Tuesday 31 May 2016

एक निर्दोष पक्षी की ह्त्या  (भाग 2)
जीवन ने वसंत का रूप ले लिया. हर ओर सुंदर पुष्प थे, पुष्पों की सुगंध थी, रंग-बिरंगी तितलियाँ थीं, चहचहाते पक्षी थे, नीले आकाश में मधुर गति से तैरते बादलों के गुच्छे थे. हर पल कुछ न कुछ गुनगुनाने को मन उत्सुक रहता था. जीवन, इन्द्रधनुष समान, इस छोर से उस छोर तक फैला लगता था.
इन्हीं रस भरे दिनों की बात है कि सुधा और सुबोध एक पार्टी में गए थे. अब सुधा को ठीक से याद भी नहीं कि वह पार्टी किसने दी थी और क्यों दी थी. सुबोध के कई सहकर्मी पति, पत्नियों के साथ आये थी.
हलके-हलके कहकहों के बीच सुधा कभी एक से बात कर रही थी तो कभी दूसरे से. तभी तारा गुप्ता ने आकर कहा था, ‘अच्छा, तुम हो सुबोध की भाग्यलक्ष्मी. तुम से मिलने को मैं बहुत आतुर थी.’
‘मैं भाग्यलक्ष्मी नहीं, सुधा हूँ,’ उसने भोलेपन से कहा था.
‘हाउ स्वीट, तुम सुधा हो, यह मैं भी जानती हूँ. पर क्या तुम जानती हो कि जब से सुबोध ने तुम से विवाह किया है तभी से उसका भाग्य पलट गया है?’ तारा गुप्ता की वाणी में ईर्ष्या ही नहीं, कड़वाहट भी थी.
‘मैं कुछ समझी नहीं?’ सुधा सच में ही कुछ समझ न पाई थी.
‘अब इतनी भोली भी तो तुम नहीं हो, या हमें मूर्ख समझती हो? यह जो हीरों का हार तुमने पहन रखा है, दस बारह लाख से कम का न होगा. कहाँ से आया यह? विवाह के बाद ही सुबोध को एक से बढ़कर एक बढ़िया पोस्टिंग मिली हैं. जहाँ सब लोग कलम घिस रहे हैं सुबोध मज़े से नोट छाप रहा है.’ 
सुधा स्तब्ध रह गयी. उसने कल्पना भी न की थी. ‘सुबोध एक भ्रष्ट अधिकारी है?’ इस प्रश्न ने उसे झंझोड़ दिया. उसने सुबोध की ओर देखा. अपने मित्रों के साथ खड़ा वह कोई ड्रिंक ले रहा था. उसकी मुस्कुराहट को देखा, उसकी चमकती आँखों को देखा, लगा तारा गुप्ता ने अवश्य ही झूठ कहा होगा, सुबोध ऐसा नहीं हो सकता. अनायास ही उसका हाथ गले में बंधे हीरों के हार की ओर गया. उसने हार छुआ और सिहर उठी. अगर यह हार दस बारह लाख का है तो इतने पैसे सुबोध के पास कहाँ से आये? उसे लगा कि कहीं से आकर तपती रेतीली हवा उसके चारों ओर फ़ैल गयी थी. उसे लगा कि उसका दम घुटा जा रहा था.
‘यह हार कितने का है?’ घर लौटते ही उसने पूछा था.
‘इस समय तुम्हें यह क्या सूझा?’
‘यह मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है.’
‘उस दिन बताया तो था.’
‘तुम्हें पोर्ट एरिया का चार्ज कब मिला?’
‘तुम्हें किसने कहा?’
‘तारा गुप्ता ने.’
‘वह चिढ़ती है मुझसे.’
‘क्या तुम घूस लेते हो?’
सुबोध को लगा कि जैसे किसी ने उठा कर उसे धरती पर पटक दिया था और उसकी छाती पर चढ़ कर बैठ गया था. अचानक शब्दों ने उसका साथ छोड़ दिया. विचार तिरोहित हो गए. उसने बहुत प्रयास किया पर कुछ कह न पाया.
सुधा इस तरह सीधे और सपाट शब्दों में उससे यह प्रश्न कर बैठेगी इसकी उसने कल्पना भी न की थी. उसके मन में संदेह तो था कि सुधा को उसका घूस लेना अच्छा न लगेगा. परन्तु उसे यह आशंका न थी कि उसकी प्रतिक्रिया इतनी तीखी और स्पष्ट होगी. वह हतप्रभ हो गया, परन्तु थोड़े काल के लिए ही. मन के किसी कोने से आवाज़ आई, चलो अच्छा ही हुआ, आज नहीं तो कल सुधा को इस बात का पता चलना ही था, आज नहीं तो कल इस तूफ़ान को आना ही था, आज नहीं तो कल मुझे इस स्थिति को झेलना ही था.
सुधा को किसी उत्तर की प्रतीक्षा न थी. सुबोध के विवर्ण चेहरे को देख कर ही वह सत्य जान गई थी. उसने कुछ कहा नहीं. इस स्थिति में शब्दों का सहारा लेना उसे निरर्थक लगा था.
कुछ दिनों तक दोनों एक-दूसरे से खिंचे-खिंचे से रहे थे. सुधा इस बात को स्वीकारने में अपने-आप को असमर्थ पा रही थी कि उसका पति एक भ्रष्ट अधिकारी था. अब तक वह समझे बैठी थी कि उसके पिता के समान ही सुबोध एक ईमानदार, चरित्रवान पुरुष था.
उसकी माँ ने उसे कितनी बार बताया था कि उसके पिता सरकार के जिस विभाग में कार्यरत थे वहां भ्रष्टाचार ने, एक रोग की भाँति, सभी कर्मचारियों को ग्रसित कर रखा था. परन्तु उसके पिता ने तो ईमानदारी से कार्य करने का व्रत ले रखा था. इस कारण उन्हें बहुत कष्ट भी उठाने पड़े थे. एक झूठे मामले में उनके विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही भी हुई थी. तीन माह तक वह निलंबित भी रहे थे. परन्तु अपने निश्चय से वह कभी भी नहीं डिगे थे.
पिता की जो छवि उसके मन पर अंकित हो गई थी उसने उसकी सोच को बहुत प्रभावित किया था. शायद यही कारण था कि बिना जाने ही उसने मान रखा था कि सुबोध भी एक ईमानदार अधिकारी था.
अब अचानक एक चक्रवात ने सुधा को घेर लिया था. घर की हर वस्तु उसे दूषित लगने लगी थी. जितनी भी सुख-सुविधायें सुबोध ने जुटायीं थीं वह सब अपवित्र लगने लगीं थीं. उसे समझ न आ रहा था कि ऐसा कब तक चलेगा. कई प्रश्न, फन उठाये, नागों समान उसके सामने खड़े हो गए थे. क्या वह कभी सामान्य हो पायेगी? क्या भ्रष्टाचार से अर्जित की हुई संपत्ति का भोग कर पाएगी? क्या उनका विवाहित जीवन अभिशप्त हो जाएगा?
जिस चक्रवात में सुधा अनचाहे ही फंस गई थी, समय की मार ने धीरे-धीरे उसे प्रभावहीन कर दिया. वह कुछ सामान्य हुई. परिस्थितियों को फिर से समझने का उसने प्रयास किया. सोच-विचार कर उसे एक ही रास्ता दिखाई दिया, उसे सुबोध को समझाना होगा, उसे सही रास्ते पर लाने का एक प्रयास करना होगा.
बड़े हौले से उसने बात छेड़ी, अपने मन की दुविधा बताई, अपनी इच्छा से अवगत कराया, अपने प्यार का वास्ता दिया, भविष्य के प्रति उपजी अपनी आशंका की ओर इंगित किया. परन्तु सुबोध पर किसी बात का कोई प्रभाव न पड़ा. उसके मन में कोई संदेह न था. उसने कह दिया कि वह जीवन का भरपूर आनंद उठाना चाहता है और ऐसा तभी संभव है जब पास में धन हो. उसने स्पष्ट कर दिया कि उसे धन चाहिये, धन चाहे कैसा भी हो, चाहे कैसे भी आये.

