सत्यमेव.......
(तीन अंकों में समाप्य लंबी कहानी का दूसरा अंक)
वह स्तब्ध हो गया. वह तय न कर पाया कि रैना
साहब सत्य कह रहे थे या व्यंग्य कर रहे थे.
“अब तुम सत्य जान ही गये हो तो एक बात
जान लो. तुमने हीरों का हार लौटा दिया यह तुम्हारा निर्णय था पर मैं यह पैसे लौटने
वाला नहीं. लोकसभा का सत्र शुरू होने से पहले केस मंत्री जी के पास पहुँच जाना चाहिए.
सत्र के दौरान मंत्री जी किसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहते.”
एक कड़वाहट उसके भीतर फ़ैल गई. उसका मन
हुआ कि सारी कड़वाहट रैना जी के मुँह पर थूक दे और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगे. उसने
इधर-उधर देखा.चारों ओर बैठे लोग आनन्दमग्न लग रहे थे. हँसी की हल्की-हल्की लहरें
यहाँ-वहाँ से उठ रही थी. जुगनुओं सामान टिमटिमाती रोशनियाँ सबको लुभाने का प्रयास
कर रही थीं. आकाश दर्पण की तरह साफ़ था और तारे बिलकुल निकट दिखाई दे रहे थे.
सब कुछ इतना मादक था कि उसकी आँखों में
चुभने लगा. उसे लगा कि वहाँ जितने भी लोग थे सबके चेहरे एक जैसे थे.
“क्या सब वैसा ही जैसा दिखाई दे रहा
है?” उसने अपने आप से पूछा. उसने जूस का गिलास उठाया पर एक घूँट भी न पी सका. उसे
लगा गिलास ताज़े. गर्म खून से भरा हुआ था.
“सर, मुझे जाना होगा,” वह अचानक उठ खड़ा
हुआ.
उसकी पूरी तरह अवहेलना करते हुए रैना
साहब ने पास के टेबल पर बैठे एक सज्जन से कहा, “अरे, तुम कब आये? मैंने इतनी बार.................”
आहत और अपमानित, वह वहाँ से चल दिया.
इस कारण वह जान न पाया कि रैना साहब ने इतनी बार क्या किया था. घर पहुँचते ही उसने
सुधा को फोन किया था. उत्तर उसकी माँ ने दिया.
“अब समझ आ रहा है कि तुमसे सम्बन्ध बना
कर जीवन की सबसे बड़ी भूल कर दी...सोचा था क्लास वन अफसर हो...कुछ अक्ल होगी...सबसे
मेलजोल बना कर रखोगे...आगे बढोगे...पर तुम
तो किसी काम के न निकले...जानते हो जितना वेतन तुम्हें मिलता है उससे चार गुना हम
अपने मेनेजर को देते हैं...फिर तुम्हें किस बात का घमंड है...अगर तुम सुधा को
हीरों का हार लेकर नहीं दे सकते तो किस अधिकार से तुमने सहानी का हार लौटा......”
“क्या मैं सुधा से बात कर सकता हूँ,”
उसने टोक कर बोला.
“सुधा तुमसे तभी बात करेगी जब तुम
हीरों का हार लेकर उसके पास आओगे.”
विवाह के समय सुधा के परिवार का
गुज़र-बसर ठीक-ठाक ही चल रहा था. एक क्लास
वन अफसर को दामाद के रूप में पाकर सुधा की माँ फूली न समाई थी. लंबे समय तक वह
अपने ससुराल में एक नुमाइश की वस्तु बना रहा था. सुधा की माँ उसकी प्रशंसा
करते-करते थकती न थी. वो इस तमाशे से उकताने लगा था, बस सुधा को प्रसन्नचित देखकर
चुप रह जाता था.
फिर अचानक सुधा के पिता को अपने
कारोबार में सफलता मिलने लगी. माँ ने राजनीति में भाग लेना शुरू कर दिया. जिस पार्टी
में वह गई वह नई थी इसलिए तुरंत ही एक छोटी-मोटी नेता बन गई.
तभी से सुधा की माँ को उसकी व्यवहारिक
बुद्धि पर संदेह होने लगा था. उसके विभाग में लोग दोनों हाथों से दौलत बटोर रहे
थे, वह था कि अपने पिता के पदचिन्हों पर चलने की निरर्थक कोशिश कर रह था. यह बात
सुधा की माँ के लिए असहनीय थी. उनकी दृष्टि में वह महामूर्ख था.
सुधा से अधिक उसकी माँ दुःखी थी कि
अपने पद और अपने अधिकारों को भुनाने का हर अवसर वह चूकता जा रहा था. इतना ही नहीं
उनके हर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संकेत को वह समझने से इंकार कर रहा था. यह बात
उन्हें अपमानजनक लगती थी.
माँ की बातों में आकर सुधा उससे हर बात
में उलझने लगी और उसे नीचा दिखाने का अवसर ढूँढने लगी. आये दिन वह मायके जाकर बैठ
जाती और तब तक न लौटती जब तक उसकी कोई मांग न पूरी हो जाती. कभी महंगा टीवी, कभी
सोने की कोई चीज़, कभी नगद रूपये. हर बार उसे किसी न किसी प्रकार उसकी मांग पूरी
करनी पड़ती थी. फिर भी वह प्रसन्नता से वापस न लौटती.
