Saturday 13 February 2016

कास्ती माई
कास्ती माई अकेली थी, बिलकुल अकेली. न उसका पति था, न बहु-बेटे, न कोई दूसरा सगा-संबंधी.
उसे आता-जाता देख बच्चे चिल्लाने लगते, ‘कास्ती माई, कास्ती माई’.
वह बच्चों पर चिल्लाती, उन्हें खरी खोटी सुनाती और कभी-कभी अचानक किसी बच्चे पर झपट पड़ती. बच्चे इधर-उधर भाग खड़े होते. कास्ती माई बड़बड़ाती हुई अपने रास्ते चल देती. मोहल्ले के बच्चों के लिए यह एक खेल था जो वो दिन में एक-आध बार खेल ही लेते थे.
सूखा हुआ शरीर, सफ़ेद बिखरे हुए बाल, रूखी बोली, मुझे तो उसे देख कर ही डर लगता था. शायद इसी कारण मैंने इस खेल में कभी भाग न लिया था. मुझे तो उस पर तरस भी आता था. न जाने क्यों मुझे लगता था कि वह एक बहुत ही दुःखी औरत थी. मन ही मन मैं चाहता था कि कोई उसे सताया न करे.
साहस कर, एक दिन मैंने एक लड़के से पूछा था, ‘तुम सब कास्ती माई को इतना क्यों तंग करते हो?’
‘क्या तुम जानते नहीं कि वह कौन है?’ उसने मुझे घूरते हुए कहा.
‘नहीं, मैं नहीं जानता कि वह कौन है,’ मैंने आश्चर्य से कहा.
‘तभी तुम ऐसी बात कह रहे हो,’ उसने अकड़ते हुए कहा.
‘कौन है कास्ती माई?’ मैंने उत्सुकता से पूछा.
‘डायन है,’ उसने मेरे कान में फुसफुसा कर कहा.
मैं सहम गया. मेरे दिल की धड़कन तेज़ हो गई. मुझे उसकी बात पर विश्वास न हो रहा था.
उसने धीमी, रहस्यमयी आवाज़ में कहा, ‘जानते हो रात भर वह कहाँ रहती है?’
‘कहाँ?’ मेरी आवाज़ भी दबी सी थी.
‘जोगी दरवाज़े.’
‘जोगी दरवाज़ा? वह क्या है?’
‘तुम तो निरे बुद्धू हो, जोगी दरवाज़े ही तो सब को ले जाते हैं. दिन भर चिताएं जलती हैं और रात में वहां भूत-प्रेत रहते हैं.’
‘तुम्हें कैसे पता?’ मैंने अनचाहे ही पूछा.
‘मैं सब जानता हूँ,’ उसने अकड़ से कहा.
उस रात मैंने बातों-बातों में ही माँ से पूछा, ‘कास्ती माई डायन है क्या?’
‘क्या अंटशंट बोलते रहते हो,’ माँ ने झिड़कते हुए कहा.
‘नहीं, मैं सच कह रहा हूँ, रात भर वह जोगी दरवाज़े रहती है.’
‘जोगी दरवाज़ा कौन सी जगह है, तुम्हें पता भी क्या?’
‘जहां भूत-प्रेत रहते हैं,’ मैंने जानबूझ कर आधी बात ही कही.
‘अरे, भूत-प्रेत कुछ नहीं होते, सब मन का डर है,’ माँ ने समझाया.
‘फिर कौन है वह?’
‘बड़ी दुःखी औरत है, उसका नाम है सावित्री.........’
‘तुम कुछ नहीं जानती, उसका नाम है कास्ती मई. सब इसी नाम से बुलाते हैं. तुम नहीं जानती. कैसे जानोगी? कभी घर से बाहर तो निकलती नहीं. सारा दिन घर के काम-काज में व्यस्त रहती हो.’  
‘उसका नाम सावित्री ही है. वह हर इकादाशी का व्रत रखती है. उस दिन कोई उसे छू भी ले तो वह अपने को अपवित्र समझने लगती है और झट से घर जाकर फिर से नहाती है. मैंने सुना है कि कभी-कभी तो इकादाशी के दिन चार-पाँच बार नहाती है. न जाने कब लोग उसे इकादाशी माई बुलाने लगे जो बिगड़ते-बिगड़ते कास्ती माई हो गया.’
मैं आश्चर्यचकित सा सारी बात सुन रहा था.
‘मैं जानती हूँ यहाँ के बच्चे उसे बहुत तंग करते हैं. पर तुम ऐसा न करना, कभी न करना.’
माँ की बात मानने को मन न हो रहा था. मुझे लगता था कि वह एक डायन ही थी. इसी कारण मेरे मन का डर अपनी जगह स्थित ही रहा. मैं जब भी उसे किसी रास्ते पर आता-जाता देखता तो झट से रास्ता बदल लेता था. चाहे कितना लंबा रास्ता ही क्यों न तय करना पड़े, मैं पलट कर उस रास्ते पर न आता था.