सुधा डावांडोल हो गयी. परन्तु फिर भी उसने कई बार सुबोध को टोका, कई बार समझाया, कई बार रोका. परन्तु सुबोध ने उसकी एक न सुनी और खूब पैसा बनाया. कई बार वह मामलों को जानबूझ कर उलझा देता था. विवश हो कर दूसरे को उसकी इच्छानुसार पैसे देने ही पड़ते थे. करोड़ों रूपए की सम्पत्ति उसने कुछ ही वर्षों में इकट्ठी कर ली थी. लेकिन यह धन-सम्पदा सुधा को रत्तीभर आकर्षित न कर पायी थी.(क्रमशः)
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©आइ बी अरोड़ा 

Monday 30 May 2016

एक निर्दोष पक्षी की ह्त्या  
(एक लम्बी कहानी भाग 1)
‘हम सब प्रयास कर रहे हैं. हम अपराधी को सज़ा दिला कर ही रहेंगे. अगर यहाँ निर्णय हमारे पक्ष में न हुआ तो हम अपील दायर करेंगे. हाई कोर्ट जायेंगे. आवश्यक हुआ तो सुप्रीम कोर्ट भी जायेंगे. परन्तु हम हत्यारे को छोड़ेंगे नहीं. इस बार वह बच न पायेगा. यह चौथी हत्या है जो उसने की है. आज तक उसे सज़ा नहीं मिली. परन्तु इस बार ऐसा न होगा. हम उसे सज़ा दिला कर रहेंगे, हमें कुछ भी करना पड़े. बस, प्लीज् आप थोड़ा धैर्य रखें.’
सुबोध सुन रहा था, पर उसे कुछ भी समझ न आ रहा था. कई विचारों, दुविधाओं व चिंताओं ने उसे एक साथ उसे घेर लिया था. ‘यह सब क्या हो रहा है? सामने बैठा व्यक्ति जो कुछ कह रहा है क्या उसका कोई अर्थ भी है? क्या परिस्थितियाँ उसका उपहास कर रही हैं? यह सब उसके साथ ही क्यों हो रहा है? कहाँ गलती हो गयी? क्या गलती हो गयी?’
एक के बाद एक उठते प्रश्न उसे विचलित करने लगे. अचानक वह उठ खड़ा हुआ और चल दिया. उसे यह भी ध्यान न रहा कि वह अकेला न था. सुधा भी साथ थी. सुधा उसके व्यवहार से थोड़ा घबरा गई थी. लगभग भागती हुई वह उसके पीछे आई.
कार के निकट पहुँच कर ही सुबोध को पत्नी का ध्यान आया. वह एकदम पलता. पलटते ही सुधा को अपने सामने पाया. उसे लगा कि वह उसे ऐसे देख रही थी जैसे कि वह उसका पति नहीं कोई अपरिचित हो. उस क्षण उसे लगा कि अब वह सब कुछ खो बैठा था.
‘तुम्हें आश्चर्य हो रहा है?’ सुधा का प्रश्न एक खंजर-सा उसके भीतर चुभ गया. बिना कुछ कहे ही वह गाड़ी चलाने लगा. उसे उस दिन की याद आई जिस दिन वह नई गाड़ी लेकर घर आया था. पुरानी कार  बस एक वर्ष पुरानी थी. फिर भी, जैसे ही एक नया मॉडल बाज़ार में आया था, उसने नवानी को फोन कर नई कार लेने की अपनी इच्छा व्यक्त की थी. नवानी का केस उसके पास फंसा हुआ था.
अगले ही दिन नई गाड़ी लेकर नवानी हाज़िर हो गया था. गाड़ी देखकर सुबोध चहक उठा था. ‘नवानी साहब, आपका चुनाव तो लाजवाब है. क्या कलर चुना है. अब समस्या यह है कि इस पुरानी कार का क्या करूं?’
नवानी के लिए संकेत ही बहुत था. पुरानी गाड़ी वह साथ लेता गया था. दो दिन बाद उसने चार लाख रूपए भिजवा दिए थे. सुबोध ने मन ही मन कहा था, ‘अच्छा सौदा रहा, बाज़ार में तीन-साढ़े तीन से अधिक न मिलते.’
नई कार देख कर पत्नी के चेहरे पर प्रसन्नता की हल्की-सी लहर भी न उठी थी. उसने यह भी न पूछा था कि गाड़ी कब और कैसे खरीदी. बस इतना ही कहा था, ‘अभी भी समय है, सोचो, तुम यह सब क्यों और किस के लिए कर रहे हो. इस अब का अंत कहाँ और कैसा होगा.’
