Saturday 26 February 2022

 

अकेलो जाय रे

वाजिद के कुछ अमूल्य वचन फिर सांझा कर रहा हूँ.

टेढ़ी पगड़ी बाँध झरोखा झांकते

तांता तुरग पिलाण चहूँटे डाकते

लारे चढ़ती फौज नगारे बाजते

वाजिद ये नर गए विलाय सिंह ज्यूँ गाजते.

दो-दो दीपक जोए सु मंदिर पोढ़ते

नारी सेती नेह पलक नहीं छोड़ते

तेल फुलेल लगाय क काया चाम की

हरि हाँ, वाजिद मर्द गर्द मिल गये दुहाई राम की.

सिर पर लंबा केस चले गज चाल सी

हाथ गह्यां समसेर ढलकती ढाल सी

एता यह अभिमान कहाँ ठहराहिंगे

हरि हाँ, वाजिद ज्यूँ तीतर कू बाज़ झपट ले जाहिंगे.

कारीगर करतार क हूंदर हद किया

दस दरवाज़ा राख शहर पैदा किया

नखसिख महल बनायक दीपक जोड़िया

हरि हाँ वाजिद, भीतर भरी भंगार क ऊपर रंग दिया.

काल फिरत है हाल रैणदिन लोई रे

हणै राव अरु रंक गिने नहिं कोई रे

यह दुनिया वाजिद बाट की दूब है

हरि हाँ, पाणी पहिले पाल बंधे तो खूब है.

सुकिरत लीनो साथ पड़ी रहे मातरा

लांबा पाँव पसार बिछाया सांथरा

लेय चल्या बनवास लगाईं लाय रे

हरि हाँ, वाजिद देखे सब परिवार अकेलो जाय रे

भूखो दुर्बल देखि नाहिं मुहं मोड़िये

जो हरि सारी देय तो आधी तोड़िये

दे आधी की आध अरध का कौर रे

हरि हाँ, वाजिद अन्न सरीखा पुण्य नहिं कोई और रे.

वाजिद कह रहे हैं कि इस संसार में ऐसे भी अभिमानी लोग आये जो सिंहों के सामान गरजते थे और हाथियों के समान जिनकी चाल थी. पर राम जी की कृपा से सब एक दिन मिट्टी में मिल गए. चाहे राजा हो या रंक, काल के लिए सब बराबर हैं. और जब अंत आएगा तो अकेले ही जाना होगा. लेकिन कर्म साथ रहेंगे.

  

Saturday 12 February 2022

 

हिजाब आंदोलन-असली मुद्दा

हिजाब को लेकर शुरू हुआ आंदोलन एक जगह से दूसरी जगह फ़ैल रहा है. मेन स्ट्रीम मीडिया और सोशल मीडिया दोनों जगह इस पर खूब चर्चा हो रही है. बड़ी-बड़ी बातें कही जा रही हैं और कई प्रकार के तर्क दिए जा रहे हैं. लेकिन यह सब बातें और तर्क लोगों को भ्रमित करने के लिए ही हैं. आंदोलन करने वाले और उनका समर्थन करने वाले बुद्धिजीवी या पत्रकार या नेता असली मुद्दे की ओर संकेत भी नहीं कर रहे.

असली मुद्दा क्या है? मेरी समझ में जो लोग यह आंदोलन कर रहे हैं और जो पत्रकार, नेता, बुद्धिजीवी इस आंदोलन के समर्थन में खड़े हो गए हैं उन सब का मानना है कि पवित्र कुरान और हदीस भारत के संविधान के ऊपर हैं. सीधे-सीधे कहा जाए तो उनकी मांग का अर्थ है कि संविधान और संविधान के अंतर्गत बनाए क़ानून और नियमों के अनुसार चलती संस्थाओं को अपने नियम-कानून बदलने होंगे अगर वह नियम-कानून, उनकी दृष्टि में, पवित्र कुरान और हदीस के विपरीत हैं.

ऐसी बात किसी भी हिजाब आंदोलन समर्थक ने स्पष्ट रूप से नहीं कही है और ऐसा उन लोगों ने सोच समझ कर किया है. यह लोग दिखलाना चाहते हैं कि वह सब संविधान का सम्मान करते हैं.

लेकिन जब यह लोग मांग करते हैं कि संस्थाओं को अपने नियम बदलने होंगे ताकि जो हिदायतें उन लोगों को पवित्र कुरान और हदीस से मिली हैं, उन हिदायतों का पालन वह उन संस्थाओं में रहते हुए भी कर पायें तो इसका तात्पर्य  यही है कि कानून और विभिन्न संस्थाओं के नियम दूसरे दर्जे पर आते हैं.

अगर ऐसा नहीं है तो जो नियम-कानून संवैधानिक हैं और जिन्हें किसी कोर्ट ने अभी तक असंवैधानिक घोषित नहीं किया है, उनका पालन करने में किसी को क्या कठिनाई हो सकती है?

आज नहीं तो कल इस मुद्दे को किसी न किसी प्रकार में सुलझा लिया जाएगा. लेकिन विचार करने की बात यह भी है कि हिजाब की हिदायत के अतिरिक्त क्या और भी हिदायतें हैं जो एक सच्चे मुसलमान के लिए धर्म-संकट खड़ा करती हैं?


