Friday 8 May 2015

क्या होता अगर

जॉर्ज वाशिंगटन अमरीका की उस सेना के सेनापति थे जो ब्रिटिश सेना के विरुद्ध स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रही थी. लगभग आठ वर्षों तक स्वतन्त्रता संग्राम चला. अंतत अमरीकी सेना जीत गई. पराजित ब्रिटिश सेना घर लौट गई. अमरीका स्वतंत्र हो गया.
कुछ अमरीकी चाहते थे की जॉर्ज वाशिंगटन सत्ता संभाले. कुछ चाहते थे कि वह सम्राट बन जायें. परन्तु वाशिंगटन ने ऐसा कोई सुझाव स्वीकार न किया और पद त्याग कर वह अपने फार्म पर वापस लौट आये.
नए राष्ट्र की राजनीतिक स्थिति धीरे-धीरे बिगड़ने लगी. वाशिंगटन को राजनीति में लौटना पड़ा. देश का नया संविधान बना. वाशिंगटन प्रथम राष्ट्रपति चुने गये.
राष्ट्रपति बनने के बाद वाशिंगटन ने इस बात का ख़ास ध्यान रखा कि वह ऐसी कोई प्रथा न स्थापित करें जिससे राजशाही का चलन देश में पनपने लगे. शुरू में तो उन्होंने सैलरी भी लेने से इनकार कर दिया था.
परन्तु वाशिंगटन का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय था उनका तीसरी टर्म लेने से इनकार कर देना. उस समय संविधान में ऐसी कोई धारा नहीं थी जो तीसरी बार चुनाव में खड़े होने से उन्हें रोक पाती. परन्तु उन्हें इस बात का आभास था की प्रथम राष्ट्रपति के रूप में जो परिपाटी वह शुरू करेंगे उसका भविष्य की राजनीति पर खासा प्रभाव पड़ेगा. और हुआ भी ऐसा ही. लगभग 150 वर्षों तक कोई राजनेता दो से अधिक बार अमरीका का राष्ट्रपति नहीं चुना गया.
क्या होता अगर नेहरु जी भी ऐसी ही किसी प्रथा का चलन इस देश में शुरू करते? अगर दस वर्ष प्रधान मंत्री रहने के बाद वह पद से हट जाते और किसी योग्य व्यक्ति को सत्ता सौंप राजनीति से पूरी तरह अलग हो जाते तो आज देश की राजनीति कैसी होती? जो राजशाही परिपाटी अँगरेजों ने अपना रखी थी अगर उसका प्रतिकार ईमानदारी से करते तो कैसा  होता आज के राजनेताओं का चलन और व्यवहार?
कम से कम  नेहरु जी की पार्टी के लोग इस प्रथा का अनुसरण करते और हर पाँच या दस वर्ष में देश को एक नया प्रधान मंत्री मिलता और राज्यों को नया मुख्यमंत्री.
राजनीतिक परिवारों को पनपने का शायद उचित वातावरण न मिलता. और देश की राजनीति परिवारवाद की दलदल में न फंसती.
आज अगर राजनीतिक परिवारों की सूची बनाने लगें तो शायद पूरी सूची बन भी न पाये. नेहरु-गांधी परिवार, अब्दुल्ला परिवार, बादल परिवार, करुणानिधि परिवार, मुलायम परिवार, सिंधिया परिवार. पायलट परिवार, पवार परिवार वगेरा-वगेरा; हम इन परिवारों को जानते हैं क्यों के यह दिल्ली में और दिल्ली के मीडिया में सुर्ख़ियों में रहते हैं, पर समस्या निचले स्तर तक पहुँच गई है. हर स्तर का राजनेता अब यह अपना अधिकार समझता है कि उसके बाद उसका परिवार का सदस्य ही उसका उत्तराधिकारी बने.
यह परिवारवाद कभी भी इस देश से सामंतवाद को मिटने न देगा क्योंकि दोनों एक दूसरे के पोषक हैं, परिपूरक हैं.
कितने लम्बे समय तक लोगों को परिवारवाद की सामंती चक्की में पिसना होगा यह कहना कठिन है.
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इस विषय पर आपके विचार क्या हैं जानने को उत्सुक हूँ.

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