चिन्नी प्रसन्नता से उछल पड़ी थी. पिता की हर सफलता का वह भरपूर स्वागत करती थी. उसके उत्साह और उसकी प्रफुल्लता को देख कर सुबोध पूरी तरह संतुष्ट हो जाता था. उसे चिन्नी पर बहुत गर्व था. चिन्नी ने उसके जीवन की उस शून्यता को थोड़ा-बहुत भर दिया था जिस शून्यता को सुधा ने उसके जीवन में रोप दिया था.
‘पापा, यह गाड़ी आप मुझे दे दो. आप पुरानी गाड़ी से अपना काम चला लो. मेरे सब फ्रेंड्स अपनी-अपनी गाड़ियों में आते हैं. सिर्फ मैं ही हूँ जिसके पास अपनी गाड़ी नहीं है. इस गाड़ी को देख कर सब जल-भुन कर रह जायेंगे.’
‘ऐसा नहीं हो सकता.’
‘क्यों? क्यों? क्यों?’
‘इसके दो कारण हैं. पहला कारण, तुम भूल रही हो कि तुम अपना ड्राइविंग लाइसेंस खो बैठी हो और अभी तक तुमने अपना नया लाइसेंस नहीं बनवाया है. दूसरा कारण, मैंने पुरानी गाड़ी बेच दी है.’
‘पापा, यू कांट डू दिस टू मी.’
अचानक एक झटका लगा. सुबोध जैसे नींद से जागा, ‘ध्यान ही न रहा, शायद स्पीड ब्रेकर था.’
‘मैंने तुम्हें कई बार चेताया था. परन्तु तुम ने मेरी एक न सुनी. आज परिणाम तुम्हारे सामने है.’ सुधा की वाणी में न क्रोध था, न क्षोभ. सिर्फ एक हताशा थी, हताशा जो अब सुबोध के मन में भी समाने लगी थी.
सुधा से उसका विवाह उसकी मां की इच्छा के अनुसार हुआ था. वह माँ की एक सहेली की बेटी थी. पाँच-सात वर्ष की थी जब उसके पिता का निधन हो गया था. मां ने कई कष्ट झेल कर बेटी को पाला-पोसा था. वह सुंदर पर सीधी-साधी लड़की थी. बी ए पास करने के बाद कुछ करने का सोच ही रही थी कि सुबोध की माँ ने विवाह की बात छेड़ दी थी. सुधा की माँ को अपने कानों पर विश्वास न हुआ था. पति की मृत्यु के बाद वह पूरी तरह निराश हो चुकी थी. जो कुछ पति छोड़ गए थे उससे तो बस दो-चार वर्ष ही ठीक से निर्वाह कर पाई थी. अब उसके पास ऐसा कुछ भी न था जिस के सहारे वह किसी संपन्न परिवार में सुधा का विवाह करने का सपना देखती.
सुबोध प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में सफल होकर आयकर विभाग का एक अधिकारी बन चुका था. कई संपन्न परिवारों से संकेत आ रहे थे. सब लाखों रूपए का दहेज़ देने को भी तैयार थे. परन्तु सुबोध की माँ को सुधा भा गयी थी. उसकी सुन्दरता से अधिक उसके स्वभाव ने उन्हें मोह लिया था. सुबोध अपने ही विभाग में कार्यरत एक लड़की से विवाह करना चाहता था. ट्रेनिंग के समय दोनों साथ ही थे. तभी से वह सुबोध को अच्छी लगती थी. परन्तु वह इतना लजीला था कि उस लड़की के सामने विवाह का प्रस्ताव रखने का कभी साहस ही न कर पाया था. एक दिन उस लड़की ने भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी से विवाह कर लिया. सुबोध अपने आप से खीज उठा और उसने तुरंत माँ का प्रस्ताव मान लिया.
सुधा को सब कुछ स्वप्न समान लगा था. उसने कल्पना भी न की थी कि सब कुछ ऐसे होगा. सुबोध उसे किसी राजकुमार से कम न लगा था. वह सोचती कि ऐसा तो सिर्फ परी कथाओं में होता है कि कहीं दूर देश से अचानक आकर कोई राजकुमार किसी सिंड्रेला के साथ विवाह कर लेता है.
सुधा की प्रसन्नता की कोई सीमा न थी. जीवन में सब कुछ बहुत ही सुंदर व मधुर लगने लगा था. सारा खालीपन पल भर में भर गया था. सारे कांटे गुलाबों में परिवर्तित हो गए थे. आकाश छूती, उफनती लहरें मासूम-सी लगने लगीं थीं.