Thursday 10 February 2022

 

सीएए पार्ट 2

सरकार ने एक कानून बनाया था जिस के अंतर्गत पाकिस्तान वगैरह से आये हिन्दुओं, सिखों  वगैरह को भारत की नागरिकता दी जा सकती है. यह वह लोग हैं जो अपने देशों में अल्प-संख्यक थे और जो धार्मिक उत्पीड़न के कारण उन देशों से भाग  कर भारत आये हैं. इस कानून को मुस्लिम विरोधी बता कर एक आंदोलन शुरू हुआ. इसके समर्थन में लेफ्ट लिबरल लोग और कई राजनीतिक पार्टियाँ खुल कर सामने आईं. किस प्रकार के नारे लगे और किस प्रकार लोगों को भड़काया गया वह सब ने देखा.

अब हिजाब को लेकर एक आंदोलन शुरू हो गया जो एक नगर से शुरू हो कर कई नगरों में फ़ैल रहा है. हिजाब पहनने की हिदायत नई नहीं है, पर अपनी मर्ज़ी से हिजाब पहनने का मुद्दा २०२२ में बना. ऐसे में परदे के पीछे छिपे लोगों की नियत पर संदेह होना अनिवार्य है.

क्या इस आंदोलन  को सीएए पार्ट 2 आंदोलन नहीं कहा जा सकता?

इस बार भी, जैसा पिछली बार हुआ था, लेफ्ट-लिबरल लोग और राजनेता और देश-विदेश के बुद्धिजीवी इस आंदोलन में कूद पड़ेंगे.

आज नहीं तो कल यह आंदोलन समाप्त हो जाएगा. पर क्या अब इस बात की पूरी संभावना नहीं है कि निकट भविष्य में सीएए पार्ट 3, फिर सीएए पार्ट 4 भी हो? ऐसे आंदोलन शुरू करने के लिए क्या मुद्दों की कोई कमी है इस देश में?

 

 

 

 

 

 

Thursday 27 January 2022

 

वाजिद वाणी

वाजिद के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है. शायद वह राजपुताना के रहने वाले एक गरीब पठान थे. ऐसी मान्यता है कि वाजिद एक बार शिकार करने गये. एक हिरणी का पीछा कर रहे थे. हिरणी अचानक उछली. पल भर के लिए जब वह हवा में थी उसका सौन्दर्य देख कर वाजिद चकित हो गये. भीतर कुछ हुआ. फिर घर न लौट पाए. ईश्वर की खोज में घूमते रहे. संत दादू दयाल (१५४४-१६०३) के शिष्य भी बने.

वाजिद के वचन अनमोल है. वह किसी पढ़े-लिखे पंडित या ज्ञानी के शब्द नहीं हैं, पर हर शब्द एक बहुमूल्य मोती है. उनके कुछ वचन सांझा कर रहा हूँ.

अरध नाम पाषाण तिरे नर लोई रे,

तेरा नाम कह्यो कलि माहिं न बुड़े कोई रे.

कर्म सुक्रति इकवार विले हो जाहिंगे,

हरि हाँ वाजिद, हस्ती के असवार न कूकर खाहिंगे.

राम नाम की लूट फवी है जीव कूँ,

निसवासर वाजिद सुमरता पीव कूँ.

यही बात परसिध कहत सब गाँव रे,

हरि हाँ वाजिद, अधम अजामेल तिरयो नारायण नांव रे.

कहिये जाय सलाम हमारी राम कूँ,

नेण रहे झड़ लाये तुम्हारे नाम कूँ.

कमल गया कुमलाय कल्यां भी जायसी,

हरि हाँ वाजिद, इस बाड़ी में बहुरि भँवरा ना आयसी.

चटक चाँदनी रात बिछाया ढोलिया

भर भादव की रैण पपीहा बोलिया.

कोयल सबद सुनाय रामरस लेत है,

हरि हाँ वाजिद, दाज्यो ऊपर लूण पपीहा देत है.

रैण सवाई वार पपीहा रटत है,

ज्यूँ ज्यूँ सुणिऐ कान करेजा फटत है.

खान पान वाजिद सुहात न जीव रे,

हरि हाँ, फूल भये सम सूल बिनावा पीव रे.

पंछी एक संदेसा कहो उस पीव सूँ,

विरहनि है बेहाल जायगी जीव सूँ.

सींचनहार सुदूर सूक भई लाकरी,

हरि हाँ वाजिद, घर में ही बन कियो बियोगिन बापरी.

बालम बस्यो बिदेस भयावह भौन है, 

सौवे पाँव पसार जू ऐसी कौन है.

अति है कठिन यह रैण बीतती जीव कूँ,

हरि हाँ वाजिद, कोई चतुर सुजान कहै जाय पीव कूँ.

