सत्यमेव.......
(तीन अंकों में समाप्य लंबी कहानी का अंतिम अंक)
उसे ध्यान आया कि जब सहानी उससे बात कर रहा था उसे फोन पर किसी के हँसने की
आवाज़ भी सुनाई दी थी. सहानी अकेला न था.
कोई उसके साथ था जो हँस रहा था. निश्चय ही सहानी उसके साथ कोई खेल खेल रहा था और
उसके साथ कोई था जो इस खेल का मज़ा ले रहा था.
“कौन हँस रहा था? शायद रैना साहब
होंगे. क्या पता मंत्री जी ही हों.” वह अपने ही विचारों में उलझता जा रहा था.
“इन शक्तिशाली लोगों का सामना करना
क्या उचित होगा?” उसने अपने आप से पूछा.
उसे अहसास हुआ कि उसके साथ के सब लोग
उससे बहुत आगे निकल चुके थे. कुछ के बच्चे विदेश में थे. हर साल वह लोग विदेश
सैर-सपाटा करने जाते थे. जीवन की हर सुविधा उनके पास थी. अकसर अपनी पत्नियों के
साथ पेज थ्री की शोभा बढ़ाते थे.
“तो क्या मेरे संस्कार सब मिथ्या हैं?
जो शिक्षा पिता ने दी वह सब व्यर्थ है?” उसके सामने बस प्रश्न थे और कुछ भी नहीं.
अगले एक-दो दिन वह असमंजस की स्थिति
में रहा. वह जानता था कि रैना साहब अधीरता से फाइल की प्रतीक्षा कर रहे थे. दस दिन
बाद संसद का सत्र शुरू होने वाला था. परन्तु उन्होंने इस बारे में एक बार भी उसे
बात नहीं की. कई बार उनसे भेंट हुई पर सहानी का नाम भी उनकी ज़ुबान पर न आया.
न चाहते हुए उसने फाइल उठाई और खूब
सोच-विचार कर उस पर अपनी अनुशंसा दर्ज की. उसका नोट बहुत विस्तृत था. हर मुद्दे पर
उसने अपनी टिप्पणी की थी.
रैना साहब ने उसे बुला भेजा.
“अरे,फाइल अभी पाँच मिनट पहले ही भेजी
थी,” उसने मन ही मन सोच. “शायद अंतिम लाइनें ही पढ़ी होंगी.”
“तुमने वैसा ही लिखा है जैसा मैंने
सोचा था,” रैना साहब की वाणी बिलकुल सपाट थी. “तुम जैसे लोग अपने को मसीहा समझते
हो. अभिमान के साथ अपनी सलीब अपने कंधों पर उठाये घूमते हो. पर सच तो यही है कि किसी
मसीहा को तभी लोग पूजते हैं जब वह सलीब पर लटक जाता है, जीवनकाल में तो लोग उसे
पत्थर ही मारते हैं. तुम्हें मेरी बात समझ नहीं आएगी.जानते हो सुकरात ने क्या कहा
था, एक भले आदमी के साथ कभी बुरा नहीं हो सकता. लेकिन सुकरात को ज़हर तो पीना पड़ा
था.”
रैना साहब चुप हो गए. उसने कुछ न कहा.
वही बोले, “मैंने तुम्हारा नोट पढ़ा भी नहीं. मैं जानता हूँ तुमने अकाट्य तर्क दिए
होंगे. मेरे करने के लिए तुमने कुछ छोड़ा न होगा. इसलिए मैंने फाइल मंत्री जी के
पास भिजवा दी है..... पर मुझे तरस आता है...तुम अच्छे व्यक्ति हो, कुछ ज़्यादा ही
अच्छे. देखते हैं क्या होता है.”
वह थोडा विचलित हो गया. एक अंजान डर ने
उसे दबौच लिया. मंत्री जी न जाने क्या कर बैठें......सहानी से भी बच कर रहना होगा.
परन्तु वार सहानी ने नहीं, सुधा ने किया. वह नहीं जानता था कि
सुधा की माँ सहानी को पटाने की कोशिश कर रही थी. उसकी सहायता से वह पार्टी बदलना
चाहती थी.अपनी पार्टी में उसे कोई भविष्य नहीं दिखाई दे रहा था. वह किसी राष्ट्रीय
पार्टी में प्रवेश पाने की जुगाड़ में थी. सहानी ने उसे आश्वासन दे रखा था कि अगर उसका केस बंद
हो गया तो वह सुधा की माँ को विधान सभा का टिकट दिलवाने की कोशिश करेगा. जिस दिन
फाइल मंत्री जी के कार्यालय पहुँची उसी रात सुधा ने उससे तालाक लेने की इच्छा
प्रकट की.
फोन सुधा ने नहीं उसकी माँ ने किया था
और साफ कह दिया था कि अब उनका एक साथ रहना असंभव था. माँ ने यह भी स्पष्ट कर दिया
था कि बच्चे सुधा के पास ही रहेंगे.
उसने कल्पना भी न की थी कि उनके रिश्ते
का ऐसा अंत होगा. अपने दोनों बच्चों से वह बेहद प्यार करता था और उनके बिना रहने
की बात सोच भी न सकता था.
मंत्री जी ने सहानी के केस में कोई
निर्णय नहीं लिया. न ही किसी पचड़े में फंस कर उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा. जिस दिन
फाइल उनके कार्यालय पहुंची थी उस दिन वह अपने चुनावी क्षेत्र का दौरा कर रहे थे.
