Wednesday, 6 May 2015

खम्बा बनाम आदमी
(भाग 1)

मुझ जैसे बिजली के खम्बे तो आजकल बहुत कम दिखते हैं. इस महानगर में तो मुझ जैसा खम्बा शायद ही आपको दिखे. आदमी ने अब काफी तरक्की कर ली है. अब आपको दिखेंगे सीमेंट या लोहे के बने खम्बे. पर मेरी बात और है मुझे विधाता ने एक वृक्ष बनाया था. आदमी ने मुझे बिजली का खम्बा बना दिया. है न कितनी अजीब नियति?

लेकिन एक खम्भा बना कर भी आदमी मेरे अस्तित्व को पूरी तरह मिटा नहीं पाया है. कुछ है जो अब तक मेरे भीतर बचा हुआ है, कहीं बहुत भीतर. वैसे ही जैसे किसी झंझावात में सब कुछ ढह जाये पर कहीं बचा रह जाये किसी नन्ही चिड़िया का नन्हा-सा घोंसला. इतना ही नहीं, कभी-कभी लगता है अब तो मुझ में महसूस करने की शक्ति भी उपज आई है. शायद पहले से ही थी, पर इसका अहसास मुझे अभी ही हुआ है. अब हर बात को, जो चाहे बाहर घटे या भीतर, मैं महसूस कर सकता हूँ, ठीक वैसे ही जैसे कोई आदमी (पशु?) करता है.

जब मैं उस रूप में था जो रूप मुझे प्रभु ने दिया था सब कितना अच्छा लगता था, धूप, हरियाली, पक्षियों की चहचाहट, झरने की कलकल, वर्षा की रिमझिम, बरसती बूँदें, गरजते बादल, आकाश के एक छोर से दूसरे छोर तक फैला इन्द्रधनुष, आसमान के किसी कोने से झांकता सूरज- सब कुछ कितना मधुर था. मैं अनायास ही कोई गीत छेड़ दिया करता था.

नहीं, वह सब भ्रम था. मैं न तो महसूस कर पाया था सूरज की जानलेवा गर्मी को, न ही देख पाया था आकाश का काला रंग.

अब अगर पहले दिनों की याद आती है तो अच्छा लगता है. उन दिनों कभी कोई थका हारा पक्षी आता, मेरी किसी शाख़ पर पत्तियों की छाया में बैठ सुस्ता लेता और फिर फुर्र से उड़ जाता तो मुझे लगता कि मेरा होना कितना सार्थक है. पर अब न कोई शाखा है न कोई छाया. बिजली की तारें हैं जिन में फंस कर कभी-कभार कोई प्राणी अपनी जान गवां बैठता है. मृत्यु की घड़ी में निकली उन जीवों की दारुण चीख़ें मेरे भीतर कहीं कैद हो गई है, उन चीख़ों को सुनसुन कर अब मुझे लगने लगा है कि आदमी की भांति मुझे भी दुःख का अब अहसास नहीं होता. लगता है अब मैं भी आदमी जैसा हो गया हूँ. उस रोज़ की बात ही बताऊँ. उस दिन सुबह का समय था. मैं कुछ देर पहले ही नींद से जगा था.

शुरू के दिनों में मैं बहुत जल्दी जाग जाया करता था. पर अब शोर-शराबे के बावजूद मैं देर तक सो लेता हूँ ठीक वैसे ही जैसे फुटपाथ पर रहने वाले  आदमी, औरतें और बच्चे सो लेते हैं.

सुबह की हल्की धूप में मैं सड़क की चहल-पहल देख रहा था कि एक बस मेरे निकट आकर रुकी. बस से चार लड़के बाहर आये. उनमें एक लड़का दुबला-पतला सा था. उस दुबले-पतले लड़के को एक अन्य लड़के ने दबोच रखा था. उनके उतरते ही बस चल पड़ी. बस के जाते ही तीनों लड़के दुबले-पतले लड़के को पीटने लगे. वह लड़का कुछ मिमिया रहा था और अपने को बचाने का एक निष्फल प्रयास कर रहा था.


(अंतिम भाग अगले अंक में)  


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2 comments:

  1. अरोड़ा जी, बहुत ही उम्दा लेख है, इसके बारे में शब्दनागरी (http://shabdanagari.in/post/33568/-banaam-aadmi-1026850) पर आपके पेज पर पढ़ा और फिर सर्च करके आपके इस ब्लॉग तक आ गया. आपके व्यंग्य वास्तव में समाज का सजीव चित्रण करते हैं

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    1. अच्छा लगा जानकार कि प्रयास कर आप इस लेख तक पहुँच पाए, धन्यवाद

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