वाजिद के यह अमूल्य शब्द उस भक्त की पीड़ा को व्यक्त कर रहे हैं जो अपने प्रभु को पाने किये तड़प रहा है. पपीहे के बोल भी उसके मन में चुभते हैं. राम नाम की लूट मची है, पर वह अभी भी उनके दर्शन से वंचित है. अब किसी बात में उसका मन नहीं लगता. वह सूख कर लकड़ी हुआ जा रहा है. वन में रह रहे वियोगी समान वह घर में वियोगी की तरह जी रहा है. हर पल अपने प्रियतम को पुकार रहा. हरि दर्शन के बिना जीना कठिन होता जा रहा है. उसकी यही आस है कि कोई सुजान (अर्थात वह सद्गुरु जिसने हरि के दर्शन कर लिये हैं) उसकी पुकार को उसके प्रियतम तक पहुँचा दे.

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Wednesday 26 January 2022

 

राष्ट्रीय  समर स्मारक

“यह जो राष्ट्रीय समर स्मारक बनाया गया है इस को लेकर कई लोग परेशान हैं. पर मुझे तो किसी महानुभाव का तर्क समझ नहीं आया. यह सब क्या है?” मुकन्दी लाल जी ने पूछा.

“किस को परेशानी है? उन्हीं लोगों को परेशानी है जिन्हें यह स्मारक बासठ या पैंसठ की लड़ाई के बाद ही बना देना चाहिए था. उन्होंने तो इकहत्तर के बाद भी नहीं बनाया. अब अपनी विफलता छिपाने का इससे बेहतर उपाय क्या हो सकता है कि जो कुछ हो रहा है उसे पर संदेह करो, प्रश्न चिन्ह लगाओ. .”

“आश्चर्य है, हमारे नेता लोग अपने लिए तो गली-गली में स्मारक खड़े कर देते हैं, जहाँ देखो किसी न किसी नेता की मूर्ति दिखाई दे जायेगी. कहीं किसी नेता के सम्मान में कोई स्टेडियम तो कहीं कोई अस्पताल है. किसी के नाम पर यूनिवर्सिटी, किसी के नाम पर कोई संस्थान,” मुकन्दी लाल बोले.

“श्रीमान, हमारे नेता तो अपने आप को भारत रत्न दे देते हैं.’

“सच में? मुझे इस बात का पता न था,” मुकन्दी लाल जी आश्चर्यचकित थे.

“ पर यही सच है.”

“लगता है सेना का सम्मान करने में थोड़ी हिचक थी. नहीं?” मुकन्दी लाल ने कहा.

“शायद. आपको पता है, बाहर किसी देश में सेना का अपमान कर कोई व्यक्ति राजनीति में नहीं टिक सकता, एक दिन भी नहीं. क्या कोई अमरीकी या अँगरेज़ राजनेता अपने सेना अध्यक्ष को सड़क का गुंडा कहने का साहस कर सकता है?”

“अरे, वहाँ तो ऐसी बात कहने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता.”

“पर हमारे नेता कर सकते हैं.”

“मुझे लगता है, इसे मुद्दा न बनाते और चुप रहते तो बेहतर होता. नहीं?” मुकन्दी लाल ने कहा.

“श्रीमान, कुछ कहने के लिए जितनी समझ चाहिए उससे अधिक समझ चाहिए चुप रहने के लिए.”

मेरी बात सुन कर मुकन्दी लाल खिलखिला कर हँस पड़े.

Sunday 23 January 2022

 

सहजो वाणी-2

सहजो बाई के कुछ और वचन सांझा कर रहा हूँ

प्रेम दिवाने जे भये, पलटी गयो सब रूप

सहजो दृष्टि न आवाई, कहा रंक कहा भूप.

(जब व्यक्ति ईश्वर के प्रेम में डूब जाता है, फिर उसके लिये सब भेद मिट जाते, राजा और रंक एक समान दिखते हैं)

प्रेम दिवाने जे भये, जाति वरण गए छूट

सहजो जग बौरा कहे, लोग गए सब फूट.

(ईश्वर के प्रेम में व्यक्ति को जाति वर्ण का कोई भेद नहीं रहता, पर लोग उसे पागल समझने लगते हैं और उससे नाता तोड़ लेते हैं)

प्रेम दिवाने जे भये, सहजो डिगमिग देह

पाँव पड़े कित के किती, हरि संभाल तब लेह.

(ईश्वर प्रेम में लीन भक्त को तो अपनी देह का भी ध्यान नहीं रहता, उसे तो बस ईश्वर ही संभालते हैं)

मन में तो आनंद रहे, तन बौरा सब अंग

ना काहू के संग है, सहजो न कोई संग.

( ईश्वर-भक्त को परम आनन्द प्राप्त हो जाता है फिर न कोई साथ रहता और न किसी का साथ उसे अनिवार्य लगता है)

इन वचनों का सार यही कि जो व्यक्ति ईश्वर प्रेम में लीन है वह संसार में रहते हुए भी संसार से अलग हो जाता. लोग उसे पागल समझ सकते हैं, पर उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अब उसे किसी के संग की आवश्यकता ही नहीं रह जाती.