सुधा अपनी इस अनुभूति को अपने पति के साथ भरपूर बांटना चाहती थी. वह चाहती थी कि उनका विवाहित जीवन सौन्दर्य और सुख से परिपूर्ण हो. अपनी इस कामना को जीवंत करने का पूर्ण प्रयास किया उसने. सुबोध भी सुधा के निश्छल प्रेम की धारा में ऐसा बहा कि वह भूल ही गया कि कुछ दिन पहले उसका मन कड़वाहट से भरा पड़ा था.(क्रमशः)
©आइ बी अरोड़ा 

Monday 23 May 2016

जोकर
‘वह सर्कस में काम करते हैं, वह एक जोकर हैं.’
‘वो लापता क्यों हो गया है?’ पुलिस इंस्पेक्टर का वाणी उकताहट से भरी हुई थी.
‘मुझे नहीं पता, तीन दिन पहले वह, अपना काम पूरा कर, सर्कस से घर लौट रहे थे. लेकिन वह घर नहीं पहुंचे. हम सब बहुत चिंतित है. बच्चों ने तो कल से कुछ खाया भी नहीं, वह सब डरे हुए हैं.’
‘क्या तुम ने सर्कस वालों से बात की? उसके साथियों से या दोस्तों से कोई पूछताछ की?’
‘हाँ, पर इतना ही पता चला कि वह उस रात शो समाप्त होने के बाद घर चले गए थे. इसके अतिरिक्त कोई कुछ नहीं जानता.’
‘तुम जाओ, हम मामले की छानबीन करेंगे......जितना जल्दी हो सके,’ इतना कह इंस्पेक्टर किसी और से बात करने लगा. जोकर की पत्नी असमंजस में डूबी कुछ पल वहीं खड़ी रही. इंस्पेक्टर ने उसे उखड़ी हुई दृष्टि से देखा तो थोड़ी सहमी, थोड़ी घबराई वहां से चल दी. कई आशंकायें मन में उठ रहीं थीं. उसे भय था कि उसके पति को ढूँढने हेतु पुलिस कुछ भी न करेगी. उसे लग रहा था कि पति के साथ कोई अनहोनी घटना अवश्य घटी है.
उनके विवाह को अभी पाँच वर्ष ही हुए थे, पर वह दोनों तो बचपन से ही एक दूसरे के साथ थे. उसके बिना अकेले जीने की तो वह कल्पना भी न कर सकती थी.
पुलिस ने थोड़ी-बहुत जांच की. सर्कस के निकट स्थित एक दस- मंजिला इमारत की छत पर उन्हें जोकर के रंग-बिरंगे, भड़कीले जूते मिले. पुलिस को यह बात बहुत ही आश्चर्यजनक लगी, पर वह किसी निष्कर्ष पर न पहुँच पायी.
एक दिन सर्कस के एक असंतुष्ट कर्मचारी ने पुलिस इंस्पेक्टर के पास चुपके से आकर बताया कि जोकर एक ऐसा अकेला कर्मचारी न था जो लापता हुआ था, पिछले एक वर्ष में तीन अन्य कर्मचारी भी लापता हो गए थे. उन के परिवारों को शायद इस बात का पता भी नहीं चला, एक बेचारे का तो कोई परिवार था भी नहीं.
‘सर, अगर मेरा नाम किसी को न बताएं तो मैं आपको एक बात बता सकता हूँ. इस सर्कस के तीन पार्टनर हैं. इन में से एक पार्टनर बहुत ही बुरा आदमी है. कर्मचारियों के साथ बहुत गलत व्यवहार करता है. मर्दों के साथ, औरतों के साथ. आप समझ रहें हैं न कि मैं क्या कह रहा हूँ, बहुत ही कामुक आदमी है वह शैतान है.’
पुलिस इंस्पेक्टर ने इस सुराग की कोई ख़ास छानबीन न की. उसे तो संदिग्ध व्यक्ति से पैसे ऐंठनें के एक सुनहरा अवसर मिल गया था. वह इस अवसर को चुकने वाला न था.
छह माह बीत गए. उसे सूचना मिली कि उसका इकलौता बेटा सड़क  दुर्घटना में घायल हो गया था. उसे रात आठ बजे सूचना मिली और रात ग्यारह बजे की ट्रेन से वह घर की ओर चल दिया.
ट्रेन में उसे कब नींद आई उसे पता ही न चला. वह गहरी नींद में था कि अचानक गाड़ी रुक गयी. उसकी नींद टूट गयी. रात के दो बज रहे थे. उसने खिड़की से बाहर झांका. बाहर अँधेरा था, कोई सुनसान जगह थी. उसने अंदाज़ लगाया कि गाड़ी किसी स्टेशन पर न रुकी थी.
तभी उसकी नज़र सामने वाले बर्थ पर पड़ी. उस बर्थ पर एक व्यक्ति, बड़े अजीब से कपडे पहने बैठा था, सिर पर एक टोप पहन रखा था.  चेहरे पर कोई मुखौटा सा पहन रखा था. नाक पर लाल रंग लगा रखा था.
‘सर्कस का जोकर लगता है,’ पुलिस इंस्पेक्टर ने मन ही मन कहा.
‘आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था,’ उस व्यक्ति ने कहा, उसकी आवाज़ बहुत धीमी और बर्फ की तरह ठंडी थी.
‘क्या कहा तुमने?’ पुलिस इंस्पेक्टर ने तेज़, झल्लाई हुई आवाज़ में कहा.
‘आप कितने नीच व्यक्ति हैं? आपने एक हत्यारे के साथ समझौता कर लिया, आपने ज़रा भी नहीं सोचा उन भाग्यहीनों के बारे में? इसका परिणाम अच्छा न होगा, इतना तो निश्चित है. जीवन भर आप पछतायेंगें, मेरी बात याद रखना.’
पुलिस इंस्पेक्टर अवाक हो गया. उसके दिल की धड़कन तेज़ हो गयी. उसने कुछ कहने का प्रयास क्या पर शब्दों ने उसका साथ न दिया. तभी ट्रेन चलने लगी. वह व्यक्ति उठ खड़ा हुआ. अचानक पुलिस इंस्पेक्टर ने देखा कि वह जोकर-सा दिखाई देने वाला व्यक्ति नगें पाँव था. वह चलती ट्रेन से बाहर निकल गया.
सुबह पाँच बजे ट्रेन पुलिस इंस्पेक्टर के नगर पहुंची. उसने घर जाने के बजाय अस्पताल जाना ही उचित समझा और सीधा अस्पताल चल दिया.
वहां पता चला कि उसका बेटा मौत के मुंह से लौट कर आया था. सड़क दुर्घटना बहुत ही भयानक थी. वह अपने मित्र के साथ उसके बाइक पर सवार था. मित्र की तो दुर्घटना-स्थल पर ही मृत्यु हो गयी थी.
उसने डॉक्टर का बार-बार धन्यवाद दिया.
‘धन्यवाद मुझे नहीं उस भले-मानस को दीजिये जो समय रहते आपके बेटे को अस्पताल ले आया. अगर थोड़ी भी देर हो जाती तो शायद हम चाह कर भी इसे बचा न पाते.’
‘इसे अस्पताल लेकर कौन आया था?’
‘कोई सर्कस वाला लग रहा था. वह तो सारी रात यहाँ रुका रहा. आपकी पत्नी की ऐसी दशा न थी कि बेटे की देखभाल कर पाती या भागदौड़ कर पाती. इस कारण वह बेचारा रात भर यहीं रुका रहा. अभी-अभी गया है. अगर आप पाँच मिनट पहले पहुँचते तो आप से मुलाकात हो जाती.’
‘कौन था वह?’ पुलिस इंस्पेक्टर ने सहमी सी आवाज़ में पूछा.
‘कोई जोकर-सा था......सर्कस का. सर पर टोप, नाक पर लाल रंग. पर एक बात थोड़ी अजीब लगी, उसने कोई जूते न पहन रखे थे. नंगे पाँव था.’
भौंच्च्का-सा खड़ा पुलिस इंस्पेक्टर फटी-फटी आँखों से डॉक्टर को देखने लगा. उसकी टाँगे हल्के से कांप रहीं थीं.
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© आइ बी अरोड़ा


