Saturday 30 September 2017

राजनीति और परिवारवाद
अपनी पुस्तक ‘विटनेस टू एन इरअ’ (Witness to an Era: India 1920 to the Present Day)  में फ्रैंक मोरेस (Frank Moraes) ने पंडित जवाहर लाल नेहरु की तुलना एक वट वृक्ष से की है. लेखक के अनुसार महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कई नेताओं को पनपने का अवसर मिला. नेहरु, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद जैसे कई लोग देश के अग्रणी राजनेता बने.
परन्तु फ्रैंक मोरेस के अनुसार नेहरु जी एक वट वृक्ष सामान थे. वट वृक्ष ऐसा वृक्ष होता है जिस की छाँव में एक तिनका भी नहीं उग पाता. नेहरु भी ऐसे ही नेता थे. उनकी अगुआई में कोई नेता उबर कर आगे न आ पाया.
अगर हम नेहरु जी की तुलना अमरिका के प्रथम राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन से करें तो पायेंगे कि जार्ज वाशिंगटन ने इस बात का पूरा ध्यान रखा कि अपने कार्यकाल में वह कोई भी ऐसी प्रथा न स्थापित करें जिससे उस देश में राजशाही का चलन शुरू हो जाए. दो बार चुनाव जितने के बाद जार्ज वाशिंगटन ने यह निर्णय ले लिया कि वह तीसरी बार चुनाव में खड़े ही न होंगे. जार्ज वाशिंगटन के इस निर्णय का अनुकरण करते हुए लगभग एक सौ पचास वर्षों तक कोई भी नेता तीसरी बार चुनाव न लड़ा.
यहाँ इस देश में नेहरु जी तब तक ‘सिंहासन’ पर बैठे रहे जब तक की उनकी मृत्यु न हो गयी.
राजपरिवारों के पनपने की बीज नेहरु काल में बो दिए गए थे. नेहरूजी ने शुरू से ही इंदिरा गांधी के अपने साथ रखा था. इंदिरा गांधी उनकी अनाधिकारिक पर्सनल असिस्टेंट थी. उनके जीवन काल में ही इंदिरा गांधी पहले कांग्रेस वर्किंग समिति की सदस्य बनी, फिर पार्टी अध्यक्ष. संकेत स्पष्ट था. परिवारवाद का बीज बो दिया गया था.
आज यह स्तिथि है कि, कुछ एक नेताओं को छोड़, हर किसी नेता का लक्ष्य होता है कि राजनीती में रहते ही अपने बेटे, बेटी, बहु, नाती, रिश्तेदार को राजनीति में स्थापित कर दिया जाए. यह इच्छा हर एक नेता में पनपती है, वह केंद्र सरकार के मंत्री हो या पंचायत का सदस्य.
क्या कारण है कि भारतीय राजनीति में परिवारवाद इस तरह पनप रहा है?
इस का मूल कारण है हमारी सोच. हर राजनेता, चाहे वह विलायत से ही पढ़कर (?) आया हो या अमरीका से, यह समझता है कि जिस भी पद पर वह विराजमान है, वह पद उसे किसी अपने को ही विरासत में दे कर जाना है. जब तक वह राजनीति में रहता अपना ध्येय वह कभी भूलता नहीं और उसका हर कदम अपने इस लक्ष्य की ओर ही जाता है.