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Saturday 22 January 2022

 

सहजो वाणी

हमारे देश में मीरा बाई से लगभग सभी लोग परिचित हैं. उनके कुछ भजनों को तो शिक्षा संस्थानों ने पाठ्य क्रम में भी स्थान दिया है. परन्तु राजपुताना की और संत थीं जिनके विषय बहुत कम लोग जानते हैं. अधिकाँश ने उनका नाम भी नहीं सुना होगा. वह हैं सहजो बाई. वह संत चरण दास जी की शिष्या थीं. उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे लगभग कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है, परन्तु सहजो बाई का एक-एक वचन अनमोल मोतियों के समान है.

उनके कुछ वचन (जो मैंने  कुछ  वर्ष पहले आचार्य रजनीश की पुस्तक में पढ़े थे) यहाँ सांझा कर रहा हूँ.

सहजो सुपने एक पल, बीते बरस पच्चास

आँख खुले सब झूठ है, ऐसे ही घटबास.

(एक पल के सपने में हम कितना समय बिता देते हैं, पर आँख खुलते ही अहसास होता है कि सब काल्पनिक था. संसार भी एक सपना जो हम खुली आँख से देख रहे हैं) 

जगत तरैया भोर की, सहजो ठहरत नाहिं

जैसे मोती ओस की, पानी अंजुली माहीं.

(संसार में सब कुछ क्षणिक है, जैसे भोर का तारा जो अभी दिखता और अभी लुप्त हो जाता या अंजुली में पानी या फूल पर चमकती ओस की बूंद,)

धुआं को सो गढ़ बन्यो, मन में राज संजोये

झाई माई सहजिया कबहू सांच न होये

(धूआँ के बादल उठते है तो उसमें कई प्रकार की आकृतियाँ हम देख लेते हैं जो वास्तव में हमारे मन ने बनाई होती है. संसार भी इसी तरह मन का खेल है)

निरगुन सरगुन एक प्रभु, देख्यो समझ विचार

सद्गुरु ने आँखे दयीं, निसचै कियो निहार.

(प्रभु सर्व गुण भी हैं और सर्व गुणों से परे भी हैं, सद्गुरु ने मार्ग दर्शन किया तो ही समझ विचार कर निश्चयपूर्वक यह सत्य जाना)

सहजो हरी बहुरंग है, वही प्रगट वही गूप

जल पाल में भेद नहीं, ज्यों सूरज अरु धूप

(ईश्वर के अनेक रूप हैं, इन भेदों में उलझने के बजाय इस सत्य को समझो)

चरण दास गुरु की दया, गयो सकल संदेह

छूटे वाद-विवाद सब,  भयी  सहज गति तेह.

(सद्गुरु की अनुकंपा से संदेह मिटेंगे. जब तक संदेह हैं तब तक वाद-विवाद है और जीवन में असहजता है)

सहजो बाई इस बात की ओर संकेत कर रही हैं कि हम उन्हीं आँखों से सत्य या ईश्वर को जानने का प्रयास करते हैं जिन आँखों से हम संसार को देखते और परखते हैं. इसलिए वाद-विवाद हैं और भेद हैं.

जब सद्गुरु ने मार्गदर्शन किया तो समझ आया कि सब भेद और विवाद हमारे ही बनाये हैं. जिस सत्य को उन्होंने गुरु की कृपा से निश्चय पूर्वक समझा वह कोई अंध विश्वास नहीं था.

इन अनमोल वचनों पर विवेचना करने लगें तो कई पन्ने लिखे जा सकते है. परन्तु विवेचना से बेहतर है इन्हें आत्मसात करना.

 

Wednesday 19 January 2022

 दोषी

शिशिर बीस दिन बाद विदेश से लौटा था. इस बीच गरिमा से उसकी कई बार बात भी हुई थी, परन्तु उसके लौटने के बाद ही गरिमा ने उसे बताया कि सुधांशु को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है. उस पर किसी से पाँच लाख की रिश्वत लेने का आरोप लगा है.

“क्या बकवास है!” उसने अनायास ही कहा.

“क्यों तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा?” गरिमा ने कहा. “पर तुम ही बताओ, आजकल कौन अधिकारी है जो भ्रष्ट नहीं है?”

“गरिमा तुम सुधांशु को अब तक समझ नहीं पाई.”

“इस बार तुम भूल कर रहे हो. हो सकता है कि शुरू के दिनों में में भ्रष्ट न हो. पर समय के साथ सब बदल जाते हैं, वह भी बदल गया है. बस तुम्हें उसमें आया परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ा. अच्छा यह बताओ पिछले महीने वह हमारी पार्टी में क्यों आया? पहले तो उसने तुम्हारा निमंत्रण कभी स्वीकार नहीं किया. कारण तुम भी जानते हो.  फिर क्यों आया? तुम तो नहीं बदले. अभी भी अपने ढंग से ही पैसे कमा रहे हो और यह बात वह भी जानता है. फिर भी वो आया, क्यों?”

शिशिर को इस बात का अहसास था कि गरिमा सुधांशु को पसंद न करती थी. वास्तव में वह उसे नापसंद भी न करती थी. बस, उनमें कोई मित्रतापूर्ण संबंध बना ही नहीं था.