Friday 20 May 2016

प्रतीक्षालय (एक कहानी)
एक मित्र के अंतिम संस्कार में भाग लेने हेतु मुझे उसके गाँव, अमीरपुर जाना पडा. हम दोनों एक साथ सेना में थे. सन इकहत्तर की लड़ाई में हम दोनों ने ही भाग लिया था. उस युद्ध में वह बुरी तरह घायल हो गया था. उसकी दोनों टांगें काटनी पडीं थीं. सेना से उसे सेवानिवृत्त कर दिया गया.
अमीरपुर गाँव में उसकी पुश्तैनी ज़मीन थी. वह अपने गाँव चला आया. पर साधारण खेती करने के बजाय उसने बीज पैदा करने का काम शुरू किया. कई दिक्कतें आयीं, पर वह हार मानने वाला न था.
सुचना मिली कि उसका अचानक निधन हो गया था. किसी को भी विश्वास न हुआ. सेना के कई साथी अंतिम संस्कार में भाग लेने अमीरपुर आये.
लौटने के लिए मुझे रात ग्यारह बजे राजपुर से गाड़ी लेनी थी. मैं दस बजे ही स्टेशन पहुँच गया था. वहां पहुँचने के बाद पता चला कि ट्रेन तीन घंटे की देरी से चल रही थी. मैंने अपने को कोसा, चलने से पहले ही थोड़ी पूछताछ कर लेनी चाहिये थी. अब तीन घंटे स्टेशन पर बिताने पड़ेंगे. इस बात का भी भरोसा न था कि ट्रेन के आने में कहीं और विलम्ब न हो जाए.
अपने को कोसता हुआ मैं स्टेशन के प्रतीक्षालय के भीतर आ गया. देख कर आश्चर्य हुआ कि इस छोटे से स्टेशन का प्रतीक्षालय बहुत साफ़-सुथरा था.
उस समय एक ही व्यक्ति थे जो किसी ट्रेन की प्रतीक्षा में वहां बैठे थे. देखने में वह बहुत बूढ़े लग रहे थे. वह एक कुर्सी पर चुपचाप, अपना सर झुकाए, बैठे थे. बिना कोई हलचल किये, वह ऐसे बैठे थे  की जैसे गहरी नींद में हों.   
मैं उनके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया. उन्होंने मेरी ओर देखा भी नहीं, शायद उन्हें पता ही न चला था कि कोई भीतर आया है. मैंने उनकी नींद में विघ्न डालना उचित न समझा और एक किताब निकाल कर पढ़ने लगा.
कोई आधे-पौन घंटे के उपरान्त उन्होंने धीरे से अपना सर उठाया और मेरी ओर देखा. उनका चेहरा उदास और उनकी आँखें निष्प्राण लग रहीं थीं. वह एकटक मुझे देखते रहे. मैं हौले से मुस्कुराया परन्तु उन्होंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न की.
‘आपको देख कर लगता है कि आप सेना के एक अधिकारी हैं?’ उनकी वाणी भी निष्प्राण थी.
‘मैं सेना का अधिकारी था, पाँच वर्ष हो गए मुझे सेना छोड़े हुए.’
‘मेरा बेटा भी सेना में है, एक सिपाही है. बहुत ही जांबाज़ आदमी है.’ वह बिना किसी हाव-भाव के बात कर रहे थे.
किस रेजिमेंट में है?’
‘पांचवीं कुमाऊँ रेजिमेंट में, उसका नाम वीरसिंह है. इकहत्तर के युद्ध में वह युद्धबंदी बन गया......’
मेरे रोंगटे खड़े हो गए. वीरसिंह तो मेरी ही यूनिट में था, ‘वह तो मेरे ही यूनिट का सिपाही था. हम एक साथ युद्ध लड़े थे......पर वह लापता हो गया था.’  
‘वह तभी से ही युद्धबंदी है.’
‘आप को कैसे पता चला?’ मैं कह न पाया कि सेना के पास ऐसी कोई पक्की जानकारी न थी.
‘मेरे बचपन का एक मित्र पकिस्तान चला गया था. उसका बेटा वहां पुलिस में है. उसने किसी की मार्फत सूचना भिजवाई थी.’
‘यह सूचना आपने सरकार या सेना.....’
‘किसी ने कुछ नहीं किया. पर वीर रिहा हो रहा है. आज ही घर लौट रहा है.’ इतना कह वह अचानक बाहर चले गए.
मैं इस घटनाक्रम से इतना हतप्रभ हो गया था कि लम्बे समय तक चुपचाप वहीं बैठा रहा. इकहत्तर के युद्ध के कई चित्र आँखों के सामने तैरने लगे.
लगभग बारह बज रहे थे. मैं प्रतीक्षालय से बाहर आया. वीर के पिता कहीं दिखाई न दिए. मन में कई प्रश्न एक साथ उमड़ रहे थे. मैं सहायक स्टेशन मास्टर से मिला. जब उन्हें पता चला कि मैं सेना का एक सेवानिवृत्त अधिकारी हूँ तो मुझे अपने दफ्तर में ले गए.
‘अभी प्रतीक्षालय में एक व्यक्ति से भेंट हुई, उनका बेटा सेना में था. मेरी ही रेजिमेंट में था वह. पकिस्तान में युद्धबंदी है. उनके विषय में कुछ जानते हैं?’
स्टेशन मास्टर ने मुझे घूर कर देखा. मुझे लगा कि मैंने कोई आपत्तिजनक बात कह दी थी.
‘वह अभी आपसे मिले? समझ नहीं आता कि वह आपसे कैसे मिले.’
‘इस में न समझने वाली बात क्या है?’
‘यह सच है कि उनका बेटा युद्धबंदी है. वही कहते थे. कई वर्षों से हर शाम स्टेशन आ रहे थे, कहते थे, “वीर रिहा हो रहा है और रात की ट्रेन से घर लौट रहा है”. पिछले वर्ष जून तक ऐसा ही हुआ. फिर वह कभी नहीं आये.’
‘क्यों?’
‘पिछले जून में उनकी मृत्यु हो गयी थी, यहीं स्टेशन के इस प्रतीक्षालय के भीतर. उस दिन भी वह आये थे और देर रात तक बेटे की राह देखते रहे थे. कुर्सी पर बैठे-बैठे ही उन्होंने प्राण त्याग दिए थे. किसी की पता न चला था. सुबह कोई भीतर आया तो समझा कि वह बैठे-बैठे सो रहे हैं. पर वह सो नहीं रहे थे. उनकी मृत्यु हो चुकी थी.’
मैं समझ न पा रहा था कि स्टेशन मास्टर मुझे एक कहानी सुना रहे थे या कोई सत्य बता रहे थी. तभी मेरी ट्रेन प्लेटफार्म आ रुकी और गाड़ी पर सवार होने चल दिया.