दूसरा कारण, सिर्फ राजनीति ही एक ऐसा व्यवसाय है जिस में प्रवेश पाने के लिए प्रार्थी के पास किसी योग्यता का होना अनिवार्य नहीं है. आप अपने आसपास ही देख लें. कितने ऐसे ‘युवराज’ हैं जो आई आई टी की, सिविल सर्विसेज की, पीएमटी या सीपीएमटी की परीक्षा पास कर पाते. शायद यह ‘युवराज’ क्लर्क ग्रेड परीक्षा में भी असफल रहते. पर विरासत में तो सब कुछ मिल जाता है, मंत्री का पद, लोक सभा/ विधान सभा की सदस्यता.
तीसरी कारण, अगर कोई व्यक्ति सरकारी विभाग में चपरासी भी बनना चाहता है तो उसका चाल-चलन अच्छा होना चाहिए, पुलिस में उसका रिकॉर्ड साफ़ होना चाहिए. लेकिन राजनीति में तो वह लोग भी प्रवेश पा लेते हैं जिन के विरुद्ध हत्या या बलात्कार के मामले दर्ज हों. अत: किसी ‘युवराज’ को अपने बालपन या युवाकाल में अपने  चाल-चलन की चिंता नहीं करनी पड़ती, गद्दी तो एक दिन विरासत उसे मिल ही जानी है.
हमारे राजनेता किसी का विश्वास नहीं करते, किसी पर उन्हें भरोसा नहीं होता. इस कारण सत्ता में बने रहने के लिए वह सिर्फ अपने सगे-संबंधियों पर ही निर्भर रहते हैं. अगर एक राजनेता के दृष्टिकोण से सोचा जाए तो यह सही भी है. अगर (कंस समान) बेटा बाप को कैद में डाल सकता है तो बाहरी लोगों पर कैसे कोई भरोसा कर ले?
और सबसे महत्वपूर्ण कारण, जितनी सुविधाएं और विशेषाधिकार हमारे देश में एक राजनेता को मिलते हैं उतनी सुविधाएं और विशेषाधिकार शायद राजशाही में राजाओं और राजकुमारों को भी नहीं मिलते. इस देश में कौन ऐसा व्यवसाय है जिसमें प्रवेश पाकार आप उस आन बान से रह सकते हैं जितनी आन बान से हमारे राजनेता रहते हैं?
ऐसा कौन माता-पिता होंगे जो यह न चाहेंगे कि उनके पुत्र-पुत्रियाँ व अन्य सगे-संबंधी भी वही सुख-सुविधाएं भोगें जो वह स्वयं अपने राजनीतिक जीवन में भोगते आयें हैं. सत्ता का नशा किसे अच्छा नहीं लगता. शायद हेनरी किसिंजर ने कहा था, पॉवर इस ध अल्टीमेट ऐफ़्राडिज़िऐक (Power is the ultimate aphrodisiac). हमारे राजनेता और हमारी राजनीति इस बात का जीता जागता प्रमाण है.
परिवारवाद के समर्थक कोई भी तर्क देलें परन्तु सत्य तो यही है कि हर राजनेता किसी न किसी रूप में पुत्र-मोह से ग्रसित ध्रतराष्ट्र ही है.