उसने सोने का भरसक प्रयास किया पर नींद
थी कि आँखों से कोसों दूर. एक ही प्रश्न बार-बार उसके मन में उठ रहा था-सहानी के
मामले में वह क्या करे? वह जानता था कि वह
केस को बंद करने की अनुशंसा करता है तो सब कुछ ठीक हो जाएगा. कोई उसकी आलोचना नहीं
करेगा, कोई उसकी नियत पर संदेह नहीं करेगा. सहानी सब संभाल लेगा.
सहानी को कम से कम पाँच करोड़ मिले
होंगे, यह उसका अनुमान था, हालाँकि जांच कमेटी ने रिपोर्ट में इस बारे में कुछ न
लिखा था. कंपनी ने जितने भी कंप्यूटर भेजे थे सब के सब घटिया थे. सहानी सबको उचित
ठहरा कर, तुरंत अधीनस्थ कार्यालयों को भिजवा दिए थे. सहानी ने वहाँ भी संबंधित लोगों के कान में बात डाल
रखी थी.
एक दिन सहानी ने बड़ी अशिष्टता से कहा था कि उसका हिस्सा तो बस
दस प्रतिशत था, नब्बे प्रतिशत तो ऊपर वालों का था, “आपको भी तो कुछ मिला होगा, या
आपका हिस्सा रैना साहब ने हड़प लिया?”
केस उसके पास था. जो भी अनुशंसा वह
करेगा वैसे ही केस आगे बढ़ेगा. रैना साहब बस हस्ताक्षर करेंगे और केस मंत्री के पास
भेज देंगे, उसे इस बात का पूरा विश्वास था. सहानी मंत्री जी का संबंधी था यह बात सब जानते थे.
मंत्री जी के विरोधी उन्हें नीचा दिखने का कोई अवसर न चूकते थे. वह उन्हें एक
सुनहरा अवसर दे सकता था. एक विरोधी नेता ने तो उसके पास सन्देश भी भिजवाया था.
“एक करोड़!” उसने मन ही मन कहा. जितने
प्रमाण उसने इकट्ठे कर लिए थे उनके चलते तो सहानी का बच पाना कठिन ही नहीं, असंभव था. सहानी को
जेल भी हो सकती थी.
“एक करोड़! चाहूँ तो पचास लाख मैं भी
निकलवा सकता हूँ. सहानी तो पूरा दलाल
है...पर इस बार ऐसा फंसा है कि....छोड़ दूँ तो जीवन भर मेरे लिए भी दलाली करने को
तैयार हो जाएगा..........
“एक करोड़! विश्वास नहीं होता की रैना
साहब सच कह रहे थे. सब कुछ संभव है. मैं ही हूँ जो अपने पिता के संस्कारों की
अर्थी उठाये जी रहा हूँ.”
फोन की घंटी बजी तो वह हड़बड़ा कर उठ
बैठा. उसने घड़ी उठा कर समय देखा, दो बज रहे थे. “शायद सुधा का फोन होगा,” उसके मन
ने अधीरता से कहा. पर इस समय? क्यों? उसके हाथ फोन छूने से कतरा रहा था. उसने फोन
उठा लिया.
“हैलो!”
“उधर से किसे के रोने की आवाज़ सुनाई
दी. वह थोड़ा भयभीत हो गया.
“कौन है? क्या है? बोलो?”
“सर, मैं बर्बाद हो जाऊँगा.” सहानी था. लगा वह रो रहा था. नहीं....नहीं, हँस रहा
था.
उसने कल्पना भी न की थी कि सहानी ऐसे फोन करेगा. उसे संदेह हुआ, क्या वह सपना देख
रहा था? नहीं, यह सपना नहीं था.
“सर, मंत्री जी मुझे छोड़ेंगे नहीं. अगर
मेरे कारण उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा तो मुझे बर्बाद कर देंगे. शायद मरवा ही
डालें. बीस साल की राजनीति के बाद वह मंत्री बने हैं. अगर मेरी मूर्खता के कारण
किसी पचड़े में फंस गये तो मुझे कभी क्षमा नहीं करेंगे. आप जानते नहीं उन्हें,
मंत्री बने रहने के लिए वह कुछ भी कर सकते हैं. मैं अनुमान भी नहीं लगा सकता कि वह
क्या करेंगे. सर, मेरी ज़िन्दगी अब आपके हाथों में है. आप चाहें तो अपने हिस्से के
सारे पैसे मैं आपको दे सकता हूँ. बस एक बार माफ़ कर दें, मैं भीख मांगता हूँ.”
वह स्तब्ध सा सुनता रहा. उसे लगा कि सहानी
उसके साथ एक खेल खेल रहा था. न वह गिड़गिड़ा
रहा था, न दया की भीख मांग रहा था. सहानी तो उसे धमका रहा था. उसे बता रहा था कि अगर उसकी
मूर्खता के कारण मंत्री जी किसी पचड़े में फंसे तो वह उसे बर्बाद कर देंगे. घबरा कर
उसने फोन पटक दिया.
आज नींद भी उसके साथ खिलवाड़ कर रही थी.
स्वयं आने के बजाय उल्टे-सीधे विचार उसके पास भेज रही थी. अपने को सुलझाने का जितना
प्रयास वह करता उतना ही उलझता जा रहा था.
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कहानी का पहला अंक
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