©आइ बी अरोड़ा 

Friday 13 May 2016

भूत-बँगला   (एक कहानी)
‘एक करोड़? इस घर के लिए? आप मज़ाक तो नहीं कर रहे? इस घर के लिए कोई पचास लाख भी न दे.’
‘ऐसा क्यों? क्यों कोई इस घर के लिए पचास लाख भी देने को तैयार न होगा?’ उनकी वाणी से लग रहा था कि मेरी बात ने उन्हें आहत किया था. मैं थोड़ा सतर्क हो गया. मैंने उनके हाव-भाव जानने का प्रयास क्या और ठिठक कर रह गया.
मैंने देखा कि उनका चेहरा कुछ अलग-सा दिख रहा था, जैसे कि उनके चेहरे पर मोम की एक परत चढ़ी हुई हो. पर ऐसा कैसे हो सकता था, मैं समझ न पा रहा था.
‘वो बात ऐसी है कि ...... शायद यह एक अफवाह ही हो...... पर लोग कहते हैं कि.........’मैं बात पूरी करने मैं झिझक रहा था.
‘जो कहना चाह रहे हो कह डालो. इस तरह शब्दों का जाल मत बुनो.’ उन्होंने थोड़ा गुस्से से कहा. उनकी आँखें निर्जीव सी लग रहीं थीं.
‘इस घर मैं भूतों का वास है......ऐसा लोग कहते हैं.’
‘और तुम क्या कहते हो? तुम्हें भी लगता है कि यह एक भूत-बँगला है?’
‘मैं नहीं जानता कि......कि सच क्या है.’
‘सच यह है कि मैं एक पुलिस अधिकारी हूँ और मैंने कई शक्तिशाली लोगों की शत्रुता मोल ले ली है. मेरा इकलौता बेटा  विदेश चला गया है. वह वहीं बस गया है. अब मैंने भी, नौकरी छोड़, विदेश जाने का निर्णय लिया है. इसीलिए यह घर बेचना चाहता हूँ. पर यह लोग नहीं चाहते कि मुझे उचित दाम मिले. यह मुझे दंड देना चाहते हैं.’
‘आप जो मांग रहे हैं वह कोई उचित मूल्य तो नहीं.’ घर मुझे अच्छा लगा था और मैं इसे लेना चाहता था. मुझे भूत-प्रेतों में कोई विश्वास नहीं है, इस कारण मैं अफ़वाहों से डरने वाला न था.
‘हम मोल-तोल भी कर सकते हैं.’
‘अगर इन शक्तिशाली लोगों को मेरा यह घर लेना अच्छा न लगा तो वह लोग मेरे भी शत्रु बन सकते हैं?’
‘ऐसा कुछ न होगा. उनकी शत्रुता मुझ से है. वह मेरे पीछे आयेंगे. पर मैं उन्हें मिलूंगा नहीं.
‘मैं सिर्फ साठ लाख दे पाउँगा.’
‘मुझे मंज़ूर है. यह घर तुम्हारा हुआ.’
वह इतनी तत्परता से मेरा प्रस्ताव मान लेंगे, मैंने सोचा न था. मैं थोडा हतप्रभ रह गया. लेक सिटी में ऐसा घर साठ लाख में मिलना असम्भव था. वह अड़ जाते तो मैं अस्सी लाख भी दे देता.
मैं तय न कर पाया कि मुझे प्रसन्न होना चाहिए या चिंतित. एक अनजानी आशंका ने मुझे घेर लिया. कुछ था जो मुझे अपनी समझ के परे लग रहा था.
दस-एक दिन के बाद एक मित्र का फोन आया. वह जानता था कि मैं एक घर लेना चाहता हूँ. उसने बताया कि लेक सिटी में एक घर बिकाऊ था, अगर मैं चाहूँ तो घर देख कर निर्णय ले सकता हूँ.
‘पर मैंने तो पहले ही उसी घर के लिए सौदा पक्का कर लिया है. दो-चार दिनों में पहली किस्त भी दे आऊंगा.’
मेरी बात सुन मित्र आश्चर्यचकित हो गया. उसने पूछा, ‘किस के साथ सौदा पक्का किया तुमने? उस घर का मालिक तो यहाँ था ही नहीं, दो दिन पहले ही वह विदेश से लौटा है.’
‘विदेश से लौटा है? दो दिन पहले? यह कैसे हो सकता है?’
‘वह दो वर्ष भारत से चला गया था, अपने पिता की मृत्यु के बाद. वहीं बस गया. अब लौटा है. वह भी सिर्फ घर को बेचने के लिए.’
उसकी बात सुन मुझे थक्का लगा. मुझे लगा कि मेरे हाथ कांप रहे थे. मैंने सहमी आवाज़ में पूछा, ‘उसके पिता की मृत्यु कैसे हुई? कोई जानकारी है तुम्हारे पास?’
‘उसके पिता पुलिस अधिकारी थे, कुछ शक्तिशाली लोगों से उनकी शत्रुता हो गयी थी. उन्हीं लोगों ने उनकी हत्या कर दी.  बहुत ही निर्मम हत्या थी, उन्हें पिघली हुई मोम में डुबा कर मार डाला. आज तक कोई भी हत्यारा...........’
मैं कुछ सुन-समझ न पा रहा था. मेरी आँखों के सामने एक चेहरा था जिस पर मोम की परत चढ़ी हुई थी.
© आइ बी अरोड़ा