        

Thursday 28 September 2017

क्या यह आतंकवाद नहीं है?

कोई पचासेक वर्षों से हम इस देश किसी न किसी तरह के आतंकवाद को झेल रहे हैं. आतंकवाद की कुछ घटनाएं तो इतनी भयावह थीं कि उन घटनाओं को हम शायद कभी भुला भी न पायें.
इन्टरनेट पर बहुत खोज करने के बाद भी मैं आतंकवादी घटनाओं में मारे गए लोगों की कोई अधिकृत संख्या जान न पाया. विकिपीडिया में दी गई जानकारी के अनुसार पिछले दस वर्षों (2006 से 2015 तक) में घटी घटनाओं में 5789 लोग मारे गए और 10331 लोग घायल हुए. ज्यूइश वर्चुअल लाइब्रेरी की साईट पर दी गई जानकारी के अनुसार 2012 से 2016 के बीच 1680 लोग मारे गए और 3059 घायल हुए.
स्वाभाविक है कि आतंक को लेकर हम सब चिंतित है. मीडिया में इस विषय पर लगातार चर्चा होती रहती है. सरकार ने आतंकवाद से झूझने के लिए कई कदम उठाये हैं और इस सारे बंदोबस्त पर करोड़ों (शायद अरबों?) रूपए खर्च कर दिए हैं. जनता, मीडिया, विपक्ष सब सरकार के जवाबदेही चाहते हैं और यह भी अपेक्षा करते हैं कि आतंकवाद से निपटने के लिए और कारगर कदम उठाये जाएँ.
पर एक अन्य प्रकार के आतंक से यह देश बरसों से  पीड़ित हैं पर उसको लेकर हम सब पूरी तरह बेपरवाह और निश्चिन्त हैं.    
उस आतंक की गंभीरता को समझने के लिए कुछ आंकड़ों को जान लेना आवयश्क है.
जहां एक ओर पिछले दस वर्षों में अलग-अलग आतंकवादी घटनों के कारण अगर पाँच से छह हज़ार लोग मारे गए हैं और दस हज़ार के आसपास घायल हुए हैं तो वहीं दूसरी ओर उसी कालावधी में इस अलग प्रकार के आतंक के कारण 13,04,345 लोग मारे गए और पचास लाख से अधिक लोग घायल हुए. यह आतंक है सड़क पर घटने वाली दुर्घटनाएं.
पर आश्चर्य है कि हम सब ने इस आतंक को कितने सहज भाव से स्वीकार कर लिया. न इस पर मीडिया में चर्चा होती है, न विपक्ष के लिए यह एक मुद्दा है.
आतंकवादी की गोली से आहत एक व्यक्ति की मृत्यु पूरे देश को हिला कर रख देती है.  पर सड़क दुर्घटनाओं के कारण हर दिन चार सौ से अधिक लोग मारे जाते हैं, पर हमारे लिए यह मौतें कोई मायने नहीं रखती. दुर्घटना में मरने वाले किसी जानकार की अर्थी को कन्धा दे कर हम कर्तव्य-मुक्त हो जाते हैं.
क्या इस बेपरवाही का कारण यह तो नहीं है कि हम सब इन मौतों के लिए जिम्मेवार हैं, हम सब यह सच्चाई  भीतर से जानते हैं और इसी कारण इसे कोई मुद्दा नहीं बनाना चाहते.
यह बात मैं इस लिए कह रहा हूँ क्योंकि आंकड़ों के अनुसार 77% सड़क दुर्घटनायें वाहन चालकों की गलती के कारण होती हैं. अर्धात इस देश में हर दिन तीन सौ से अधिक लोग वाहन चालकों की गलती के कारण अपनी जान गंवाते हैं. इन तीन सौ मौतों में से दो सौ से अधिक मौतें उन वाहन चालकों के कारण होती हैं जो या तो अपना वाहन तेज़ गति से चलाते हैं या फिर नशे की हालत में अपनी गाड़ी चलाते हैं. आपको याद दिला दूं कि 1993 के मुंबई बम धमाकों में लगभग 300 लोग ही मारे गए थे.
एक आतंकवादी किसी मॉल या मार्किट में आकर अंधाधुंध गोलियां चलाता है या वहां बम-विस्फोट करता है, कुछ लोग घायल होते हैं या मारे जाते हैं. हम हर दिन सड़कों पर अंधाधुंध अपनी गाड़ियाँ दौड़ाते हैं, तेरह सौ से अधिक दुर्घटनाएं करते हैं,  हर दिन तीन सौ से अधिक लोगों को मार गिराते हैं, एक हज़ार से अधिक लोगों को घायल कर देते है. क्या यह एक प्रकार का आतंकवाद नहीं है? यह भी बताना उचित होगा कि कुछ आतंकवादियों की भांति कुछ वाहन चालक इन हादसों में मारे जाते हैं.
अगर वाहन चालकों की गलती के कारण तीन सौ से अधिक लोग हर दिन मर रहे हैं तो हम सड़क दुर्घटनाओं को बहस का मुद्दा कैसे बना सकते हैं. और अगर हम इसे बहस का मुद्दा बनायेंगे तो क्या हम स्वयं को ही कटघरे में खड़ा नहीं पायेंगे?
आप कहेंगे कि यह सिस्टम की गलती है जो ऐसे लोगों को लाइसेंस दे देता है जो अयोग्य हैं; ट्रैफिक पुलिस अपना काम ठीक से नहीं करती; नियम-कानून में खामियां है.
यह सब सही है, लेकिन  हम सब यह बात क्यों नहीं समझते कि लापरवाही से गाड़ी चलाने के कारण हम दूसरों के लिए एक खतरा तो बनते ही हैं, हम अपनी जान को भी तो जोखिम में डाल देते हैं.
गाड़ी का स्टीयरिंग व्हील हाथ में पकड़ते ही हम इतने विवेकहीन कैसे हो जाते हैं यह बात मैं आज तक नहीं समझ पाया.

