मीडिया और नेपाल त्रासदी
“आप को कैसा लग रहा
है?”
“आप कैसा महसूस कर
रहे है?”
“कितने लोग ज़ख़्मी
हुए?”
“कितना नुक्सान
हुआ?”
“कितने लोग मरे?”
नेपाल त्रासदी के
समय जितनी तत्परता भारत सरकार ने सहायता पहुँचाने के लिए की उससे अधिक तत्परता
हमारे मीडिया ने वहां के लोगों की विपत्ति का प्रदर्शन करने में दिखाई. मीडिया के
बीसियों लोग कैमरे और माइक लेकर नेपाल पहुँच गये. और गली-गली जाकर संसार को दिखाने
लगे कि नेपाल-वासियों पर कितनी बड़ी विपदा आन पड़ी है.
पर उनके प्रश्न वही
थे जो हम लोग सुनने के आदि हो गये हैं. किसी की कार में दुर्घटना हो जाये या किसी
के साथ बलात्कार हो जाये, किसी का परिवार आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो जाये
या कोई किसान पेड़ पर चढ़ कर आत्महत्या कर
ले, हमारा मीडिया यह जानने को बहुत उत्सुक
होता है कि “आपको कैसा लग रहा है?”, “आप कैसा महसूस कर रहे है?”
दुर्भाग्य से नेपाल
में भी हमारे मीडिया ने ऐसे ही प्रश्न पूछे. हमारे मीडिया की संवेदन हीनता से लोगों
में आक्रोश की भावना पैदा होना स्वाभाविक था. सरकार ने नेपालियों का विश्वास जीतने
के लिए जो प्रयास किये वह सब व्यर्थ होते दीख रहे हैं.
मुझे तो आज तक यह
समझ नहीं आया कि किसी त्रासदी की बीच मीडिया की क्या भूमिका होती है, खासकर उस
मीडिया की जो पुरी तरह संवेदनहीन हो और जिसके लिए सिर्फ टी आर पी ही सबसे महत्वपूर्ण
हो, “यह घटना सबसे पहले आपके इस चैनल पर दिखाई जा रही”. “सिर्फ हमारा चैनल सीधा
प्रसारण दिखाने का प्रयास कर रहा है.”
एक बात तो मीडिया
बिलकुल नहीं समझता. किसी शोक संतप्त आदमी को या परिवार को प्रदर्शन की वस्तु बना
कर जो अत्याचार मीडिया करता है वह उस त्रासदी से भी भयावह होता जिस त्रासदी से वह
आदमी या परिवार गुजरा होता है.
आज हमारे मीडिया ने
सारे देश को हास्यास्पद स्थिति में ला खड़ा किया है.
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