एक दिन दुपहर में माँ ने मुझे बाज़ार से दही लाने को भेजा. दही के बिना दादाजी को भोजन अच्छा न लगता था. दही लाने का काम बड़े भाई का ही था. उस दिन शायद वह थोड़ा बीमार था. दादाजी को अगर खाने में दही न दिखा तो वह नाराज़ होंगे, यही सोच माँ ने मुझे भेजा. तीन-चार बार समझा कर कहा कि दही परमा हलवाई की दुकान से लाना.
‘परमा से कहना दही दादाजी के लिए चाहिये.’
‘क्यों, ऐसा क्यों कहूँ?’
‘वह जानता है कि तुम्हारे दादाजी को ताज़ा दही ही अच्छा लगता है.’
‘वह दादाजी को जानता है, कैसे?’
‘हाँ, अच्छे से जानता है.’
‘पर वह मुझे तो नहीं जानता.’
‘वह तुम्हें भी जानता है. अब देर मत करो और जल्दी से जाओ. दादाजी आते ही होंगे.’
‘तुम कैसे जानती हो कि वह मुझे जानता है.’
‘जाओ, अभी.’ माँ ने गुस्से से आँखें दिखाते हुए कहा. पर उसके होंठों पर हंसी की एक पतली सी लकीर भी थी.
दही हाथ में लिए मैंने जैसे ही उस गली में प्रवेश किया जिस गली में हमारा घर था वैसे ही मैंने सामने से कास्ती माई को आते हुए देखा. सदा की भांति अपने में ही खोयी, वह कुछ बड़बड़ा रही थी. उसके सफ़ेद बाल कुछ ज़्यादा ही बिखरे हुए थे. आँखें भी कुछ अधिक डरावनी और धसीं हुईं लग रही थीं.
मैं एक पल को ठिठक कर खड़ा हो गया. समझ ही न आया कि मुझे क्या करना चाहिये.
मैं धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा. फिर रुका और सोचा कि पलट कर दूसरी गली से अपने घर जाऊं.
तभी अचानक एक कुत्तिया मुझ पर आ झपटी.
कुछ दिन पहले ही उस कुत्तिया ने बच्चों को जनम दिया था और बड़ी सावधानी के साथ गली में आने-जाने वाले सभी प्राणियों से अपने बच्चों की रक्षा करती थी. शरारती बच्चों पर तो वह देखते ही झपट पड़ती थी.
मैं ऐसे भागा जैसे जीवन में कभी न भागा था. भूल गया कि सामने से कास्ती माई आ रही थी. भूल गया कि हाथ में दही का ढोना था. भूल गया कि दादाजी घर आने वाले थे और दही के बिना उन्हें खाना अच्छा न लगेगा.
बस, जान बचा कर भागा. कास्ती माई कहाँ गई पता न चला, दही का ढोना कहाँ गया पता न चला. पता रहा तो उस कुत्तिया का जो बस एक कदम ही पीछे थी.
तभी अचानक ठोकर लगी और मैं गिर पड़ा. डर और पीड़ा से सांस रुक सी गयी. आँखों के सामने अन्धेरा-सा  छा गया.
आँखें खुली तो अपने को कास्ती माई की गोद में पाया.
वह मुस्कुरा रही थी. उसकी आँखों से प्यार की वर्षा हो रही थी. उसके हाथ रुई के समान नर्म थे.
वह बहुत धीमे से पर बहुत प्यार से बुदबुदा रही थी, ‘अरे कुछ नहीं हुआ, सब ठीक है.’
मैंने अपने आप को सँभाला और धीरे से उसकी गोद से उठ खड़ा हुआ.
‘तुम सब बच्चे मुझे डायन समझते हो न?’ उसने बहुत धीमी आवाज़ में पूछा.
‘नहीं.’ अनचाहे ही मैंने झूठ बोला.
‘सच?’ वह हौले से मुस्कुरा दी. मेरी आँखें झुक गईं.
आज इतने वर्षों के बाद भी उसके बारे में सोचता हूँ तो प्यार से भरी उसकी आँखें सामने आ जाती हैं, उसके कोमल गुदगुदाते हाथ मेरा चेहरा सहलाने लगते हैं.

© आइ बी अरोड़ा 

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