Monday 25 September 2017

बहुत देर हो चुकी होगी

नवरात्र के पहले दिन दिल्ली में कुछ युवकों ने अपने-अपने मोटर साइकलों पर छतरपुर मंदिर जाने का सोचा. एक जगह एक मोटर साइकिल को एक अंजान गाड़ी ने टक्कर मार दी. उस पर सवार तीनों लड़के घायल हो गए. एक लड़के को तो उस गाड़ी ने रौंद ही डाला और उसकी घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई.
एक “सच्चे, सभ्य भारतीय” होने के कारण उस गाड़ी वाले वहां रुक कर घायलों की सहायता करना आवश्यक न समझा. उसने वहां से भाग जाना ही उचित समझा.
घायल लड़कों के मित्रों ने रास्ते से आने-जाने वाली गाड़ियों को रोकने का प्रयास किया ताकि वह अपने घायल साथियों को अस्पताल ले जा सकें. पर बीस मिनट तक कोई भी सभ्य नागरिक” उनकी सहायता करने को तैयार न हुआ. इस देरी के कारण एक और युवक की मौत हो गयी और तीसरा समाचार मिलने तक मौत और ज़िन्दगी के बीच लटका हुआ था. तीनों लड़कों की उम्र उन्नीस के आस-पास थी.
इस घटना के कई पहलु हैं जिन पर हम सब को सोच-विचार करना होगा.
एक रिपोट क्र अनुसार 2015 में जितनी सड़क दुर्घटनाएं हुईं उन में से 71% दुर्घटनाएं वाहन चालकों की गलती के कारण हुईं. इन वाहन चालकों की गलती के कारण उस वर्ष 106021 लोगों की मृत्यु हुई और 401756 लोग घायल हुए. अर्थात हर दिन लगभग तीन सौ लोग मारे गए और 1100 से लोग घायल हुए. यह एक ऐसी संख्या है जो किसी भी सभ्य  समाज को डरा दे.
और इस से भी डराने और चौंकाने वाली बात यह है कि इन दुर्घनाओं में साठ प्रतिशत से अधिक दुर्घटनाएं ओवर-स्पीडिंग के कारण हुई. अधिक गति से वाहन चलाने के कारण यह वाहन चालक लगभग 65000 लोगों की मृत्यु का कारण बने. अर्थात हर एक घंटे में सात से आठ लोगों को अपनी जान गवांनी पड़ी क्योंकि कुछ लोग सीमा गति के भीतर अपना वाहन चलाने को तैयार नहीं हैं.
अब ‘हिट एंड रन’ मामलों की बात की जाए; 2015 में 57000 से अधिक ‘हिट एंड रन’ दुर्घटनाएं हुईं. इन दुर्घटनाओं में कोई 20709 लोग मारे गए और 47000 लोग घायल हुए. एक बात सोचने की है. यह लोग जो किसी को सड़क पर मार कर भाग जाते हैं वह सब क्या एक तरह से उन मृतकों के हत्यारे नहीं हैं? क़ानून शायद ऐसी मृत्यु को हत्या नहीं मानता और न ही ऐसे महानुभावों को हत्यारा मानता है, पर जब कोई तेज़ गति से गाड़ी चालते हुए किसी को मार देता है और फिर रुक कर उसकी सहायता करना भी आवश्यक नहीं समझता तो वह हत्यारे से कम कैसे हुआ?
हम सब समाज में न ऐसे लोगों को दोषी मानते हैं और न ही किसी भांति उनका बहिष्कार या तिरस्कार करते हैं. इस कारण इस देश में  सड़क दुर्घनाओं में मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है. पर यह बात न नेताओं के लिए चिंता का विषय है न जनता के लिए. मीडिया तो सिर्फ टीआरपी के पीछे भागता है मीडिया से क्या अपेक्षा की जा सकती है.
अब अंतिम बात, हम सब जो अपने आप को धार्मिक मानते है, मंदिर-मस्जिद के लिए लड़ मरने को तैयार है, देवों के दर्शन करने के लिए मंदिरों  की लाइन में घंटों लगे रहते हैं, जप-तप व्रत सब करते हैं, हम सब अपने कितने ही सहज भाव से आसपास के लोगों को लेकर पूरी तरह तटस्थ रहते हैं, हमारे सामने सड़क पर गिरा कोई घायल व्यक्ति हमारे लिए कोई मायने नहीं रखता.

हमें कभी यह अहसास नहीं होता कि शायद किसी दिन हमारा कोई प्रियेजन (या फिर हम स्वयं ही) यूँही सड़क पर घायल पड़ा होगा और सैंकड़ों लोग आस-पास तटस्थ से खड़े रहेंगे, अपनी-अपनी जेबों में हाथ डाले. बीसियों गाड़ियां पास से निकल जायेंगी पर कोई उसकी/हमारी सहायता को नहीं रुकेगा. उस दिन हम इस समाज को धिक्कारेंगे. पर तब तक बहुत देर हो चुकी होगी.

Thursday 21 September 2017

एक बच्चे की हत्या

कुछ दिन पहले गुरुग्राम के एक स्कूल में एक बच्चे की हत्या कर दी गई. इस कांड ने बच्चे के माता-पिता को तो आहत किया ही पर टीवी  पर दिखाये गए दृश्यों को देख कर लगा कि कई अन्य माता-पिता भी आहत हुए हैं. वह सब अपने-अपने निरीह स्कूल जाते बच्चों को लेकर चिंतित हैं, भयभीत हैं.

