Thursday 7 May 2015


खम्बा बनाम आदमी
(अंतिम भाग) 
(लेख का पहला भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें)

दो लोग उधर से गुज़र रहे थे. दोनों किसी दफ्तर की बाबू जैसे दिखते थे. उनके पास आने पर सुना, एक कह रहा था, “आजकल के लड़कों का खून ज़्यादा ही गर्म है. बहुत जल्दी लड़ने-मरने पर उतर आते हैं.”

दूसरा बोला, “लगता है आज फिर अपनी बस छूट गई, बस स्टॉप पर तो कोई दिखाई नहीं दे रहा?” दोनों तेज़ी से स्टॉप की ओर चल दिये.

उनके जाते ही दो लोग और आते हुए दिखाई दिए. वे क्या करते हैं यह जानने को मैं उत्सुक था.

एक कह रहा था, “यहाँ इस देश में सरकार जितनी निकम्मी है और पुलिस जितनी भ्रष्ट है शायद ही किसी और देश की सरकार उतनी निकम्मी और पुलिस उतनी भ्रष्ट होगी. अब भला किसी और देश में कोई इस तरह राह चलते को कोई पीट सकता.....”

दोनों इतनी दूर निकल गये थे कि सुन न पाया कि उनकी बात कहाँ खत्म हुई.

एक-दो करके कुछ और लोग वहां से गुज़रे परन्तु किसी ने न तो कुछ कहा और न ही कुछ किया. मुझे लगा कि उन सब को एक दुबले-पतले लड़के की पिटाई करते हुए तीन लड़के दिखाई न दिये होंगे. अब इस महानगर में हर एक को इतनी जल्दी रहती है कि सब कुछ देख पाना हर किसी के लिए संभव नहीं. हर एक की अपनी ही बीसियों मुसीबतें भी तो हैं.

दो लोग और आये. थोड़ा ठिठके और रुक गये. मैं ध्यान से उन्हें देखने लगा. दोनों गहरी सोच में थे.

एक बोला, “जब तक हमारा सामाजिक ढांचा बदल न जायेगा तब तक कुछ होने वाला नहीं है. अवर सोशल सिस्टम हैस आउट लिव्ड इट्स यूटिलिटी. एक नये समाज का उत्थान होना चाहिये एक ऐसा समाज जिसमें आदमी को आदमी की चाह हो.”

दूसरा बोला, “ आज के समाज में हम सिर्फ दूसरों को यूस करना जानते हैं. हमारे लिए दूसरे मनुष्य सिर्फ उपयोग की वस्तु हैं, नहीं भोग की वस्तु हैं यह कहना उचित होगा. वुई जस्ट एक्सपोलाइट अदर्स. हमें न किसी दूसरे से प्रेम है न किसी दुसरे की ज़रूरत.”

एक बोल, “हम सिर्फ अपने से प्रेम करते हैं. हमें सिर्फ अपनी ज़रूरत है. अन्य सभी हमारी इच्छाएं पूरी करने के साधन मात्र है.”

दूसरा बोला, “न जाने कब हम इस अभिशाप से मुक्त होंगे, या शायद मुक्ति हमारे भाग्य में है ही नहीं?”

धीरे-धीरे वह दोनों आगे बढ़ गये. मुझे विश्वास न हो रहा था कि इस संसार में ऐसे विचार करने वाले लोग भी हैं. उस दिन पहली बार आदमी के प्रति मेरे मन में आदर भाव जागा. पहली बार मैंने विधाता को कोसा कि उसने मुझे इतने सूक्ष्म विचारों से वंचित क्यों रखा. मैंने मन ही मन उन मनुष्यों को प्रणाम किया जिन्होंने मुझे मेरे अभाव का आभास कराया था.

अब तक दुबला-पतला लड़का इतनी बुरी तरह पिट चुका था कि वह अपना होश खो बैठा था उसे उसी हालत में छोड़ कर तीनों लड़के एक चलती बस में चढ़ गये.

घायल लड़के को देख मुझे लगा कि अगर जल्दी ही उसकी सहायता न की गई तो वह मर भी सकता है. कुछ लोग इकट्ठे हो गये थे. पर कोई कुछ कर नहीं रहा था. सब उसे देख रहे थे.

मेरा मन इस सबसे उकता चुका था. क्या हुआ कि  कभी मैं एक वृक्ष था और मेरी डाल पर बैठ कर पक्षी सुस्ताया करते थे और सुंदर गीत गाया करते थे. आज तो मैं बस एक खम्बा भर हूँ.


घायल लड़का दम तोड़ चुका था. उसके आसपास खड़ी भीड़ कहीं लुप्त हो गयी थी. मैं  चिंतित हूँ कि क्या मैं सचमुच मनुष्य जैसा हो गया हूँ. 

No comments:

Post a Comment