उसने पिछली बार सुधांशु को निमंत्रण भेजा था तो उसे पूरा विश्वास था की वह नहीं आयेगा. उसका न आना शिशिर को कभी गलत न लगा था और न ही कभी उसने इसका बुरा माना था. लेकिन उस दिन सुधांशु ने उसे आश्चर्यचकित कर दिया था. वह पार्टी में आ गया था.

“अरे, सुधांशु तुम! मुझे विश्वास नहीं हो रहा. मैं कितना प्रसन्न हूँ तुम अनुमान नहीं लगा सकते.”

सुधांशु बस मुस्करा दिया. उसकी मुस्कराहट शिशिर को भीतर तक तरंगित कर गई. बहुत वर्ष पहले जब वह दोनों निकर में घूमा करते थे, शिशिर ने एक दिन कहा था, “तुम्हारी मुस्कराहट मुझे ऐसी लगती है.....जैसे नीले आकाश में धीरे-धीरे तैरता सफेद बादल का टुकड़ा....या चाँदनी रात में पानी पर थिरकता चाँद....या....” सुधांशु ने बीच में ही टोक दिया था, “तुम तो कोई कविता कह रहे हो, कहाँ से रट कर आये हो?”

आज भी उसकी मुस्कराहट देखकर वह कुछ कहना चाह रहा था. परन्तु पार्टी अब पूरे शबाब पर थी और उसके पास इतना समय नहीं था.

“किस उपलक्ष्य में यह पार्टी हो रही है?”

“तो तुमने मेरा निमंत्रण पूरा पढ़ा भी नहीं? मेरे पचासवें प्लाज़ा का उद्घाटन हुआ है.” 

“सब नियमों को ताक पर रख कर?”

“इस विषय पर हम बहुत चर्चा कर चुके हैं और अगर तुम चाहो तो मैं और भी चर्चा करने को तैयार हूँ.”

“किसी ने कहा था, ‘यू कैन नेवर विन एन आर्गुमेंट,’ शायद डेल कार्नेगी ने?” सुधांशु ने छेड़ते हुए कहा, यह वाक्य शिशिर को बहुत प्रिय था.

“चलो, अपने मेहमानों से तुम्हारा परिचय कराता हूँ.”

“मुझ पर इतनी कृपा करो, मेरा परिचय किसी से न कराओ.”

“जैसी तुम्हारी इच्छा,” शिशिर ने कहा और अपने मेहमानों में व्यस्त हो गया.

गरिमा के कटाक्ष ने शिशिर के मन में संशय की एक हल्की से लकीर खींच दी.

“क्या सच में सुधांशु ने रिश्वत ली होगी? क्या वह भी भ्रष्ट हो गया है? क्या अंतत: वह भी बदल गया है?” अगले ही पल उसने संशय के इस बीज को मन से उखाड़ कर बाहर फेंक दिया. उसने अपने सेक्रेटरी नीरज को फोन किया. 

“ज़रा पता लगाओ, कौन अधिकारी सुधांशु का केस देख रहा है.”

“क्या ऐसा करना उचित होगा?”

“क्यों?”

“अपने मित्र को आप से बेहतर कौन समझता है.”

“चिंता न करो, मैं कोई उल्टा-सीधा काम नहीं करूंगा.”

अचानक शिशिर को लगा की वह बहुत थक गया है. वह लेट तो गया पर नींद कोसों दूर थी. बस मन पर एक के बाद एक चित्र उभर रहे थे. पहली बार उसका विश्वास डगमगाने लगा था. उसने गरिमा को देखा वह गहरी नींद में थी. पर वह स्वयं तो कहीं ओर था, बहुत पीछे.

मोहल्ले के उस छोटे से स्कूल में. सुधांशु और शिशिर दो-एक वर्ष से उसी स्कूल में थे, एक ही कक्षा में. शिशिर क्लास का सबसे नटखट लड़का था और सुधांशु सबसे शांत. दोनों एक दूसरे को जानते थे पर उनकी आपस में कभी बात न हुई थी. मित्रता होने के बाद शिशिर ने एक बार उसे बताया कि उसकी मुस्कराहट उसे बहुत आकर्षित करती थी. वह उससे मित्रता करना चाहता था पर कक्षा का सबसे निडर लड़का होते हुए भी उससे बात करने में झिझकता रहा था. इसी तरह साल-सवा साल बीत गया था.

एक दिन जब वह सातवीं कक्षा में थे शिशिर देर से स्कूल आया था. सुधांशु बेंच पर अकेला बैठा था. शिशिर उसके साथ बैठ गया. अध्यापक जी १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के विषय में कुछ बता रहे थे.

शिशिर ने धीमे से कहा, “कभी-कभी मन में आता है कि किसी तरह इंग्लैंड चला जाऊं और वहाँ जाकर उन गोरों के साथ वही करूं जो उन्होंने हम भारतवासियों के साथ किया था.”

उसकी बात सुन कर सुधांशु उसे एकटक देखने लगा.

“ऐसे क्यों देख रहे हो?”

“क्योंकि ऐसा ही विचार मेरे मन में भी कई बार आया है.” सुधांशु से उसने पहली बार बात की थी. दोनों एक साथ मुस्करा दिए और दोनों में जैसे एक संबंध बन गया था.