पर मुझे लगता है कि इन लोगों में से अधिकतर की चिंता और भय कृत्रिम है. आप को शायद मेरी बात सही न लगे पर मेरी समझ में हम सब लोग “औरों” के लेकर जितना विरक्त और तटस्थ रहते हैं उतना ही हम अपने बच्चों को लेकर भी बेफिक्र रहते हैं.

सुबह की सैर करते समय मैंने बीसियों बार देखा है कि कई पिता अपने छोटे बच्चों को मोटर-साइकिलों पर बिठा कर, बिना रेड-लाइट की चिंता किये हुए, तेज़ गति से स्कूलों को ओर जा रहे होते हैं. अकसर इन पिताओं ने हेलमेट भी नहीं पहन रखा होता. अब ऐसी स्थिती में जब कोई दुर्घटना घटती है तो जान-लेवा ही होती है. मैंने तो कई बार महिलाओं को भी, ऐसे ही बेफिक्र अंदाज़ में, अपने बच्चों को कारों व स्कूटरों पर स्कूल ले जाते हुए देखा है.
अब जब माता-पिता स्वयं ही इस तरह ट्रैफिक नियमों का उलंघ्घन करते हुए स्कूटर या कार चलाते हैं तो उन बस/टैक्सी/वैन  ड्राइवरों से, जो बच्चों को स्कूल बसों, टैक्सियों या वैनों  में स्कूल ले जाते हैं, आप किस प्रकार अपेक्षा करते हैं कि वह सब ट्रैफिक नियमों का पालन करेंगे. आप किसी भी चौराहे पर खड़े हो कर देख सकते हैं कि किस तरह यह लोग बच्चों को स्कूल ले जाते हैं या दिन में वापस ले कर आते है.

कितने ही नाबालिग बच्चे सड़कों पर निर्भीकता से स्कूटर, मोटर-साइकिल व कार चलते हुए आपको दिख जायेंगे. एक बार तो मैंने एक ऐसे व्यक्ति को देखा जो कोई दसेक साल को लड़के को स्कूटर चलाना सिखा रहा था. पिता ने हेलमेट न पहन रखा था. बेटे की तो बात ही न पूछिए.

जब हम बड़े ही ट्रैफिक नियमों को लेकर उदासीन हैं तो आप इन बच्चों से क्या उम्मीद रख सकते हैं?

देश में हर एक घंटे में इक्कीस लोग सड़क दुर्घनाओं में मारे जाते हैं. इन दुर्घटनाओं में कई बार स्कूलों से आते-जाते बच्चे भी मारे जाते हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार 2015 में चार सौ से अधिक बच्चे स्कूल बसों को लेकर हुई सड़क दुर्घनाओं में मारे गए थे. उस वर्ष 15633 बच्चों की अलग-अलग सड़क दुर्घटनाओं में मृत्यु हुई थी. यह संख्या हत्या/शिशु-हत्या  वगेरह में मारे जाने वाले बच्चों की संख्या से सात गुणा से भी अधिक है.

पर क्या आप ने किसी माता-पिता को इस बात को लेकर चिंतित देखा है? कितने लोग हैं जो झंडे ले कर सड़कों पर उतरे हैं? कितने लोगों ने शपथ ली है कि वह हर समय ट्रैफिक नियमों का पालन करेंगे और सड़क पर अपना वाहन चलाते समय अपना ही नहीं औरों की सुरक्षा व सुविधा का पूरा ध्यान रखेंगे?

एक बच्चे की निर्मम हत्या को लेकर कुछ लोगों का रोना-धोना मुझे तो बेमानी लगता है. अगर हर दिन बयालीस से अधिक (यह संख्या 2015 की है, आज यह संख्या और भी ज़्यादा होगी) निर्दोष बच्चे सड़क दुर्घटनाओं में मर रहे हैं और हम सब बेफिक्रे, निश्चिन्त बैठे हैं तो कहीं न कहीं हमारी सोच पर प्रश्न चिन्ह लग ही जाता है.


