Wednesday 10 June 2015

एक सुझाव ‘आप’ के लिए

किन ‘विकट’ परिस्थितियों का सामना करते हुए ‘आप’ के नेता दिल्ली का प्रशासन चलाने का ‘प्रयास’ कर रहे हैं, वह सर्व विधित है. परन्तु इतिहास में कई नेता हुए हैं जिन्होंने अनेक बाधाओं के होते हुए भी अपने दायित्व को बड़ी सफलता से निभाया और अपने देश और काल पर अपनी एक छाप छोड़ गये. ऐसे ही एक नेता थे अब्राहम लिंकन.

लिंकन जब अमेरिका के राष्ट्रपति बने तो वह एक सर्वप्रिये नेता नहीं थे, उन्हें चालीस प्रतिशत से भी कम वोट मिले थे. प्रशासन का कोई ख़ास अनुभव उनके पास न था. कई लोग लिंकन को राष्ट्रपति पद के लिए अयोग्य समझते थे. राजनीतिक कारणों से उन्हें अपने कुछ प्रतिद्वंदियों को भी मंत्री बनाना पड़ा था.

चौंतीस में से सात राज्यों ने अपने को यूनियन से अलग कर, एक नया देश बना लिया था, कॉन्फ़ेडरेशन जिसका अपना राष्ट्रपति था. सेना विभाजित हो चुकी थी और लगभग सभी अच्छे अफसर कॉन्फ़ेडरेशन के सेना में चले गये थे. यूनियन के विभाजन को लेकर कई प्रकार के मत थे.

लिंकन ने कॉन्फ़ेडरेशन के अस्तित्व को मानने से इनकार कर दिया. उनकी धारणा थी कि कोई राज्य यूनियन से अलग नहीं हो सकता. उन्होंने निश्चय कर रखा था कि देश का विभाजन नहीं होने देंगे. युद्ध के बादल मंडरा रहे थे. सिविल वार शुरू हो गई. एक भयानक और लम्बा युद्ध हुआ. जिसमें दोनों ओर के लगभग दस लाख आदमी मारे गये या घायल हुए.

आरंभ में यूनियन के सेना एक के बाद एक लड़ाई हारती गई. लिंकन ने कई सेना अध्यक्ष बदल दिए. बात-चीत की मांग उठने लगी. परन्तु लिंकन किसी भी तरह का कोई समझौता करने को तैयार न हुए.

लिंकन ने न कभी कोई बहाना बनाया न किसी को दोषी ठहराया. बस बिना विचलित हुए अपने ध्येय को ओर बढ़ते रहे. उन्होंने हर चुनौती को एक अवसर में बदल दिया.

उनके व्यक्तिगत जीवन में भी कठिनाइयाँ आईं, एक बेटे की मृत्यु हो गई, पत्नी बीमार रहने लगी.

अंतत यूनियन की सेना ने युद्ध में विजय पाई. दास प्रथा समाप्त कर दी गई. देश का विभाजन नहीं हुआ. इसी कारण लिंकन एक महान राष्ट्रपति माने जाते हैं.

दिल्ली में ‘आप’ के नेतृत्व में आत्म-विश्वास की कमी दिखाई पड़ती है. पहले दिन से ही हर ‘पवन-चक्की’ को अपना शत्रु मान ‘आप’ उससे झूझ रही है. यह दिखाने का प्रयास किया जा  रहा कि ‘आप’ ने भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक लड़ाई छेड़ रखी है, इस कारण सभी भ्रष्ट (अर्थात जो ‘आप’ में नहीं हैं) उनके खिलाफ लामबंद हो गये हैं.

बेहतर होगा कि इन ‘पवन-चक्कियों’ से झूझने के बजाय ‘आप’ दिल्ली की समस्याओं से झूझे. ऐसे वह लोगों का ‘आप’ में विश्वास मज़बूत होगा और ‘आप’ एक सार्थक विकल्प के रूप में उभर पायेगी.   



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