कंगाल-एक लघु कथा
“तो तुम एक महान चित्रकार बन गये हो...शताब्दी का सबसे
महान...वाह. सुना है सम्राट भी तुम्हारी खूब प्रशंसा करते हैं...आश्चर्य है...क्या
उन्होंने कोई उपहार भी दिया या प्रशंसा से ही......”
“इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. मेरे लिए महत्वपूर्ण यह कि
मैं वह कर रहा हूँ जो मैं करना चाहता हूँ. हाँ, परिश्रम बहुत करना पड़ा सीखने के
लिए क्योंकि ...अगर आपने मुझे किसी संस्थान में भेज दिया होता......”
“क्या कोई इन चित्रों को खरीदता भी है? या तुम्हें लगता
हैं कि तुम्हारे चित्र इतने अनमोल कि कोई इनका मोल दे ही नहीं सकता?”
“इससे से कोई फर्क .........”
पिता ने उसे बीच में ही टोक दिया, “फर्क पड़ता है, बहुत
फर्क पड़ता है. आज तुम कंगाल हो. हो या नहीं?”
“मुझे इस बात की कोई चिंता नहीं है. आखिरकार, आपकी सारी
धन-सम्पति मेरी ही तो है, एक दिन मुझे ही तो मिलनी है. मैं आपका इकलौता.....”
“मुझे दुःख है, तुम्हें निराशा ही मिलेगी....दूसरी
बार....मैंने अपनी सारी सम्पति उड़ा दी है. मैं भी अब कंगाल ही हूँ, तुम्हारी तरह.”
सच एक चित्रकार या रचनाकार अपने हुनर को बेचने के लिए कैसे तिकड़म कर सकता है, वो तो उसकी आत्मा है, फिर क्यों न वो चाहे कंगाल रहे । यथार्थ को उजागर करती हृदयस्पर्शी लघुकथा ।
ReplyDeleteधन्यवाद ब्लॉग पढ़ने के लिए और टिप्पणी के लिए
Deleteमार्मिक
ReplyDeleteबहुत सुंदर कथा, भावपूर्ण रचना
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