Sunday 24 March 2019


नादिमर्ग नरसंहार
कश्मीर के एक गाँव, छतिसिंहपोरा, में 20 मार्च 2000 के दिन 35 निर्दोष सिखों की आतंकवादियों ने निर्मम हत्या कर दी थी. इस घटना की ठीक तीन वर्ष बाद 23 मार्च 2003 के दिन फिर एक नरसंहार हुआ. उस दिन पुलवामा में स्थित नादिमर्ग गाँव के 24 कश्मीरी हिन्दुओं की जिहादियों ने हत्या की.
जिन लोगों की जिहादियों ने बेरहमी से मार डाला था, उन में एक बच्चा 2 वर्ष का था और दूसरा 3 वर्ष का. मृतकों में ग्यारह महिलायें थीं. इन में से एक 23 वर्षीय लड़की भी थी, जो चल नहीं सकती थी. हत्यारे उसे खींच कर बाहर लाये थे और उसकी हत्या कर दी थी. पुरुषों में एक अस्सी साल के वृद्ध भी थे.
पर इस बर्बर कांड को लेकर हमारे मीडिया और बुद्दिजीवियों ने शायद ही अपने आंसू बहाए हों. जितना कड़ा “संघर्ष” हमारे मानवाधिकार वालों ने सोहराबुद्दीन या इशरत जहान को लेकर किया उससे हम सब परिचित हैं. पर कश्मीर में हुईं बर्बर हत्याओं के लेकर उनका रवैया, उनकी नियत और उद्देश्य पर प्रश्नचिंह लगाता है.
मीडिया और बुद्दिजीवियों और मानवाधिकारों के ध्वजवाहकों का अपना एक एजेंडा हो सकता है. उनकी मजबूरी है उन सब को उन्हीं लोगों और संस्थाओं के लिए काम करना पड़ता है जो उन्हें पैसा देते हैं.
पर देश के अलग-अलग भागों में रहने वाले आम लोगों का इस तरह तटस्थ रहना आश्चर्यजनक ही नहीं, समझ के परे है. शायद हम इस भुलावे में हैं कि यह सब कहीं और, किन्हीं और लोगों के साथ हुआ और हम सब अपनी-अपनी जगह सुरक्षित हैं.
हमारा भुलावा ही इन आतंकवादियों और जिहादियों की सबसे बड़ी ताकत है. सच्चाई तो यह कि हमारे कई शक्तिशाली राजनेता भी इन आतंकवादियों और जिहादियों को इन हत्याकांडों के लिए दोषी नहीं मानते. वह तो सेना और पुलिस को अधिक उत्तरदायी ठहराते हैं. ऐसे में आम आदमी का सजग रहना अति-आवश्यक.
उन 24 अभागों के लिए आंसू न भी बहायें, अपनी सुरक्षा को तो अवश्य सोचें.   

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