उस दिन के बाद जब भी उन्हें समय मिलता दोनों यही सोच-विचार करते कि किस प्रकार वह गोरों से उनके अत्याचारों का बदला ले सकते थे. कई योजनायें बनाते-कैसे इंग्लैंड जायेंगे, वहाँ की स्थिति समझेंगे, फिर कुछ ऐसा करेंगे कि गोरों को अपनी गलतियों का अहसास हो, उनके अत्याचारों का बदला लेंगे. ऐसे कितने ही सपने उन्होंने देखे, कितने ही रेत के महल बनाये, कितने ही नाटक मन ही मन रचे. हर योजना में वह अकेले ही सैंकड़ों गोरों को मसल कर रख देते थे.

कब वह युवावस्था में पहुँच गये उन्हें पता ही न चला. बचपन के सारे सपने, सारी योजनायें कहीं पीछे छुट गईं. अचानक भविष्य के प्रश्न सामने आ खड़े हुए.

शिशिर के पिता एक अच्छे-खासे व्यापारी थे. उनकी इच्छा थी कि कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर, शिशिर उनके साथ काम करे. सुधांशु के पिता चाहते थे कि वह सिविल सर्विस की परीक्षा दे.

और एक दिन शिशिर अपने पिता के साथ दूकान पर बैठ गया. लेकिन शीघ्र ही उसे महसूस हुआ कि व्यापार की जो परिपाटी उसके पिता ने अपना रखी थी वह पुरानी हो चुकी थी. अब सब कुछ नए ढंग से करना होगा. उसने पिता से बात की तो उन्होंने कोई उलझन खड़ी न की. उन्होंने व्यापार की सारी बागडोर सहर्ष उसके हाथ में सौंप दी.

वह दिन और आज का दिन, शिशिर ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. उन्नति के पथ में आती हर बाधा को उसने, कभी बुद्धि के बल पर और कभी धन के बल पर, रास्ते सफलता से हटा दिया. अपनी पैतृक दूकान को बंद कर एक विशाल, भव्य प्लाज़ा खोला. फिर, एक के बाद एक, देश के कई नगरों में ऐसे भव्य प्लाज़ा खोले.

सुधांशु पहले ही प्रयास में सिविल सर्विस की परीक्षा में सफल हो गया. अपनी सर्विस का वह सबसे योग्य अधिकारी था और अपनी समझ और कार्यकुशलता के लिए प्रसिद्ध था.

अब मिल बैठ कर बातें करने का समय उन्हें कम ही मिलता था. परन्तु जब भी संभव होता था, मिलने के लिए वह कुछ समय निकाल ही लेते थे. सुधांशु ने उसे कई बार समझाने का प्रयास किया था.

“सुधांशु, मैं तुम्हारे बारे में सब जानता हूँ. पर तुम जैसे प्राणी अब विरले ही हैं. हर दिन मेरा सरकारी लोगों से वास्ता पड़ता है, किसी भी विभाग में जाओ, किसी भी कार्यालय जाओ, सेंटर का हो, स्टेट का हो, सब जगह एक जैसे लोग हैं. सब मुँह खोल कर बैठे होते हैं. किसी को नकद चाहिए तो किसी को कोई उपहार. एक आयकर अधिकारी ने लड़कियों का मांग रखी थी. मैं भी भौंचक्का हो गया था. हर कोई अपने मूल्य का लेबल लगा कर बैठा होता है, मंत्री भी .....”

“और तुम हर मूल्य चुकाने करने को तैयार रहते हो.....”

“मैंने कभी अपने आत्म-सम्मान के साथ समझौता नहीं किया. बुद्धि बल और पैसे के बल पर अपनी गाड़ी चलाता हूँ. मैं बिज़नसमैन हूँ और मेरे पास इतना समय नहीं है कि मैं हर अधिकारी के सवाल का जवाब देता रहूँ, हर फाइल के पीछे भागता रहूँ, हर मामले को नियमानुसार सुलझाने की कोशिश में लगा रहूँ. मेरे लिए समय की बहुत कीमत है. अधिकारियों के पास समय ही समय है, लेकिन मेरे पास नहीं हैं. मैं दफ्तरों के चक्कर नहीं लगा सकता.

“एक बार मंत्रालय में जेएस के ऑफिस से फोन आया कि साहब मिलना चाहते हैं, अगले दिन तीन बजे. मैं मुंबई में था. मैंने बताया तो वह बोले कि मीटिंग का समय नहीं बदला जा सकता. सुबह की फ्लाइट से दिल्ली पहुँचा. तीन बजे से पहले ही पहुँच गया था और पाँच बजे तक जेएस के ऑफिस में, बाहर उसके पीए के पास, बैठा रहा. पाँच बजे के बाद ही  भेंट हुई.

