लोहड़ी का पर्व और अतीत की कुछ यादें
लोहड़ी का पर्व देश के कई भागों में
धूमधाम से मनाया जाता है. पर जिस रूप में यह त्यौहार कभी मेरे जन्म-स्थान जम्मू
में मनाया जाता था वह रूप सबसे अलग और निराला था.
लोहड़ी से कई दिन पहले ही लड़कों की
टोलियाँ बन जाती थी हर टोली मैं पाँच-सात लड़के होते थे . हर टोली एक सुंदर “छज्जा”
(यह डोगरी भाषा का शब्द है और हो सकता है इसको लिखने में थोड़ी चूक हो गई हो) बनाती
थी. पतले बांसों को बाँध कर एक लगभग गोलाकार फ्रेम बनाया जाता था जिसका व्यास साथ-आठ
फुट होता था. फ्रेम पर गत्ते के टुकड़े बाँध दिए जाते थे, जिनपर रंग-बिरंगे कागज़ों
से बने फूल या पत्ते या अन्य आकृतियों को चिपका दिया जाता था. सारे फ्रेम को रंगों
से और कागज़ की बनी चीज़ों से इस तरह भर दिया जाता था कि एक आकर्षक, मनमोहक पैटर्न
बन जाता था. फ्रेम के निचले हिस्से में एक मोर बनाया जाता.
पूरा होने पर ऐसा आभास होता था कि जैसे एक मोर अपने पंख फैला कर नृत्य कर रहा हो.
इसे बनाने में लड़कों में होड़ सी लग
जाती थी. हर कोई अपनी कला और शिल्प का प्रदर्शन करने को उत्सुक होता था. आमतोर पर हर
टोली अपने कलाकृति के लिए कोई थीम चुनती थी और अपने ‘छज्जे’ को अधिक से अधिक सुंदर और आकर्षक
बनाने की चेष्टा करती थी.
लोहड़ी के दिन एक या दो ढोल बजाने वाले
साथ लेकर हर टोली हर उस घर में जाती थी जहाँ बीते वर्ष में किसी लड़के का विवाह हुआ
होता था या जिस घर में लड़के का जन्म हुआ होता था. टोली उस घर में अपनी कलाकृति का
प्रदर्शन करती थी, ढोल की थाप पर नाचती थी. परिवार को लोग टोली को ईनाम स्वरूप कुछ
रूपये देते थे.
ऐसा घरों में सारा दिन खूब रौनक रहती
थी. दिन समाप्त होते-होते अधिकाँश टोलियाँ अपनी कला-कृतियाँ लेकर राज महल (जिसे
आजकल शायद हरी पैलेस कहते हैं) जाया करती थीं और वहाँ इनका प्रदर्शन करती थीं. कुछ
टोलियाँ तो दिन में ही वहाँ चली जाती थीं. अगर डॉक्टर कर्ण सिंह (जो लंबे समय तक
वहाँ के सदरे रियासत/ गवर्नर और बाद में केंद्रीय मंत्री रहे) महल में होते थे, वह
बाहर आकर लड़कों का प्रोत्साहन करते उन्हें कुछ भेंट वगेरह देते.
पर अस्सी के दशक में धीरे-धीरे त्यौहार
को इस रूप में मनाने का चलन कम होने लगा और नब्बे का दशक आते-आते पूरी तरह समाप्त हो गया. आज के लड़कों को तो पता भी न होगा
कि कभी लोहड़ी ऐसा त्यौहार था जिसकी प्रतीक्षा लड़के महीनों से करते थे और अपनी कला
और कारीगरी दिखाने के लिए बहुत ही उत्सुक होते थे.
मुझे नहीं लगता कि जम्मू के बाहर कहीं
भी लोहड़ी उस रूप में मनाई जाती थी जिस रूप में मैंने उसे अपने बचपन में देखा था.
जम्मू की लोहड़ी की छटा ही अनूठी थी. अब तो बस यादें बची हैं.
सभी पाठकों को लोहड़ी की हार्थिक बधाई
और शुभ कामनाएं .
Yes I also remember some Sabsthans used to give prize money for Best Lohri Chachhas and judging many chachhas participating in the organised function. But now these are only memories.
ReplyDeletethanks for reading the story
Deletethanks
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