Monday 1 June 2015

माले मुफ्त दिले बेरहम

जिस समय उत्तराखंड एक भयानक त्रासदी से गुज़र रहा था उस समय राहत कार्यों में लगे अधिकारियों ने लगभग एक सौ करोड़ रुपये अपने पर ही खर्च कर दिए, ऐसी बात समाचार पत्रों में छपी है. जैसा कि अनुमान था मीडिया में इस बात को लेकर खूब चर्चा हो रही है.

आम आदमी को यह जानकारी न हो कि सरकार में किस भांति सरकारी पैसा खर्च होता है, समझा जा सकता है. पर मीडिया को ऐसे अपव्यय का आभास न हो, थोड़ा अटपटा लगता है. तहलका कांड के बाद भी मीडिया में ऐसे ही चर्चा हुई थी. तब भी ऐसा ही लगा था कि जैसे मीडिया को पहली बार आभास हुआ हो कि कुछ राजनेता भ्रष्ट हैं.

जो लोग सिस्टम के भीतर हैं और वह, जो सिस्टम को बाहर होते हुए भी, खुली आँखों से सब देखते रहे हैं वह जानते हैं कि इस देश में सरकारी पैसा कितनी बेरहमी से खर्च किया जाता है.

प्रशिक्षण के समय हम से कहा गया था कि जब आप को सरकारी पैसा खर्च करने का अधिकार मिलेगा तब आप इस बात का ख़ास ध्यान रखेंगे कि सरकारी पैसा खर्च करते समय वही विवेक और सूझबूझ दिखाएँ जो विवेक और सूझबूझ अपना पैसा खर्च करते समय दिखाते हैं. कारण सरकारी पैसा लोगों का पैसा होता है, लोग टैक्स देते हैं तो सरकारी खज़ाना भरता है, और इस देश में करोड़ों लोग हैं जो बहुत गरीब हैं पर हर वस्तु पर टैक्स देते हैं. यह पाठ हर अधिकारी को पढ़ाया जाता है.

अपने सारे कार्यकाल में मुझे गिने-चुने ही अधिकारी मिले जो विवेक और समझबूझ से सरकारी पैसा खर्च करते थे. अन्यों को देख कर तो लगता था वह सिर्फ एक ही मंत्र जानते हैं, ‘माले मुफ्त दिले बेरहम’. अनेकों उदाहरण दे सकता हूँ, पर सिर्फ दो छोटे-छोटे उदाहरण ही दूंगा.

जिस इमारत में एक समय हमारा कार्यालय था उसे गिरा कर एक नया भवन बनाने का निर्णय हो चुका था. किस दिन हम उस इमारत को खाली कर नई जगह जायेंगे, बस इतना तय होना था. ऐसे में वहां किसी भी प्रकार का कोई निर्माण कार्य करना सरकारी पैसे को नष्ट करने सामान था. फिर भी नया कांफ्रेंस हाल बना, संयुक्त सचिव के कार्यालय में नए पर्दे, फर्नीचर लगाये गये. किसी ने नहीं पूछा कि इस खर्च का औचित्य क्या है. कुछ लाख रूपए ही खर्च हुए होंगे इन कार्यों पर, लेकिन जिस देश की आधी से अधिक आबादी सिर्फ दो वक्त की रोटी के लिए जीवन-भर झूझती रहती है वहां इतनी राशि का अपव्यय भी क्या एक अपराध नहीं माना जाना चाहिये?

हमारे एक अधिकारी थे. उनका परिवार बेंगलुरु में था. अतः महीने में एक बार तो उन्हें बेंगलुरु जाना ही होता था. वह जाते भी थे, सरकारी खर्चे पर. कई बार तो एक माह में वह दो या तीन बार भी गये होंगे. सबसे दिलचस्प बात यह थी कि उनका हर दौरा शुक्रवार को शुरू होता था और अगर उन्हें कहीं ओर भी जाना होता तो भी वह बेंगलुरु के रास्ते ही आते-जाते थे.

बीसियों उदाहरण दिए जा सकते हैं. चौंकाने वाली बात यह भी है कि लेखा-परीक्षक (ऑडिटर्स) भी सुविधा अनुसार काम करते हैं. उन्हें इस बात की अधिक चिंता होती है कि उनकी क्या और कैसी सेवा की जायेगी, उपहार में क्या मिलेगा, घूमने के लिये क्या गाड़ियों मिलेंगी. कुछ लेखा-परीक्षक तो आते ही एक सूची पकड़ा देते हैं कि उन्हें क्या-क्या चाहिये.

मीडिया की भी देखभाल की जाती है. किसी सरकारी कार्यक्रम में अगर मीडिया वालों को बुलाया जाता है तो उनका भी खूब ध्यान रखा जाता है, उपहार दिए जाते हैं. यह बात सारा मीडिया जानता है.

दोषी अधिकारियों के विरुद्ध कार्यवाही तो होनी ही चाहिये. परन्तु बेरहमी से सरकारी पैसा खर्च करने की समस्या तब तक हमारे साथ रहेगी जब तक सब यह तय न कर लें कि सरकारी पैसे को खर्च करते समय वह एक ‘ट्रस्टी’ की भांति व्यवहार करेंगे. क्या निकट भविष्य में हमारी सोच में कोई बड़ा परिवर्तन आयेगा? कहना कठिन है.  

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