मिलते ही पूछने लगे, किस लिए आये हैं? क्या काम है? मैंने कहा कि आप ने बुलाया था. आप के ऑफिस से फोन आया था. वह दायें-बायें देखने लगे, फिर उन्होंने निचले अधिकारी को बुलाया. उनसे कुछ बात कर, निचले अधिकारी ने मुझे एक लैटर थमा दिया. कहा तुरंत इसका जवाब भेज दें, तभी आपके मामले पर आगे कोई कार्रवाई हो सकती है. मैंने कहा, यह आप मुझे फैक्स भी कर सकते थे, मैं मुंबई में अपना काम छोड़ कर आया हूँ. जेएस ने मुझे घूर कर देखा और कोई फाइल खोल कर बैठ गये. मैं कुछ देर खड़ा और फिर लौट आया.”

सुधांशु ने बचाव करने की कोशिश की, “अरे, हर जगह अच्छे-बुरे लोग होते हैं....”

जब भी वह दोनों मिलते इस प्रकार की चर्चा उनमें हो ही जाती और हर बार बिना किसी निष्कर्ष के समाप्त हो जाती.

राज नेताओं और अधिकारियों और मीडिया वालों को प्रसन्न रखने के लिए शिशिर किसी न किसी बहाने पार्टियों का आयोजन करता. वह सुधांशु को भी निमंत्रण भेजता. परन्तु संभव होने पर भी सुधांशु कभी नहीं आया था.

सुधांशु को उन लोगों के साथ खड़ा होना भी स्वीकार्य न था. “तुम ने सबको भ्रष्ट बना दिया है. इन्हें भ्रष्टाचार की लत लगा कर इन्हें अपाहिज बना दिया है तुमने.”

“गलत. भ्रष्ट वह सब पहले से ही थे. मैं तो बस उन्हें पैसे देकर उस स्थिति में ले आता हूँ कि उन्हें मेरे काम में बाधा डालने का कोई कारण न मिल जाए. मेरा तो यह मानना है कि किसी ईमानदार आदमी को भ्रष्ट बना देना मेरे लिए संभव नहीं है. जो भ्रष्ट होने को तैयार बैठा है उसे भ्रष्ट किया जा सकता है. तुम अपने आप को क्यों नहीं देखते? क्या मेरे जैसा कोई आदमी तुम्हें रिश्वत देकर अपना काम करवा सकता है?”

सुधांशु जानता था कि शिशिर गलत नहीं था. उसके आसपास ही कितने लोग थे जो भ्रष्टाचार के पथ पर चलने के उतावले हो रहे थे, कई तो इस बात से दुःखी थे कि उन्हें पर्याप्त अवसर न मिल रहे थे.

“तो क्या तुम चाहते हो कि मैं इन जैसे लोगों के साथ मेलजोल रखूँ?’

“अरे तुम मेरे लिए आया करो, इन दो कोड़ी के लोगों के लिए नहीं.”

परन्तु सुधांशु कभी आया नहीं और शिशिर ने कभी भी इस बात का बुरा न माना.

फोन की घंटी बजी. फोन सेक्रेटरी नीरज का था. उसने बताया की केस सीबीआई के पास था और राज खन्ना नाम का अधिकारी देख रहा था.

“मैं उससे मिलना चाहता हूँ. जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी.”

“मैं कोशिश करता हूँ.”

“मुझे लगता है सुधांशु जैसे लोग मेरे जैसे लोगों के कारण कष्ट झेलते हैं.’

“आप ऐसा क्यों सोचते हैं?”

“इस देश में मेरे जैसे लोगों का सम्मान होता है और सुधांशु जैसे लोग एक अड़चन हैं जिसे हर कोई किसी भी तरह रास्ते से हटा देना चाहता है.”

नीरज कुछ न बोला. शिशिर ने फोन रख दिया और फिर भूले-बिसरे चित्रों में खो गया.

“क्यों शिशिर, क्या आज के युग में भगत सिंह जैसे लोग जन्म नहीं लेते?”

“क्यों नहीं लेते होंगे? अवश्य लेते होंगे.’

“क्या हम भगत सिंह जैसे नहीं बन सकते?”

“बन सकते हैं, अवश्य बन सकते हैं. बस एक निश्चय करने की ज़रूरत है, एक विश्वास जगाने की ज़रूरत है. अच्छा, रुको, मैं अभी आया.”

कुछ पलों बाद शिशिर एक मोमबत्ती ले आया. सुधांशु कुछ समझ न पाया कि शिशिर क्या करना चाह रहा था.

शिशिर ने मोमबत्ती जलाई और बोला, “अब हम भगत सिंह की तरह शपथ लेंगे.”

“क्या?” सुधांशु कुछ समझ न पाया.

“हमने एक फिल्म देखी थी न, भगत सिंह जलती मोमबत्ती पर हाथ रख कर शपथ लेता है, हम भी आज शपथ लेंगे.” 

सुधांशु को यह सब विस्मयकारी लगा. पर शिशिर मोमबत्ती की लौ के ऊपर हाथ रख कह रहा था, “मैं शपथ लेता हूँ कि मरते दम तक तन-मन-धन से देश की देवा करूँगा.” सुधांशु ने भी शपथ ली.

एक दिन वर्षों बाद सुधांशु ने ही उस शपथ की याद दिलाई थी, “लगता है भूल गये हो?”