भूत-बँगला   (एक कहानी)

‘एक करोड़? इस घर के लिए? आप मज़ाक तो नहीं कर रहे? इस घर के लिए कोई पचास लाख भी न दे.’
‘ऐसा क्यों? क्यों कोई इस घर के लिए पचास लाख भी देने को तैयार न होगा?’ उनकी वाणी से लग रहा था कि मेरी बात ने उन्हें आहत किया था. मैं थोड़ा सतर्क हो गया. मैंने उनके हाव-भाव जानने का प्रयास क्या और ठिठक कर रह गया.
मैंने देखा कि उनका चेहरा कुछ अलग-सा दिख रहा था, जैसे कि उनके चेहरे पर मोम की एक परत चढ़ी हुई हो. पर ऐसा कैसे हो सकता था, मैं समझ न पा रहा था.
‘वो बात ऐसी है कि ...... शायद यह एक अफवाह ही हो...... पर लोग कहते हैं कि.........’मैं बात पूरी करने मैं झिझक रहा था.
‘जो कहना चाह रहे हो कह डालो. इस तरह शब्दों का जाल मत बुनो.’ उन्होंने थोड़ा गुस्से से कहा. उनकी आँखें निर्जीव सी लग रहीं थीं.
‘इस घर मैं भूतों का वास है......ऐसा लोग कहते हैं.’
‘और तुम क्या कहते हो? तुम्हें भी लगता है कि यह एक भूत-बँगला है?’
‘मैं नहीं जानता कि......कि सच क्या है.’
‘सच यह है कि मैं एक पुलिस अधिकारी हूँ और मैंने कई शक्तिशाली लोगों की शत्रुता मोल ले ली है. मेरा इकलौता बेटा  विदेश चला गया है. वह वहीं बस गया है. अब मैंने भी, नौकरी छोड़, विदेश जाने का निर्णय लिया है. इसीलिए यह घर बेचना चाहता हूँ. पर यह लोग नहीं चाहते कि मुझे उचित दाम मिले. यह मुझे दंड देना चाहते हैं.’
‘आप जो मांग रहे हैं वह कोई उचित मूल्य तो नहीं.’ घर मुझे अच्छा लगा था और मैं इसे लेना चाहता था. मुझे भूत-प्रेतों में कोई विश्वास नहीं है, इस कारण मैं अफ़वाहों से डरने वाला न था.
‘हम मोल-तोल भी कर सकते हैं.’
‘अगर इन शक्तिशाली लोगों को मेरा यह घर लेना अच्छा न लगा तो वह लोग मेरे भी शत्रु बन सकते हैं?’
‘ऐसा कुछ न होगा. उनकी शत्रुता मुझ से है. वह मेरे पीछे आयेंगे. पर मैं उन्हें मिलूंगा नहीं.
‘मैं सिर्फ साठ लाख दे पाउँगा.’
‘मुझे मंज़ूर है. यह घर तुम्हारा हुआ.’
वह इतनी तत्परता से मेरा प्रस्ताव मान लेंगे, मैंने सोचा न था. मैं थोडा हतप्रभ रह गया. लेक सिटी में ऐसा घर साठ लाख में मिलना असम्भव था. वह अड़ जाते तो मैं अस्सी लाख भी दे देता.
मैं तय न कर पाया कि मुझे प्रसन्न होना चाहिए या चिंतित. एक अनजानी आशंका ने मुझे घेर लिया. कुछ था जो मुझे अपनी समझ के परे लग रहा था.
दस-एक दिन के बाद एक मित्र का फोन आया. वह जानता था कि मैं एक घर लेना चाहता हूँ. उसने बताया कि लेक सिटी में एक घर बिकाऊ था, अगर मैं चाहूँ तो घर देख कर निर्णय ले सकता हूँ.
‘पर मैंने तो पहले ही उसी घर के लिए सौदा पक्का कर लिया है. दो-चार दिनों में पहली किस्त भी दे आऊंगा.’
मेरी बात सुन मित्र आश्चर्यचकित हो गया. उसने पूछा, ‘किस के साथ सौदा पक्का किया तुमने? उस घर का मालिक तो यहाँ था ही नहीं, दो दिन पहले ही वह विदेश से लौटा है.’
‘विदेश से लौटा है? दो दिन पहले? यह कैसे हो सकता है?’
‘वह दो वर्ष भारत से चला गया था, अपने पिता की मृत्यु के बाद. वहीं बस गया. अब लौटा है. वह भी सिर्फ घर को बेचने के लिए.’
उसकी बात सुन मुझे थक्का लगा. मुझे लगा कि मेरे हाथ कांप रहे थे. मैंने सहमी आवाज़ में पूछा, ‘उसके पिता की मृत्यु कैसे हुई? कोई जानकारी है तुम्हारे पास?’
‘उसके पिता पुलिस अधिकारी थे, कुछ शक्तिशाली लोगों से उनकी शत्रुता हो गयी थी. उन्हीं लोगों ने उनकी हत्या कर दी.  बहुत ही निर्मम हत्या थी, उन्हें पिघली हुई मोम में डुबा कर मार डाला. आज तक कोई भी हत्यारा...........’
मैं कुछ सुन-समझ न पा रहा था. मेरी आँखों के सामने एक चेहरा था जिस पर मोम की परत चढ़ी हुई थी.

