती. कई बार तो इससे भी कम उपस्थिति होती है.
किसी मुद्दे पर चर्चा करने के लिए एक व्यक्ति को थोड़ी-बहुत मेहनत करनी पड़ती है. तथ्यों को जानना पड़ता है, समझना पड़ता है. तर्क देने पड़ते है. और दूसरों की बात को सुनना पड़ता है.
लेकिन हो-हल्ला करना सरल है. नारेबाज़ी करना आसान है. संसद में गतिरोध का एक कारण यही भी है.
फिर टीवी भी नारेबाजी और हो-हल्ले को अधिक महत्व देता है. किसी सांसद के भाषण को, चाहे वह कितना ही दिलचस्प और प्रबुद्ध क्यों न हो, कौन टीवी चैनल दिखाता है? उस भाषण पर कितनी चर्चा होती है? आजकल तो ट्विटर पर दिए गए किसी नेता के सन्देश की जितनी चर्चा होती उतनी चर्चा तो सदन की पुरे दिन की कार्यवाही को नहीं होती.
छोटे दलों की अपनी अलग से भूमिका है. उनका ध्येय अपने दल तक ही सीमित होता है. अगर राष्ट्रीय दल, देश के हितों की अनदेखी, कर सदन की कार्यवाही में गतिरोध पैदा करते हैं हैं तो छोटे/क्षेत्रीय दलों से को अलग अपेक्षा करना गलत होगा.
और एक बात संसद में ऐसे कई सदस्य हैं जिनके विरुद्ध अपराधिक मामले हैं चल रहे है. ऐसे महानुभावों से किस प्रकार की अपेक्षा की जा सकती है? इन लोगों की संसदीय प्रणाली में कितनी और कैसी आस्था होगी यह सोचने की बात है.
संसद का सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता है सरकार पर निगरानी रखना. वह तभी  सम्भव है जब सदन की कार्यवाही नियमों अनुसार चले. प्रश्नकाल में तीखे प्रश्न पूछे जाएँ, मुद्दों पर चर्चा हो, सरकार की गलतियों और विफलताओं को उजागर किया जाए.
ऐसे में हर सरकार मन ही मन यह चाहेगी कि संसद की कार्यवाही जितने समय तक बाधित रह सकती है बाधित रहे. अत: विपक्ष सदन में गतिरोध पैदा कर, सरकार की मन चाही  इच्छा पूरी कर देता है.
कई बार तो लगता है कहीं विपक्ष और सरकार आपस में सांठ-गांठ तो नहीं? आज एक दल राज करेगा और विपक्ष सरकार पर पैनी नज़र रखने के बजाये सदन में हो-हल्ला करता रहेगा, कल अगर विपक्षी दल सत्ता में आया तो उन्हें भी वैसे निरंकुश सरकार चलाने का अवसर दिया जायेगा?    


Monday, 12 March 2018


दो छात्रों की मौत
दिल्ली में कल फिर दो छात्र सड़क हादसे में अपनी जान गवां बैठे.
रिपोर्ट के अनुसार, शराब के नशे में, वह तेज़ गति से अपनी कार चला रहे थे कि कार डिवाइडर को पार कर बिजली के   एक खम्भे से जा टकराई. इस समाचार को लाखों लोगों ने पढ़ा होगा.  हज़ारों लोगों ने टीवी पर देखा होगा. पर शायद ही किसी के मन पर खरोंच भी पड़ी होगी, शायद ही किसी के माथे पर शिकन उभरी होगी.
जो लोग उन युवकों के अंतिम संस्कार में भाग लेने गए होंगे  वह सब भी इस घटना को बड़ी सरलता से भुला कर धड़ल्ले से अपने-अपने वाहन चलाते हुए घरों को चल दिए होंगे.
जिस देश में हर घंटे में लगभग बीस लोग अपनी जान सड़क दुर्घटनाओं में गवां देतें हैं वहां कौन किस की मृत्यु को लेकर व्यथित हो?
यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि 80% से भी अधिक दुर्घटनाएं वाहन-चालकों की गलती के कारण होती हैं. अर्थात हम सब जानते हैं कि अधिकतर दुर्घटनाएं हमारी अपनी लापरवाही के कारण ही हो रही हैं, बस हम सब सिर्फ अंजान  बनने का नाटक कर रहे हैं.
सत्य तो यही है कि हम वाहन चालक अगर सड़क पर अपना वाहन चलाते समय थोड़ी सी सावधानी बरतने लगें तो हर वर्ष हज़ारों लोग अकाल मृत्यु से बच सकते हैं, हज़ारों परिवार उजड़ने से बच सकते हैं.
हर सुबह में बीसियों लोगों को देखता हूँ जो अपने बच्चों को स्कूल छोड़ने जाते हैं. उन में से कई लोग सड़क नियमों की अवहेलना करते हुए अपने वाहन चलाते हैं. देखने में यह सब लोग मध्य या उच्च-मध्य वर्गों के पढ़े-लिखे लोग लगते हैं. अपने बच्चों को शिक्षित करने के लिए हर माह हज़ारों रूपए खर्च करते हैं. पर उन्हें इस बात की तनिक भी चिंता नहीं होती कि ट्रैफिक नियमों का उल्लघंन कर वह कैसे संस्कार अपने बच्चों को दे रहे हैं.
जो बच्चा आज अपनी माँ या अपने पिता को ऐसे गाड़ी चलाते देखता है कल वही अपनी कार को 130 की स्पीड पर दौड़ाता और किसी सड़क दुर्घटना का शिकार होता है. 
बचपन से सुनते आये हैं कि ‘जाको राखे साईयाँ मार सके ना कोए’. यह कथन कितना सत्य है इस बात का अहसास मुझे अपने देश की सड़कों पर अपना वाहन चलाते हुए अकसर होता है. सड़क पर आप सुरक्षित हैं तो ईश्वर की अनुकम्पा  कारण, अन्यथा आपकी सुरक्षा की फ़िक्र करने वाला कोई विरला वाहन-चालाक ही मिलता है.
देश में सड़क दुर्घटनाओं में कोई कमी निकट भविष्य में आएगी? अपने आस-पास लोगों को देख कर ऐसा लगता तो नहीं, अतः ऐसी दुखद दुर्घटनाओं की सूचनाएं हमें बार-बार सुननी और पढ़नी पड़ेंगी.