“कौन सी शपथ?” शिशिर को सच में कुछ याद नहीं था.

“वही जो हमने जलती मोमबत्ती पर हाथ रख कर ली थी, भगत सिंह जैसा बनने की.”

“अरे, याद आया. कितने भोले थे हम लोग, बिलकुल ना-समझ.”

“पर मैं तो नहीं भूला. उस शपथ को निभाने का हर पल प्रयास करता हूँ.”

फोन ने फिर से उसकी विचारधारा में अवरोध उत्पन्न किया. फोन नीरज का था,

“सर, आप राज खन्ना से परसों तीन बजे मिल सकते हैं.”

“ओके.”

“एक बात कहूँ, सर?”

“बोलो.” 

“मुझे पता लगा है कि यह खन्ना थोड़ा टेढ़ा व्यक्ति है. कहीं बात बिगड़ न जाए.”

“मैं समझ रहा हूँ कि तुम क्या कहना चाह रहे हो.”

“सर, क्यों न सीधे मंत्री से बात की जाए?”

“कितने में काम हो जाएगा?”

“आपको सुन कर आश्चर्य होगा. मुझे बताया गया है कि अगर सुधांशु जी दोषी हैं तो एक करोड़ में काम हो जायेगा. पर अगर वह निर्दोष हैं तो अधिक देना पड़ सकता है.”

“इसमें आश्चर्य की क्या बात है. ईमानदार आदमी को बचा कर किस का लाभ होगा. वह तो सबके लिए फिर से उलझनें पैदा करेगा. भ्रष्ट आदमी तो भविष्य में सबके काम आ सकता है.”

राज खन्ना ने मिलते ही कहा कि वह बहुत व्यस्त है और वह अधिक समय न दे पायेगा.

“मैं आपका अधिक समय न लूँगा. मैं सिर्फ इतना जानना चाहता हूँ कि सुधांशु का केस कितना गंभीर है.”

“उन्होंने पाँच लाख रुपये लिए हैं, एक ऐसे व्यक्ति से जिसका केस उनके पास है.”

“क्या किसी ने पैसे लेते देखा था?”

“यह सब जांच के विषय हैं, मैं आपको नहीं बता सकता.”

“मिस्टर खन्ना, सुधांशु निर्दोष है. इसलिए उसे बचाने के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ. मैं जानता हूँ कि ऊपर ऐसे कई लोग अवश्य हैं जो पैसे लेकर मेरा काम कर देंगे. पर मैं न आपको अपमानित करना चाहता हूँ, न सुधांशु को. मुझे पूरा विश्वास है कि वह किसी षड्यंत्र का शिकार हुआ है.”

राज खन्ना चुप रहा. उसने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न की.

“आप ने तो बीसियों भ्रष्ट अधिकारी देखे होंगे. मेरा भी हर दिन ऐसे लोगों से वास्ता पड़ता है. ऐसे लोग तो देखते ही पहचाने जा सकते हैं.”

“कैसे?”

“उनकी आँखों से, उनके हावभाव से और....और उनकी मुस्कराहट से.”

राज खन्ना ने उसे घूर कर देखा.

“हाँ, मैं जानता हूँ वह निर्दोष है. उसकी मुस्कराहट प्रमाण है.”

इस बार राज खन्ना उसकी बात सुन कर मुस्कराया.

“मिस्टर शिशिर. अब मुझे एक मीटिंग के लिए जाना है.”

“धन्यवाद, बस एक अंतिम बात, सुधांशु जैसे लोग सिस्टम में बस एक अवरोध  भर हैं, उनके लिए जो भ्रष्ट हैं और उन लोगों के लिए जो भ्रष्ट लोगों का पोषण करते हैं. यह बात वह जानता है, फिर भी इस देश के भविष्य के लिए बहुत आशावान है.”

इस भेंट से शिशिर आश्वस्त था क्योंकि उसे राज खन्ना की आँखों में भी कुछ वैसी चमक दिखाई दी थी जैसी उसने सुधांशु की आँखों में देखी थी. उसकी मुस्कराहट ने भी उसे कुछ आश्वस्त किया था.

सुधांशु रिहा हो गया. जांच के बाद पता चला था कि उसके कार्यालय के कुछ लोगों ने उसके विरुद्ध षड्यंत्र रचा था और नोटों से भरा ब्रीफकेस सुधांशु की अलमारी में रख दिया था.

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शिशिर अधीरता से सुधांशु की प्रतीक्षा कर रहा है. वह उससे मिलने को व्यग्र है. मिलते ही बोला, “इतने दिनों तक इतनी चर्चा करने के बाद जो बात मुझे समझ ना आई थी वह इन दिनों में समझ आ गई. जो कुछ तुम्हारे साथ हुआ उसके लिए मैं भी दोषी हूँ....या कहुँ तो मैं ही दोषी हूँ.”

सुधांशु ने कुछ नहीं कहा, बस मुस्करा दिया. शिशिर को उसकी मुस्कराहट ऐसी लगी जैसे हिम-पर्वत पर बिखरी सूर्य की मलिन किरणें या झील की सर्द लहरों पर हौले-