वहीं से विदेश यात्रा पर निकल गये थे.
फाइल उनके निजी सचिव के पास थी. एक रात
निजी सचिव के कार्यालय में बिजली की तारें आपसे में उलझ गईं और कमरे में आग लग गई.
जब तक आग बुझाई गई तब तक कई फाइलें जल कर राख हो गईं.
सहानी ने यह सूचना स्वयं आकर उसे दी थी, साथ में वह
मिठाई का डिब्बा भी लाया था.
“सर, आपने हमारा साथ न दिया. लेकिन सर,
कहते हैं कि होता तो वही जो मंजूरे खुदा होता है. आदमी के हाथ में क्या है? कुछ भी
नहीं. पर सर, आपसे मुझे बहुत आशा थी. वह तो अच्छा है कि मंत्री जी ने फाइल देखी
नहीं, देख लेते तो मेरे लिए मुसीबत खड़ी हो जाती.
“सर, आपका क्या है.....आप बड़े आदमी
हैं...पर मैं क्या करता? मैं तो कहीं का न रहता. मुझे तो ऐसी बुरी आदतें लग गई हैं
कि क्या बताऊँ? और मंत्री जो कहने को तो मेरे सगे-संबंधी है पर हिस्सा पूरा लेते
हैं. एक रुपया भी कम दो तो काटने को दौड़ते हैं. आपके तो मज़े हैं, न मंत्री का डर,
न घर-परिवार की चिंता. हमें तो घर भी
देखना पड़ता है और मंत्री जी की सेवा भी करनी पड़ती है. उन्हीं की कृपा से तो यहाँ
बदली हुई थी, पहले खुराना था, आपको तो पता ही है तीन सालों में दस करोड़ बना लिए थे
उसने, रैना का अपना आदमी था. रैना तो मुझे कभी यहाँ आने न देता. वो तो मंत्री जी
ने उसकी पूंछ दबाई तो रास्ता साफ़ हुआ. पर कीमत पूरी वसूल की मंत्री जी ने. इसलिए
मैं डरा हुआ था कि अगर कोई कार्यवाई शुरू हो गई तो बर्बाद हो जाऊँगा. रैना भी मुझे
से झुटकारा पाना चाहता है. रैना तो मन ही मन बहुत खुश था कि आप अपनी बात पर अड़े
है. मुझ से एक बात कहता था, मंत्री जी से दूसरी और आपको तो कुछ और ही कहता होगा.
रैना तो घाघ है. कोई अवसर नहीं चूकता. और एक बात कहूँ सर, आप जैसे लोग उसका काम
आसान कर देते हैं. आपकी ईमानदारी को बड़े सलीके से भुनाता है. जब से आप आये हैं
उसकी आमदनी दुगनी-तिगनी हो गई है. पर सर, आपने मेरे साथ अच्छा नहीं किया, मैं तो
आपकी मदर-इन-लॉ को विधायक बनाने की प्लानिंग कर रहा था, पर सर, अच्छा नहीं
हुआ......”
सहानी के मुँह से निकलती शराब की गंध एक धुंध समान
उसके चारों ओर फ़ैल रही थी. उसका दम घुटने लगा. सहानी को धक्के मार कर घर से बाहर
निकाल देने की तीव्र उत्कंठा उसके मन में आग तरह धधक रही थी.
“सर, रैना को सिर्फ पचास लाख देने की
बात हुई थी. लेकिन जैसे ही आपने यह बखेड़ा खड़ा कर दिया उसने एक करोड़ निकलवा लिए
मुझसे. संस्कारी लोगों का इस्तेमाल करने में उसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता. पर अब
लगता है उसका भी कुछ करना पड़ेगा. मंत्री जी के कान में बात डालनी पड़ेगी.....”
सहानी अचानक उठ खड़ा हुआ और बोला, “सर,
सत्य की हमेशा जीत होती है. इस बार भी हुई है, हर बार होगी. सर, मैंने आपको कितना
समझाने की कोशिश की थी की आप कुछ न कर पायेंगे. यही सत्य है और सत्य की हमेशा जीत
होती है. सत्यमेव .....”
सहानी फिर बैठ गया. तब उसने देखा कि सहानी हीरों का हार भी लाया था.
“सर, यह हीरों का हार, मैडम के मन भा
गया था. आपने मेरा कोई काम नहीं किया पर मैं उनका बहुत सम्मान करता हूँ. आप यह हार
उनके पास ले जाएँ. वह तब तक घर वापस नहीं आएँगी जब तक इस हार को लेकर आप उनके पास
नहीं जायेंगे.......”
उसे लगा कि वह कोई मनुष्य नहीं था, एक
बर्फ का पुतला था जो धीरे-धीरे पिघलता जा रहा था या रेत की बनी एक मूर्ति जो
ज़र्रा-ज़र्रा बिखरती जा रही थी.
सहानी क्या कह रहा था, क्या नहीं कह
रहा था, वह कुछ सुन न पा रहा था. वह तो वर्षों पीछे जा चुका था. उस पुराने घर में,
जहाँ उसका बचपन बीता था. वह चिड़िया के उस निर्दोष, असहाय, पंखहीन बच्चे को देख रहा
था, जिसे सैंकड़ों चींटियाँ खाए जा रही थीं. उस नन्हें बच्चे की पीड़ा वह आज भी महसूस
कर सकता था.
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