© आइ बी अरोड़ा 

Wednesday 11 May 2016

मेट्रिक का सर्टिफ़िकेट
मुकंदी लाल थोड़ा घबराये से थे. हाथ में एक पर्चा लिए पत्नी से बोले, ‘तुम्हारे प्रमाण पत्र कहाँ हैं? आर टी आई के अंतर्गत किसी ने तुम्हारा मेट्रिक का सर्टिफिकेट माँगा है. दफ्तर वालों ने कहा है कि दो दिन में मुझे सब कागज़ात जमा कराने होंगे.’
‘मेरे सर्टिफ़िकेट से तुम्हारे दफ्तर वालों का क्या लेना देना?’ पत्नी ने झुंझला कर कहा.
‘तुम समझती नहीं हो. ऐसी बात तो मोदी जी भी नहीं पूछ सकते, हमारी क्या बिसात. आर टी आई कानून के बारे में कुछ जानती भी हो? हर नागरिक के पास अधिकार है कि वह कोई भी जानकारी प्राप्त कर सकता है. अब तुम झमेला मत करो, बस यह बताओ कि तुम्हारा मेट्रिक का सर्टिफ़िकेट कहाँ है.’
‘तुम से किसने कहा कि मैंने मेट्रिक पास किया था?’
‘क्यों? तुम्हारे बाबूजी ने ही कहा था. मैं भी वहीं था जब बात हुई थी.’
‘नहीं, तुम लोग गलत समझे, हम तो चौथी में ही स्कूल छोड़ दिए थे.’
‘तुम ने मेट्रिक पास नहीं किया. आज तक हमें धोखे में रखा. उस दिन तो तुम बिन्नू से कह रही थी कि लिख दो की तुम बी ए पास हो. अब कह रही हो कि तुम मेट्रिक भी नहीं हो, सिर्फ चौथी..........  और बिन्नू...........’
‘तुम अपनी बात करो. तुम्हारे अपने प्रमाण पत्र कौन से ठीक हैं. तुम्हारे मेट्रिक के सर्टिफ़िकेट में क्या नाम लिखा है, कुछ याद भी है.’
अचानक मुकंदी लाल पचीस साल पीछे पहुँच गए. भर्ती हुए दो साल से ऊपर हो गए थे और उन्हें एक भी इन्क्रीमेंट न मिला था. साहस कर एक दिन अकाउंटेंट से पूछा, उसने कहा, ‘क्या सर्विस बुक बन गयी है.’ ‘वह क्या होता है?’ ‘तुम यह भी नहीं जानते की हर कर्मचारी की सर्विस बुक होती है. सर्विस बुक बनने के बाद ही इन्क्रीमेंट मिलती है. कल अपने सारे सर्टिफिकेट ले आना. सर्विस बुक बना दूँगा.’
अगले दिन अकाउंटेंट ने सर्टिफ़िकेट देख कर कहा, ‘गड़बड़ है. तुम ने भर्ती के समय फॉर्म में अपना नाम लिखा था, मुकंदी लाल. लेकिन तुम्हारे मेट्रिक के सर्टिफ़िकेट में नाम लिखा है, मुकंदी लाल घसीटा. यह तुम्हारा सर्टिफ़िकेट ही है?’
‘सर्टिफ़िकेट तो मेरा ही है. बस वह घसीटा शब्द कुछ अच्छा न लगता था. इस कारण भर्ती के समय फॉर्म में नहीं लिखा........’
‘पर यह तो गलत है. सर्विस बुक में तो वही नाम आयेगा जो सर्टिफ़िकेट में दर्ज है. पर वह नाम रिकॉर्ड में नहीं है.’
‘अब आप ही कोई तरीका ढूंढो. न मैं अपना सर्टिफ़िकेट बदल सकता हूँ, न दफ्तर का रिकॉर्ड.’
अकाउंटेंट भले-मानस थे, किसी तरह सर्विस बुक बना दी. नाम भी वही लिखा जो उन्हें पसंद था, मुकंदी लाल. अनुभाग अधिकारी ने हस्ताक्षर भी कर दिये. एक-आध महीने के बाद इन्क्रीमेंट भी मिल गया. और मुकंदी लाल भूल गए कि सर्टिफ़िकेट में क्या नाम लिखा था.  
‘यह बात तो मुझे ध्यान में ही न रही. अगर किसी ने आर टी आई का सहारा ले कर मेरा सर्टिफ़िकेट मांग लिया तो मेरी तो नौकरी छूट जाएगी.’
‘यही बात मैं समझाने की कोशिश कर रही हूँ. तुम हो की मेरे बाबू जी को ही कोस रहे हो, वह सच कहे थे. तुम लोग ही समझ न सके तो उनका क्या दोष.’

मुकंदी लाल कुछ सुन-समझ न रहे थे. वह तो इस चिंता में थे कि कहीं किसी ने उनके मेट्रिक के सर्टिफ़िकेट की कापी मांग ली तो फिर क्या होगा.