हम भूल गये कुर्बानी
आज कुपवारा में
आतंकवादियों से लड़ते हुए सेना के दो जवान शहीद हो गये.
किसी मीडिया चैनल ने
इन शहीदों का नाम लेना भी आवश्यक न समझा. जे ऍन यू के पीड़ित छात्रों के अधिकारों को लेकर उत्तेजित राजनेताओं के पास भी इतना समय न था कि उन शहीदों के लिए दो झूठे आंसू
ही बहा देते. पर नहीं, किसी के पास इतना समय न था, न मीडिया के पास, न राजनेताओं के
पास.
जिस देश में चर्चा
का विषय अफजल गुरु और उसकी "शहादत" (जे ऍन यू के छात्रों के दृष्टी में वो शहीद हुआ था) के विवाद से जुड़े जे ऍन
यू के छात्रों के साथ हो रहा व्यवहार/दुर्व्यवहार हो, वहां उन शहीदों की कैसी पात्रता कि
वह किसी चर्चा का विषय बने.
इसी देश के किसी
राजनेता ने कभी कहा था कि सेनिकों का तो काम ही होता है देश के लिए मर जाना. बात
कही तो एक नेता ने थी पर आज लगता है कि यह हम सब की सोच को ही दर्शाता है. हम लोग ऐसे
मीडिया का बहिष्कार नहीं करते जिसके लिए सिर्फ टी आर पी ही सब कुछ है. हम ऐसे
राजनेताओं को इतिहास के कूड़ेदान में नहीं फैंक देते जिनके लिए हर स्थिति में सिर्फ
वोट की राजनीति ही मायने रखती है.
दोष न मीडिया का है,
न राजनेताओं का. दोष हम सब का है. हमें न ऐसे मीडिया पर गुस्सा आता है न ऐसे
राजनेताओं पर. हमारे ही कारण दोनों अपना कारोबार इतनी सफलता से चला पातें हैं.
एक पुरानी घटना याद
आ रही. जॉर्ज फेर्नान्डज़ रक्षा मंत्री थे और एक आयोजन में उन्होंने सेना के एक अफसर
का अनुभव बताया था कि कैसे सियाचिन से लौटते समय उसे रेलवे का टिकट न मिल रहा था.
जब उसने रेल अधिकारी से कहा कि वह सियाचिन से आ रहा और उसे घर जाना है तो रेल
अधिकारी ने कहा था कि उससे क्या होता है. टिकट चाहिये तो ‘पैसे’ देने होंगे. रक्षा
मंत्री की बात सुन लोग हंस पड़े जैसे कि उन्होंने कोई चुटकुला सुनाया था.
जॉर्ज फेर्नान्डज़
ने थोड़ा ऊंची आवाज़ में कहा था कि हमें इस बात हंसी नहीं, गुस्सा आना चाहिये. जब तक
लोगों को ऐसी बातों पर गुस्सा नहीं आयेगा सिस्टम बदलेगा नहीं.
कुछ लोग कह रहें हैं
कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है. गलत कहते हैं लोग. जितनी सहिष्णुता हम लोगों में है वैसी सहिष्णुता किसी भी स्वाभिमानी देश के लोगों में न मिलेगी.
हम सब कुछ सह लेते
हैं, ऐसे नेता भी, ऐसा मीडिया भी.
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