Thursday, 25 January 2018

फिर हुई एक और दुर्घटना
कुछ दिन पहले की घटना है. हैदराबाद में एक बच्ची स्कूल बस से नीचे सड़क पर आ गिरी और बस के टायरों के नीचे आ कुचली गयी.
इस दुखद घटना पर अलग-अलग टीवी चैनलों पर गरमागरम बहस होना स्वाभाविक ही था. टीवी चर्चाएँ देखने से मैं बचने का पूरा प्रयास करता हूँ. मुझे आज तक यह बात समझ नहीं आई है कि टीवी चर्चाओं में जो लोग भाग लेते हैं वह अपने स्वभाव व संस्कारों के कारण चर्चाओं के दौरान असभ्य व्यवहार करते हैं या फिर यह टीवी कैमरे का जादू है जो शालीनता की सारी सीमायें लांगने पर उन्हें बाध्य करता है.
अपने प्रयास के बावजूद मैंने एक चर्चा कुछ समय तक देखी. चर्चा में भाग लेने वाले सभी लोग इस दुर्घटना के लिए व्यवस्था को दोष दे रहे थे, स्कूल प्रबंधन को दोषी मान रहे थे.
देश की व्यवस्था की जो स्थिती है हम सब भलीभांति जानते ही हैं. बच्चों को स्कूल पहुंचाने या स्कूल से घर लाने वाली बसें वगेरह कैसे चलती हैं वह भी हम जानते हैं. पर यह समस्या वहीं तक सीमित नहीं है.
मुझे लगता है की सड़क दुर्घटनाओं को लेकर हम सब जितने बेफिक्र हैं वह अपनेआप में बहुत ही गंभीर और डराने वाली बात है.
सड़क मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार 2016  में 150000 से अधिक लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे गये. उससे पहले वर्ष यह आंकड़ा 146000 से थोड़ा अधिक था. और चौंकाने वाली बात यह है कि लगभग 84% दुर्घटनाओं के लिए  वाहन चालक ज़िम्मेवार थे. अर्थात कोई 400000 दुर्घटनाएं हम सब की गलतियों के कारण घटीं. इतना ही नहीं, मरने वालों में लगभग 69% लोग 18 से 45 वर्ष की आयु-सीमा में थे.
इन आंकड़ों से साफ़ दिखता है की हमारे देश में उन वाहन चालकों की संख्या बहुत बड़ी है जो अपनी और दूसरों की सुरक्षा की चिंता रत्तीभर भी नहीं करते. ऐसी स्थिति में  व्यवस्था को दोषी ठहरा देना हम सब के लिए अनिवार्य हो जाता है, अन्यथा हमें अपनी भीतर भी झांकना पड़ सकता है.पर अगर कोई और दोषी है तो हमें क्या आत्म-चिंतन करना?
हर सुबह मैं बीसियों लोगों को अपने अपने वाहनों पर, बच्चों को साथ लिये, स्कूलों की ओर जाते देखता हूँ. इन में से अधिकतर लोग धड़ल्ले से ट्रैफिक नियमों की अवहेलना करते हुए अपने वाहन चलाते हैं. यह लोग न सिर्फ अपने बच्चों के जीवन को दावं पर लगाते हैं बल्कि अपने बच्चों को ऐसे संस्कार दे रहे हैं जिनके प्रभाव में आगे चल कर यह बच्चे अपनी और औरों की सुरक्षा को लेकर पूरी तरह लापरवाह रहेंगे.  

व्यवस्था कैसी भी हो, परन्तु  ट्रैफिक नियमों की अवहेलना करते हुए, अपनी और औरों की जान को खतरे में डाल कर हम अपनी विक्षिप्त मानसिकता का ही प्रदर्शन करते हैं. ऐसा मुझे लगता है.