Tuesday 19 September 2017

क्यों पनाह दी जाए रोहिंग्या शरणार्थीयों को?
अचानक देश में कई नेताओं, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, और ह्यूमन-राइट्स वालों के मन में रोहिंग्या शरणार्थीयों के प्रति प्रेम उमड़ आया है. उन्हें लगता है कि आंतरिक सुरक्षा को लेकर सरकार की चिंता बेमानी है.
सबसे पहले यह बात समझने वाली है कि जो लोग आज रोहिंग्या शरणार्थीयों  के लिए आंसूं बहा रहे हैं उन में से अधिकतर वह लोग हैं जो साल के चार-छह महीने विदेशों में रहना पसंद करते हैं, नई दिल्ली के आलिशान  सरकारी बंगलों में या दिल्ली की पॉश कॉलोनियों में रहते हैं, पाँच-सितारा होटलों में आयोजित सम्मेलनों में भाग लेते हैं और अपने उद्गारों से देश और सरकार को अनुगृहित करते हैं. इनके घरों पर अकसर एक पट्टी लगी रहती जिस पर लिखा होता है ‘कुत्तों से सावधान’ या ‘रोब्बेर्स विल बी शॉट’ (डाकुओं को गोली मार दी जायेगी)
अगर हम मान भी लें कि आंतरिक सुरक्षा को लेकर सरकार की चिंता तथ्यों पर आधारित नहीं है या सरकार इस खतरे को अधिक ही महत्व दे रही तब भी प्रश्न तो उठता है कि क्यों हम अपने देश में इन शरणार्थीयों को बसने दें? क्या हमने देश से गरीबी, भुखमरी, जहालत, बीमारी को पूरी तरह से हटा दिया है जो अब हम संसार के अन्य पीड़ित लोगों को शरण दे, उनका भरण-पोषण करना चाहते हैं?
वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार २०१३  में भारत में गरीब लोगों के संख्या सबसे अधिक थी. संसार का हर तीसरा गरीब आदमी भारत में रहता था. लगभग अस्सी करोड़ लोग ‘इंटरनेशनल पावर्टी लाइन’ के नीचे थे और दिन में 115 रूपए से कम पर निर्वाह करते थे. भारत सरकार के मापदंडों के अनुसार कोई बाईस करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे थे.
गरीबी रेखा के नीचे यह सब लोग उतना ही जीएसटी देते हैं जितना वह लोग जो अपनी छुट्टियां विदेश में मनाने जाते हैं और रोहिंग्या शरणार्थीयों को लेकर सरकार की आलोचना करते हैं. यह श्रेष्ठजन चाहे कुछ भी कहें पर कठोर सत्य तो यही है कि सरकार का पहला कर्तव्य अपने देश के लोगों के प्रति होना चाहिए न कि उन लोगों के प्रति जो अपने-अपने देशों में वहां के लोगों के साथ घुलमिल कर रह नहीं पा रहे? गरीब जनता से वसूला टैक्स गरीबों के कल्याण के लिए ही खर्च होना चाहिए. अगर श्रेष्ठजन परोपकार करना चाहते हैं तो उन्हें स्वेच्छा से कहना चाहिए कि रोहिंग्या शरणार्थीयों पर होने वाला खर्च पूरा करने के लिए वह सब श्रेष्ठजन अधिक इनकम/ अन्य टैक्स भरने को तैयार हैं.
आंतरिक सुरक्षा की जब बात आती है तो एक बात ध्यान देने योग्य है. कुछ रोहिंग्या शरणार्थी म्यांमार से हज़ारों मील दूर जम्मू व लद्धाक में जा बसें हैं. परन्तु कोई भी रोहिंग्या शरणार्थी कश्मीर घाटी में जाकर नहीं बसा. क्या ऐसा बस यूँही हो रहा है या इसके पीछे किसी की कोई सोची समझी चाल है. मीडिया में इस बात को ज़रा भी चर्चित नहीं किया गया
यह बात भी जान लेनी चाहिए कि म्यांमार ही एक अकेला देश नहीं है जहां से लोग आंतरिक युद्ध या संघर्ष के कारण पलायन कर रहे हैं? अगर हमें ऐसे पीड़ित लोगों को अपने देश में शरण देनी है तो हमें अपने दरवाज़े उन सब लोगों के लिए खोल देने चाहिए जो अपने-अपने देशों में अत्याचार का शिकार हो रहे हैं, चाहे वह लोग सूडान में रहते हों या इराक में.
पोस्ट-स्क्रिप्ट
नई दिल्ली में जो लोग रोहिंग्या शरणार्थीयों के समर्थन में खड़े हुए हैं, उन श्रेष्ठजनों के घरों (महलों?) के आसपास गरीब लोगों का आना भी सम्भव नहीं है. न आपको वहां झुग्गी-झोपड़ियां दिखेंगी, न ही साइकिल-रिक्शा चलते या फेरी लगते गरीब लोग.