जलियांवाला बाग़ से
जे एन यू तक
जीवन में पहली बार
जलियांवाला बाग़ जाने का अवसर मिला. हम लोग अमृतसर गये थे, हरमंदिर साहिब के दर्शन
करने. सुना था कि जलियांवाला बाग़ बगल में ही है. हरमंदिर साहिब जाने के बाद हम वहां
भी गये.
वहां वह संकरी गली
देखी जहां से जनरल डायर की बख्तरबंद गाड़ियां भीतर न जा सकीं थीं, अगर बख्तरबंद
गाड़ियां जा पातीं तो डायर बाग़ में इकट्ठे लोगों पर मशीन गन से गोलियां चलवाता. वह
कुआं देखा जहां से १२० लोगों के शव निकाले गये थे. दीवारों पर गोलियों के निशान
देखे. एक सिक्का देखा जिस में गोली लगने से छेद ही गया था.
म्यूजियम में लगाईं
वह पेंटिंग देखी जिसमें 13 अप्रैल १९१९ के दिन घटी घटना दर्शाई गई है और उस भयानक त्रासदी
की कल्पना करने का प्रयास किया.
चारों तरफ से बंद
मैदान में १२००० से १५००० लोग शान्तिपूर्वक इकट्ठे थे, वह किसी जे एन यू या
जादवपुर से सरकारी खर्चे पर मुफ्त शिक्षा पा कर न आये थे. वह सीधे-साधे लोग थे, उनमें
किसान थे, छोटे-मोटे व्यापारी थे, मजदूर थे, हरमंदिर साहिब के दर्शन करने आये
श्रदालु थे. वहां बच्चे भी थे, महिलायें भी थीं, बूढ़े भी थे. कई लोग तो शायद बस उत्सुकतावश ही आये होंगे.
पर डायर के लिए यह
सब कोई मायने नहीं रखता था. उन लोगों ने अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज़ उठाने का साहस
किया था, इस कारण सज़ा तो उन्हें देनी ही थी, और वह उसने दी. सौलह सौ से अधिक
गोलिया उसके जवानों ने उन निहत्थे लोगों पर दाग दीं. गोलियों के निशानों से साफ़
दिखता है कि मैदान में फंसे लोगों को जान से मारने के इरादे से ही गोलियां
चार-पाँच फुट की उंचाई तक मारी गईं थीं. कुछ लोगों ने दीवारों पर चढ़ने का प्रयास
किया था, पर आग उगलती बंदूकों के आगे हार गये थे. बाग़ के बायीं ओर जो कुआँ था कुछ
लोग उसमें कूद गये थे और जान गवां बैठे थे.
उस दृश्य की कल्पना
करके भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. कितने लोग मारे गये इस तथ्य को लेकर सरकार और
लोगों के अलग-अलग मत थे. पर महत्वपूर्ण यह है कि वह सब आम लोग थे, ऐसे लोग जिन्हें
इतिहास में कभी कोई स्थान नहीं मिलता.
आज भी हम नहीं जानते
कि कौन थे वह लोग जिन्हें उस दिन अपने जीवन की आहूति देनी पड़ी. कम से कम मुझे तो
उस म्यूजियम में कहीं कोई ऐसी सूची न दिखी.
ऐसे ही कितने अज्ञात
लोगों ने बलिदान दिया और हमें स्वतंत्रता मिली, इस बात की अनुभूति मुझे वहां
जलियांवाला बाग़ में हुई. मैं एक बार हल्दी घाटी भी गया था पर उस घाटी में योद्धा थे जो एक
दूसरे से लड़े थे.
दो दिन समाचारों से
दूर रहने के बाद लौट कर आश्चर्यचकित कर देने वाला दृश्य देखा. देखा कि कई टी वी
चैनल पर कुछ युवा अफज़ल गुरु के समर्थन में अपनी आवाज़ उठा रहे हैं, कई युवा उन
युवाओं के समर्थन में सडकों पर उतर आये हैं, इन सब युवाओं के समर्थन में कई
राजनेता सीना ताने खड़े हैं, बहस का मुद्दा यह भी है कि जे एन यू में तिरंगा फहराने
का आदेश सही है या गलत.
एक पल को लगा कि
कितने अभागे थे वह लोग जो 13 अप्रैल १९१९ के दिन जलियांवाला बाग़ आये थे. उन्होंने व्यर्थ अपना जीवन गवाया.
Bahut achha bole,IB.
ReplyDeleteBahut achha bole,IB.
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